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श्रीकृष्ण: सबके और सबसे परे

– गिरीश्वर मिश्र

भारतीय जीवन में आस्था के सजीव आधार भगवान श्रीकृष्ण के जितने नाम और रूप हैं वे मनुष्य की कल्पना की परीक्षा लेते से लगते हैं। देवकीसुत, यदुनंदन, माधव, मुकुंद, केशव, श्याम, गोपाल, गोपिका-वल्लभ, गोविन्द, अच्युत, दामोदर, मोहन, यशोदानंदन, वासुदेव, राधावर, मधुसूदन, गोवर्धनधारी, कन्हैया, नन्द-नंदन, मुरारी, लीला-पुरुषोत्तम, बांके-बिहारी, मुरलीधर, लालबिहारी, वनमाली, वृन्दावन-विहारी आदि सभी नाम खास-खास देश-काल से जुड़े हुए हैं और उनके साथ-साथ जुड़ी हुई हैं अनेक रोचक और मर्मस्पर्शी कथाएँ जो श्रीकृष्ण की अनेकानेक छवियों की सुधियों में सराबोर करती चलती हैं। पूरे भारत में साहित्य, लोक-कला, संगीत, नृत्य, चित्र-कला, तथा स्थापत्य सभी क्षेत्रों में श्रीकृष्ण की अमिट छाप देखी जा सकती है। चित्रों में माखन चोर बाल श्रीकृष्ण, मोर पंख, कानों में कुंडल, पीताम्बरधारी और बांसुरी की धुन पर सबको नचाते नटवर नागर, राधा–कृष्ण की मनोहर युगल छवि, और युद्ध भूमि में रथ पर अर्जुन के सारथी के रूप में श्रीकृष्ण आज भी लोकप्रिय हैं। आज भारत में श्रीकृष्ण के कई रूपों की आराधना होती है जिनमें प्रमुख हैं पुरी में जगन्नाथ, पंढरपुर में बिटठल, नाथद्वारा में श्रीनाथ जी, द्वारिका में श्री द्वारिकाधीश. ब्रज भूमि (वृन्दावन, मथुरा, गोकुल) और सौराष्ट्र में द्वारिका के स्थान कृष्ण-स्मृति से गहन रूप से जुड़े हुए हैं जहां पहुँच कर भक्तजन आज भी आह्लादित हो उठते हैं।

श्रीकृष्ण एक ऐसी बहु आयामी व्यक्तित्व को रूपायित करने वाली सत्ता है जो पूर्णता का पर्याय है। इंद्र नील मणि की द्युति वाले, सांवले सलोने अप्रतिम सौन्दर्य के धनी, सदैव अविचलित रहने वाले, तेजस्वी श्रीकृष्ण सर्वभूत-चेतना से अनुप्राणित हैं और सबको अपनी और खीचते रहते हैं इसीलिए वे ‘कृष्ण’ हैं। वे सबको आकर्षित करते रहते हैं। वैष्णव भक्ति की परम्परा में श्रीकृष्ण की आराधना का विशेष महत्त्व है।श्रीमद भागवत कथा श्रवण भी भक्तों के लिए बड़ा पुण्यदायी होता है। श्रीकृष्ण के स्मरण के साथ ही मन में हर्ष, उल्लास, आह्लाद और प्रीति के तीव्र भाव स्फुरित होते हैं।

श्री वल्लभाचार्य जी के शब्दों में वे माधुर्य के अधिपति हैं और उनका सब कुछ मधुर ही मधुर है : मधुराधिपतेरखिलं मधुरं। उनका हंसना, बोलना, चलना, अंगभंगी, नृत्य, मैत्री, गायन, शयन यानी हर क्रिया में माधुरी ही माधुरी है। उनके अंग प्रत्यंग मधुर हैं। उनसे जुड़ी हर चीज मधुर है- गुंजा, माला, यमुना, कमल, गायें, लकुटी सब का सब। उनका संयोग और वियोग दोनों ही प्रियकर हैं। परन्तु श्रीकृष्ण के साथ तपाये स्वर्ण से शुभ्र आभा वाली श्रीराधा का नाम भी अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। वृषभानुजा राधिका जी के बिना श्रीकृष्ण का चित्र अधूरा रहता है।श्रीराधा श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति हैं। उनके बीच पुष्प और उसकी सुगंध, चन्द्र और चंद्रिका, जल और लहर तथा शब्द और अर्थ के बीच का अद्वैत रिश्ता है। कृष्ण राधा के स्वरूप हैं और राधा कृष्ण का स्वरूप हैं: राधाकृष्णस्वरूपो वै कृष्णं राधास्वरूपिणम्। वे एक शरीर हैं पर लीला के लिए दो आकार ग्रहण किए हैं।

