ब्‍लॉगर

पुलिस आयुक्त प्रणाली: प्रबल इच्छाशक्ति से होगा अमल

– डॉ. अजय खेमरिया

मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की इस बात के लिए सराहना की जाना चाहिए कि उन्होंने भारतीय शासन तंत्र के सबसे ताकतवर दबाव को दरकिनार कर इंदौर और भोपाल जैसे महानगरों में पुलिस आयुक्त प्रणाली अप्रैल 2022 से लागू करने का निर्णय ले लिया है। प्रदेश के इन दो महत्वपूर्ण शहरों में अब पुलिस कमिश्नर होंगे, इससे पहले 11 राज्यों के 74 शहरों में यह सिस्टम काम कर रहा है। इसलिये कहा जा सकता है कि इस निर्णय में नया क्या है? असल में पुलिस कमिश्नर प्रणाली भारत में सबसे ताकतवर कही जाने वाले आईएएस बिरादरी के परंपरागत और सामंती प्रभुत्व को चुनौती देने वाली प्रशासनिक व्यवस्था है।

पूरी दुनिया में भारत की आईएएस बिरादरी को सबसे ताकतवर के साथ जड़ और परंपरागत माना जाता है। आजाद भारत में शासन और राजनीति का अनुभव इस मान्यता को स्वयंसिद्ध करता है। वस्तुतः यह सामान्य धारणा है कि आईएएस ही भारत को चलाते हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री के रूप में इस लॉबी के अधिकारों को सीमित करने और उन्हें आईपीएस संवर्ग में हस्तांतरित कर बहुत कठिन राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है। इस प्रणाली को रोकने के लिए आईएएस लॉबी हर राज्य में समवेत होकर सक्रिय होती रही है। मप्र में इससे पहले भी कमिश्नर सिस्टम की चार बार घोषणा हो चुकी है लेकिन अमल अभी तक नहीं हो पाया है तो इसके पीछे आईएएस अफसरों का दबाव ही मुख्य है। इस आयुक्त प्रणाली को हमेशा ही आईएएस लॉबी के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है।

उत्तर प्रदेश का एक रोचक किस्सा है जो इस प्रणाली की आईएएस वर्ग के लिए अहमियत को बताता है। 40 साल पहले 1979 में तत्कालीन मुख्यमंत्री रामनरेश यादव ने कानपुर शहर के लिए पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू की थी लेकिन तब के पुलिस कमिश्नर को कानपुर पहुँचते ही वापस बुला लिया गया था। मुख्यमंत्री पर लखनऊ में आईएएस लॉबी ने इतना दबाव बना दिया कि उन्हें मजबूर होकर कमिश्नर नियुक्त किये गए श्री त्रिपाठी को फोन लगाकर ज्वाइनिंग से पहले ही वापस बुलाना पड़ा।

मायावती को अफसरशाही के विरुद्ध सख्त मिजाज सीएम गिना जाता है लेकिन वह भी इस मामले में निर्णय नहीं कर सकीं। अखिलेश यादव ने 2017 में अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में इस आशय के प्रस्ताव को आगे बढ़ाने की कोशिशें की थी। लेकिन वह भी सफल नहीं हुए। असल में अभी तक का अनुभव भी इस मामले में आईएएस की अपरिमित ताकत और मनमर्जी की तस्दीक करते हैं। मप्र के ताकतवर सीएम रहे दिग्विजय सिंह ने 14 मई 2001 को प्रदेश के दो बड़े शहर इंदौर और भोपाल में पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू करने की घोषणा की लेकिन वह ढाई साल तक इसे लागू नहीं कर पाए और 2003 में सत्ता से बाहर हो गए।

28 फरवरी 2012 को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कमिश्नर सिस्टम लागू करने का एलान किया था लेकिन अपने इस दूसरे कार्यकाल में वह इसे आगे नहीं बढ़ा पाए। तीसरे कार्यकाल में जनवरी 2018 में भी शिवराज सिंह ने इंदौर, भोपाल में नए पुलिस कमिश्नर की नियुक्ति की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। लेकिन सरकार प्रदेश में ताकतवर आईएएस लॉबी के आगे फिर इसे लागू नहीं करा सकी। बहुमत और राजनीतिक ताकत के मामले में दिग्विजय सिंह और शिवराज सिंह प्रदेश के चुनौती शून्य सीएम कहे जा सकते हैं। हरियाणा में हुड्डा और ओडिशा में नवीन पटनायक के समक्ष भी ऐसी ही परिस्थितियां निर्मित हुई। समझा जा सकता है कि हमारे तंत्र में आईएएस की ताकत किस व्यापकता से निर्वाचित निकाय को शिकंजे में जकड़े हुए है।

