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बकरीद पर शैतान को पत्थर मारने की परंपरा, जानें क्‍या है कुर्बानी के नियम

नई दिल्ली। आज देशभर में ईद-उल-अजहा(eid-ul-azha) यानी बकरीद का त्योहार मनाया जा रहा है. यह इस्लाम धर्म (Islam religion) का दूसरा सबसे बड़ा त्योहार जो ईद उल फितर(eid ul fitr) के 70 दिन बाद मनाया जाता है. इस दिन सुबह अल्लाह की इबादत के बाद जानवर की कुर्बानी दी जाती है और उसका गोश्त गरीब तबके के लोगों में बांट दिया जाता है. बहुत कम लोग ये बात जानते हैं कि इसमें कुर्बानी के बाद शैतान को पत्थर मारने की भी परंपरा (Tradition of stoning the devil) होती है.
क्यों मारते हैं शैतान को पत्थर
इस्लाम (Islam) में हज यात्रा(Haj Yatra) के आखिरी दिन कुर्बानी देने के बाद रमीजमारात पहुंचकर शैतान को पत्थर मारने की भी एक अनोखी परंपरा(A unique tradition of stoning the devil) है.यह परंपरा हजरत इब्राहिम (Hazrat Ibrahim) से जुड़ी हुई है. माना जाता है कि जब हजरत इब्राहिम अल्लाह को अपने बेटे की कुर्बानी देने के लिए चले थे तो रास्ते में शैतान ने उन्हें बहकाने की कोशिश की थी. यही वजह है कि हजयात्री शैतान के प्रतीक उन तीन खंभों पर पत्थर की कंकडियां मारते हैं.


क्यों दी जाती है कुर्बानी
ईद-उल-अजहा (eid-ul-azha) हजरत इब्राहिम की कुर्बानी की याद में मनाया जाता है. इस दिन इस्लाम धर्म के लोग किसी जानवर की कुर्बानी देते हैं. इस्लाम में सिर्फ हलाल के तरीके से कमाए हुए पैसों से ही कुर्बानी जायज मानी जाती है. कुर्बानी का गोश्त अकेले अपने परिवार के लिए नहीं रख सकता है. इसके तीन हिस्से किए जाते हैं. पहला हिस्सा गरीबों के लिए होता है. दूसरा हिस्सा दोस्त और रिश्तेदारों के लिए और तीसरा हिस्सा अपने घर के लिए होता है.

बकरीद की कैसे हुई शुरुआत
एक बार अल्लाह ने हजरत इब्राहिम की परीक्षा लेनी चाही. उन्होंने हजरत इब्राहिम को हुक्म दिया कि वह अपनी सबसे प्यारी चीज को उन्हें कुर्बान कर दें. हजरत इब्राहिम को उनके बेटे हजरत ईस्माइल सबसे ज्यादा प्यारे थे. अल्लाह के हुक्म के बाद हजरत इब्राहिम ने ये बात अपने बेटे हजरत इस्माइल को बताई.
हजरत इब्राहिम को 80 साल की उम्र में औलाद नसीब हुई थी. जिसके बाद उनके लिए अपने बेटे की कुर्बानी देना बेहद मुश्किल काम था. लेकिन हजरत इब्राहिम ने अल्लाह के हुक्म और बेटे की मुहब्बत में से अल्लाह के हुक्म को चुनते हुए बेटे की कुर्बानी देने का फैसला किया.
हजरत इब्राहिम ने अल्लाह का नाम लेते हुए अपने बेटे के गले पर छूरी चला दी. लेकिन जब उन्होंने अपनी आंख खोली तो देखा कि उनका बेटा बगल में जिंदा खड़ा है और उसकी जगह बकरे जैसी शक्ल का जानवर कटा हुआ लेटा हुआ है. जिसके बाद अल्लाह की राह में कुर्बानी देने की शुरूआत हुई.

कुर्बानी का नियम
कुर्बानी के लिए जानवरों चुनते समय पर अलग-अलग हिस्से हैं. जहां बड़े जानवर (भैंस) पर सात हिस्से होते हैं तो वहीं बकरे जैसे छोटे जानवरों पर महज एक हिस्सा होता है. मतलब साफ है कि अगर कोई शख्स भैंस या ऊंट की कुर्बानी कराता है तो उसमें सात लोगों को शामिल किया जा सकता है. वहीं बकरे की कराता है तो वो सिर्फ एक शख्स के नाम पर होता है. अगर जानवर को किसी भी तरह की कोई बीमारी या तकलीफ हो तो अल्लाह ऐसे जानवर की कुर्बानी से राजी नहीं होता है.

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