इंदौर न्यूज़ (Indore News)

घर वाले वोट न दें मगर खुद को बता रहे हैं सबसे योग्य उम्मीदवार

  • राजनीतिक आकाओं की परिक्रमा के साथ तैयार करवाए चमचमाते बायो डाटा, महापौर से लेकर पार्षदों के प्रायोजित नाम चलवाने की भी होड़

इंदौर, राजेश ज्वेल। पंचायत और नगरीय निकायों के चुनाव भले ही देरी से हो रहे हैं, मगर बीते डेढ़-दो साल से दावेदारों ने तो घुंघरू बांध लिए थे और अब चुनाव की घोषणा के साथ अपने-अपने राजनीतिक आकाओं की परिक्रमा तो की ही जा रही है, वहीं भोपाल से लेकर दिल्ली तक संबंध खंगाले जा रहे हैं। चमचमाते बायो डाटा ऐसे बनवाए हैं कि खुद सेे बेहतर उम्मीदवार चिराग लेकर ढूंढने से भी न मिले। भले ही हकीकत यह हो कि गली-मोहल्ले वाले तो छोड़, घर वाले भी वोट न दें। महापौर से लेकर पार्षदों के लिए नाम चलवाने की होड़ मची है। मीडिया मैनेजमेंट के अलावा अब चूंकि सोशल मीडिया भी पॉवरफुल हो गया है, तो ट्विटर, फेसबुक से लेकर व्हाट्सएप पर भी ये दावेदार और उनके अट्ठे-पट्ठे सक्रिय हैं, जो भिया की दावेदारी बढ़-चढ़कर बता रहे हैं और जीतने के बाद वार्ड से लेकर पूरे शहर में विकास का समंदर बहने लगेगा और इंदौर लंदन, पेरिस, न्यूयॉर्क को भी पीछे छोड़ देगा।

सबसे कठिन चुनाव गली-मोहल्ले यानी निगम के ही रहते हैं। इसी तरह की स्थिति पंचायत चुनावों में भी बनती है। जितने ज्यादा उम्मीदवार, उतना ज्यादा राजनीतिक संघर्ष और जनता तक पहुंचने और अपने पक्ष में वोट डलवाने की काबिलियत इन चुनावों में सबसे ज्यादा देखी जाती है। सांसद और विधायक का चुनाव भले ही अधिक महत्वपूर्ण रहता हो, मगर उसमें अधिक दारोमदार राजनीतिक दल और उनके कर्ताधर्ताओं पर रहता है। कांग्रेस की बात अलग है, वहां तो दुकान खोलने से लेकर शटर बंद करने तक की जिम्मेदारी उम्मीदवार की ही रहती है। मगर भाजपा में चूंकि संघ और संगठन भी चुनावी मदद करता है, लिहाजा उम्मीदवार को व्यक्तिगत रूप से इन बड़े चुनाव में उतनी मेहनत नहीं करना पड़ती, लेकिन नगर निगम के चुनाव जो कि वार्डवार होते हैं, जिसमें एक-एक घर और उसके वोट का महत्व है। यही कारण है कि इन चुनावों में टिकटों को लेकर भी अधिक मारामारी रहती है।


बीते 20 सालों से इंदौर नगर निगम में चूंकि भाजपा परिषद् का ही बोलबाला रहा और जनता द्वारा भी चारों महापौर भाजपा के ही लगातार चुने जाते रहे हैं, इसलिए टिकट के दावेदारों का पहला संघर्ष तो टिकट हासिल करना है और भाजपा की टिकट जीत की गारंटी भी है। यही कारण है कि हर वार्ड में दर्जनभर से ज्यादा दावेदार हैं। हालांकि कांग्रेस में भी टिकट वितरण आसान नहीं रहेगा। कांग्रेस का महापौर तो तय हो चुका है और संजय शुक्ला ने मैदान भी पकड़ लिया। बीते सालभर से वे महापौर चुनाव की तैयारी कर ही रहे थे और अभी घोषणा के साथ ही उन्होंने नेताओं-कार्यकर्ताओं के साथ बैठकों का सिलसिला शुरू कर दिया और उनका जनसम्पर्क भी चल रहा है, लेकिन भाजपा के महापौर की दौड़ अभी दिल्ली दरबार तक रहेगी और चौंकाने वाला नाम आने की भी उम्मीद है। इन दिनों प्रायोजित तरीके से भी महापौर से लेकर पार्षदों के नाम चलवाए जा रहे हैं।

अखबारों में भी रोजाना दावेदारों के नाम आते हैं और इसके लिए भी मीडिया मैनेजमेंट तो चल ही रहा है, वहीं राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों ने भी सोशल मीडिया पर तगड़ी तैयारी कर रखी है। व्यक्तिगत पेज, वेबसाइट, ट्विटर एकाउंट से लेकर फेसबुक, व्हाट्सएप पर ग्रुप बनाकर पोस्ट की जा रही है, जिसमें भिया की दावेदारी पुख्ता तो है ही, वहीं उससे बेहतर उम्मीदवार कोई और नहीं हो सकता, ऐसे भी बढ़-चढ़कर दावे बायो डाटा से लेकर राजनीतिक आकाओं के कानों में फूंका जा रहा है। कई उम्मीदवार तो ऐसे हैं, जिन्हें यह पता है कि वे चुनाव किसी कीमत पर नहीं जीत सकते, मगर दावेदारों की भीड़ में सबसे आगे खड़े नजर आते हैं। पत्रकारों के पास भी दावेदारों के जब फोन आते हैं तो उसमें वार्ड में किए गए कामों की फहरिस्त गिनाने से लेकर यह बताया जाता है कि अपने अलावा दूसरा चुनाव जीत ही नहीं सकता। आप तो झांकी जमा दो और आपके भरोसे ही अपनी चुनावी नैया वैतरणी पार कर जाएगी। यही कारण है कि समाचार-पत्रों में भी दावेदारों के नित नए नाम सामने आते हैं, जो महापौर के लिए खुद को दावेदार बताते हैं। उनके समर्थक या पट्ठे व्हाट्सएप पर बढ़िया-शानदार पोस्ट बनाकर डालते हैं, जिसमें यह दावा किया जाता है कि भाजपा से लेकर संघ इस नाम पर गंभीरता से चिंतन-मनन कर रहा है। यह बात अलग है कि थोड़ी देर बाद ही इसका खंडन हो जाता है। कुल मिलाकर चुनावी माहौल जोरदार है, जिसमें नित नए-नए शिगुफे रोजाना देखने-सुनने को मिल रहे हैं।

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