फिलहाल भोपाल और इंदौर में अगर यह लागू होता है तो यह समय की आवश्यकता भी है। जैसा कि सीएम खुद कह रहे हैं कि बढ़ते शहरीकरण की बहुआयामी चुनौतियां है जिनके मद्देनजर इस सिस्टम की आवश्यकता महसूस की जा रही है। पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू होते ही इंदौर, भोपाल में कुछ दाण्डिक ताकतों का प्रयोग अब डीएम की जगह पुलिस कमिश्नर करेंगे। वे दंगा, बलबा या शान्ति भंग की मैदानी स्थिति में धारा 144 के लिए डीएम के मोहताज नही होंगे। धारा151,107,116,109,110 के तहत अपराधियों की जमानत लेंगे।आर्म्स एक्ट,आबकारी, बिल्डिंग परमिशन जैसे काम भी खुद करेंगे। अफवाह तंत्र के विरुद्ध इंटरनेट शटडाउन के लिए भी वे खुद सक्षम होंगे। इस सिस्टम के तहत संभव है पुलिस महानिरीक्षक स्तर के अधिकारी इंदौर और भोपाल के पुलिस कमिश्नर बनाएं जाएं। इंदौर इस समय भारत का मिनी मुंबई कहा जाता है। वहाँ कानून व्यवस्था वाकई संवेदनशील विषय है। कमोबेश भोपाल भी प्रदेश की राजधानी के साथ एक संवेदनशील शहर है।

पुलिस कमिश्नर सिस्टम मूलतः अंग्रेजी राज के अवशेषों में ही एक है। पहले यह प्रेसिडेंसी शहरों यानी मुबई, मद्रास, कोलकाता में लागू रहता था। भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 कानून व्यवस्था के कुछ मामलों को विनियमित करने की शक्तियां डीएम को देता है जो कि पहले आईसीएस और बाद में आइएएस हो गए है। आईएएस अफसर अपनी दाण्डिक शक्तियों को एसडीएम के पास प्रत्यायोजित करते हैं। इसलिये जिलाबदर, गैंगस्टर जैसे मामलों में पुलिस की भूमिका नगण्य रहती है। इसे जिला बदर की कार्रवाई से समझा जा सकता है। किसी कुख्यात अपराधी का आतंक जब थाना क्षेत्र से निकलकर विस्तारित होने लगता है तब पुलिस ऐसे अपराधियों के विरुद्ध जिला बदर की कारवाई प्रस्तावित कर डीएम/कलेक्टर को भेजती है। डीएम ऐसे प्रकरणों को अपने यहां दर्ज कर बाकायदा सुनवाई और पक्ष समर्थन की प्रक्रिया अपनाकर एसपी के प्रस्ताव पर निर्णय करते हैं। अक्सर देखा गया है कि डीएम राजनीतिक या अन्य दबाव में इन प्रकरणों को लंबे समय तक लटकाए रखते हैं। पुलिस कमिश्नर प्रणाली में यह अधिकार कलेक्टर्स से छिन जाते हैं और कमिश्नर जिला बदर और गैंगस्टर एक्ट में सीधे निर्णय करने लगते हैं। जिला बदर अपराधी नियत समयावधि तक न केवल गृह जिले बल्कि उसके सभी सीमावर्ती जिलों में नहीं रह सकता है।

कमिश्नर कार्यक्षेत्र में आर्म्स लाइसेंस भी कलेक्टर नहीं कमिश्नर देते हैं। अभी जिलों के एसपी कलेक्टर को अपनी सिफारिश भेजते हैं कि फलां व्यक्ति को हथियार लाइसेंस दिया जाए या नहीं। धरना प्रदर्शन के दौरान कानून और सुरक्षा व्यवस्था बनाने का काम पुलिस के जिम्मे रहता है लेकिन इनकी अनुमति सबंधित एसडीएम जारी करते हैं। कमिश्नर प्रणाली में यह अधिकार भी राजस्व अफसरों से छीन लिया जाता है। बड़े शहरों में यातायात को निर्बाध बनाने के लिए पुलिस को बड़ी मशक्कत करनी होती है अक्सर अतिक्रमणकारियों के आगे पुलिस लाचार नजर आती है। कमिश्नर सिस्टम के चलते नगर निगम प्रशासन को न्यायिक आदेश जारी करने के अधिकार पुलिस को मिल जाते हैं। पुलिस कमिश्नर जमीनों और अतिक्रमण के मामलों में भी पटवारियों या दूसरे मैदानी राजस्व कर्मियों को एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट की तरह आदेश जारी करते हैं।

जाहिर है यह आईएएस अफसरों की ताकत में आईपीएस की सेंधमारी है। इन सबके बावजूद यह भी ध्यान रखना होगा कि पुलिस और आम आदमी के रिश्ते आज भी भरोसे के नहीं, भय के धरातल पर है। ऐसा न हो कि कमिश्नर सिस्टम इस भय को और बड़ा कर दे।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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