श्रीकृष्ण सबके प्रिय हैं और उनका स्मरण करते हुए एक ऐसे मोहक चरित्र की छवि उभरती है जो सबके साथ सदैव योग-क्षेम का वहन करती है। यह लोक हर तरह के लोगों से भरा पड़ा है। इसमें दुष्ट, सज्जन, सबल, निर्बल, सात्विक, राजसिक, तामसिक, सभी तरह के स्वभाव वाले आते हैं। सबका समावेश करना आसान नहीं होता। पर कृष्ण हैं कि सबको देखते संभालते हैं। कृष्ण के जीवन में मथुरा में जन्म से लेकर द्वारिका में देह-विसर्जन तक की घटनाएं सीधी रेखा में नहीं घटती हैं। बड़े ही घुमावदार और अप्रत्याशित मोड़ों से गुजरते हुए कृष्ण कृष्ण बनते हैं। वसुदेव और देवकी के पुत्र कृष्ण का जन्म धुप्प अधेरी अमावस की रात में कारावास में हुआ, तत्काल उन्हें पालन-पोषण के लिए नन्द और यशोदा को सौंप दिया गया। उन्हीं के आँगन में उनका बचपन बीतता है, बचपन से ही नाना प्रकार की बाधाओं और चुनौतियों के साए में वे पलते-बढ़ते हैं। शिशु कृष्ण की बाल-लीलाए सबका मन मोह लेती हैं जिनका मनोरम चित्र भक्त कवि सूरदास जी ने खींचा है तो, घोर आंगिरस के विद्यार्थी कृष्ण अथक परिश्रम से विद्यार्जन करते हैं। किशोर कृष्ण की गाथा राधा रानी के साथ अभिन्न रूप से जुड़कर आगे बढ़ती है। श्रीकृष्ण का स्मरण ‘राधे-श्याम’ युग्म के रूप ही प्रचलित है। गोपिकाओं के साथ कृष्ण का मैत्री, प्रेम और भक्ति का मिलाजुला अद्भुत रिश्ता है। रास लीला श्रीकृष्ण, श्रीराधा और गोपियों के निश्छल प्रेम माधुरी को प्रकट करती है।

श्रीकृष्ण मैत्री के अनोखे प्रतीक हैं और एक बड़ी मित्र मंडली के बीच रहना उन्हें भाता है। वे शान्ति काल हो या युद्ध भूमि हर कीमत पर मित्रता निभाने को तत्पर रहते हैं। वे सम्बन्धों का भरपूर आदर करते हैं पर दुष्ट का संहार भी करते हैं। वे मुरलीधर हैं और बाँसुरी बजाना उनको बड़ा प्रिय है जिसकी धुन पर सभी रीझते हैं। पर वे सुदर्शन चक्र भी धारण करते हैं और अपराधी को कठोर दंड भी देते हैं। वे जन-नायक हैं और लोक हित के लिए राजा, देवता, राक्षस हर किसी से लोहा लेने को तैयार दिखाते हैं। वे नेतृत्व करते हैं और नीतिवेत्ता भी हैं। महाभारत में पांडवों की सहायता की और अर्जुन के रथ पर सारथी रहे तथा उनको परामर्श भी दिया: युद्धस्व विगतज्वर:। सच कहें तो अत्यंत व्यस्त और अनथक यात्री श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व गत्यात्मकता का विग्रह है। उन्हें तनिक भी विश्राम नहीं है। जिस किसी दुखी ने कातर भाव से पुकारा नहीं कि वे हाजिर हो जाते हैं। उनका खुद का कुछ भी अपना नहीं है पर वे सबके हैं।

भारतीय काल गणना के हिसाब से द्वापर युग में श्रीकृष्ण विष्णु के अवतार हैं और उनका हर रूप भारतीय मन के लिए आराध्य है। भक्तवत्सल कृष्ण शरणागत की रक्षा करते हैं और उनकी कृपा के लिए पत्र, पुष्प, फल या जल कुछ भी श्रद्धा से समर्पित करना पर्याप्त होता है। वैसे वे सबके ह्रदय में बसते हैं उनकी उपस्थिति से ही जीवन का स्पंदन होता है। कृष्ण योगेश्वर भी हैं और भगवद्गीता के माध्यम से सारे उपनिषदों का सारभूत ज्ञान उपस्थित करते हैं। वे गुरु भी हैं और राज-योग, ज्ञान-योग और भक्ति-योग की सीख देते हैं। अर्जुन के साथ उनका संवाद शिक्षा का प्रारूप प्रस्तुत करता है।

श्रीकृष्ण की मानें तो शरीर को माध्यम के रूप में साधना जरूरी है न कि लक्ष्य के रूप में ग्रहण करना। अंतत: आत्मा ही अस्मिता है और उसकी सत्ता से तादात्म्य मनुष्य को एक ऊंचे धरातल पर स्थापित करता है। योग से युक्त हो कर जीवन जीना ही श्रेयस्कर है। इसके लिए इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण जरूरी है जो अभ्यास और वैराग्य से पाया जा सकता है। तभी अखंड और अव्यय भाव से समग्र को देखने वाली दृष्टि मिल सकेगी। राग द्वेष से दूर और भय तथा क्रोध से मुक्त होने पर ही स्थितप्रज्ञ की स्थिति पैदा होती है। कार्य के प्रति निष्ठा इतनी कि कर्म अकर्म हो जाता- यानी सहज और स्वाभाविक पर निरासक्त भाव से कार्य करते हैं। कृष्ण जाने कितनों से जुड़े और जोड़ते रहे पर स्वयं को अप्रभावित रखा और कहीं ठहरे नहीं। उल्लेखनीय है कि द्वापर युग की समाप्ति की वेला में कृष्ण उपस्थित होते हैं। उनके बाद महाभारत युद्ध की परिणति के साथ परीक्षित राजा होते हैं और यही समय है जब कलियुग का आरम्भ होता है। उपस्थित हो रहे युगांतर की संधि में कृष्ण प्रकाशस्तम्भ की तरह हैं। उनका सूत्र चरैवेति चरैवेति ही था। कृष्ण की जिंदगी के लगाव बझाव और उसमें मार्ग की तलाश, समत्व के लिए सतत प्रयत्न ऐसा सूत्र है जो आज भी बासी नहीं है। आज के दौर में युक्त आहार, विहार, चेष्टा और विश्राम जीवन के लिए और अधिक जरूरी हो गया है।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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