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विजय दशमी पर विशेषः यतो धर्मस्ततो जय:

– गिरीश्वर मिश्र

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भारतीय लोक-जीवन में गहरे पैठे हुए हैं। उनकी कथा आश्चर्यजनक रूप से हजारों वर्षों से विभिन्न रूपों में आमजनों के सामने न केवल आदर्श प्रस्तुत करती रही है बल्कि उसे जीवन के संघर्षों के बीच खड़े रहने के लिए सम्बल भी देती आ रही है। विजयादशमी की तिथि श्रीराम की कथा का एक चरम बिंदु है जब वे आततायी रावण से धरती को मुक्त करते हैं और ऐसे रामराज्य की स्थापना करते हैं जिसमें जन जीवन संतुष्ट और प्रसन्न है। उसे दैहिक, दैविक या भौतिक किसी तरह का ताप नहीं है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी स्वराज के रूप में रामराज्य की कल्पना की थी पर इस कल्पना को साकार करने के मार्ग में हम अभी बहुत दूर खड़े हैं। स्वराज का स्वप्न अभी भी अधूरा है। श्रीराम की कथा भी नाना प्रकार के संघर्षों की महागाथा है और भारत की स्वतंत्रता के बाद की कथा में बंधुता, समता और समानता का संघर्ष आज भी जारी है। ऐसे में श्रीराम का स्मरण दिलासा देता है। श्रीराम की कथा आज भी अत्यंत लोकप्रिय है। अब दशहरा के पूर्व धूमधाम से दुर्गा पूजा का उत्सव भी जुड़ गया है। देवी दुर्गा के पंडाल स्थानीय जीवन से जुड़े दृश्यों को भी दर्शाते हैं और भक्तों के लिए शक्ति का आवाहन का अवसर भी देते हैं। दूसरी रामलीलाओं का भव्य आयोजन भी किया जाता है।

जीवन के कठिन सत्य को दिखाते हुए विभिन्न पात्रों की सहायता से रामलीला सभी रसों के अनुभव द्वारा रंजन करने के साथ श्रोता और दर्शक के व्यथित चित्त के विश्राम लिए अवसर भी उपलब्ध कराती है। इसकी लोकप्रियता इसलिए भी है कि सबको राम बड़े जाने-पहचाने और अपने से लगते हैं। वे भी जीवन के उन सभी तरह के उतार-चढ़ावों के साथ दुख-दर्द सहते हुए आगे बढ़ते हैं जो किसी के साथ घटित होते हैं या हो सकते हैं। परिवार, समुदाय और समाज के बीच पनपने वाले हर छोटे-बड़े नाते-रिश्तों के सारे दर्द और उल्लास के भोक्ता राम की कथा के मुकुर में सबको अपना अक्स दिख जाता है। उन सबको झेलते हुए और उनके प्रभावों को आत्मसात कर आगे बढ़ते हुए राम सहज स्वभाव के साथ एक से एक कठिनाइयों को पार कर नई से नई ऊंचाई पर पहुंचते हैं। मानव शरीर धारण करने पर जीवन के कठोर सत्य की कसौटी पर वे हमेशा ही कसे जाते हैं। किशोरावस्था से ही उनके सामने जो चुनौतियों की शृंखला शुरू होती है उसका जीवन में कभी अंत नहीं हुआ पर सारे कष्टों के बीच वे अविचल भाव से स्थित रहे। प्रतापी राजपुत्र होकर भी उनके जीवन में राजमहल, वन, गिरि-प्रांतर, समुद्र तट हर कहीं जाना बदा था और उन स्थलों पर लम्बी अवधि तक रहते हुए अतीत को छोड़ वर्तमान में उपलब्ध वल्कल, कंद मूल के साथ पर्णकुटी में सीमित साधनों के सहारे जीवन-यापन करना अनिवार्य था। पर इस विकट परिस्थिति में भी वे अपने पूरे परिवेश के साथ अनुकूलित रहते थे। उनके लिए आसपास का कोई भी प्राणी ‘अन्य’ नहीं रहा, सभी अनन्य हो गए थे। वे गिरिजन, वनचारी और वानर सभी के हित के लिए जुटे रहे। करुणा और पर-दुखकातरता की भावना से ओत-प्रोत श्रीराम ने उन सबसे प्रेम तथा सौहार्द का रिश्ता बनाया और निभाया। ऐसे अनेक प्रसंग भी आते हैं जब वीर, धनुर्धर और अप्रतिम योद्धा होकर भी वे सामने वाले दोषी को अवसर देते हैं और ‘क्षमा वीर का भूषण है’ इस कहावत को चरितार्थ करते हैं। दूसरी ओर वे मोह और अहंकारग्रस्त रावण का वध करने में भी नहीं सकुचाते।

अपने प्रेरक और जीवंत आकर्षण से साहित्य और संस्कृति की अनेक विधाओं में संस्कृत साहित्य, हिंदी साहित्य ही नहीं अनेकानेक भाषाओं और लोक साहित्य में राम छाए हुए हैं। भारत और कई अन्य देशों की सांस्कृतिक परम्पराओं में राम की विभिन्न छवियों के साथ न केवल रामायण लिखी गई है बल्कि रामचरित का चित्रों में अंकन किया गया है। रामलीलाओं के भी अनेक रूप मिलते हैं जिनमें स्थानीय संस्कृति का पुट होता है। राम कथा को सस्वर ललित ढंग से कहने वाले व्यास गणों की भी अनेक परम्पराएं हैं जो बड़े ही सर्जनात्मक ढंग से श्रोताओं को राम की जीवन-यात्रा में सहभागी बनाते चलते हैं। ऐसा करते हुए वे रामचरित के विभिन्न प्रसंगों की सहायता से उदात्त मानवीय पक्षों को उद्घाटित करते हैं। इन लोकप्रिय आयोजनों में राम के संघर्ष, उनकी उलझन और वेदना को बड़े ही सरस और सुग्राह्य ढंग से जन-जन तक पहुंचाया जाता है। राम को धर्म का विग्रह कहा गया है: रामो विग्रहवान धर्म: । एक व्यापक अर्थ में राम का चरित धर्म मार्ग की चुनौतियों और उसके विचलन से उठने की मुश्किलों अर्थात जीवन के आधारों की मर्यादा स्थापित करने की राह में आने वाले प्रश्नों से रूबरू कराता है। गांव का अनपढ़ भी इनसे शिक्षित होता है और एक तरह के विवेक के भाव की अनुभूति करता है।

कहना न होगा कि विगत सहस्राधिक वर्षों में रामकथा भारत के जातीय मानस में इस तरह समा चुकी है कि उसकी स्मृति अभी भी अक्षुण्ण बनी हुई है। वाल्मीकि, कम्बन, भवभूति और तुलसीदास आदि महान कवियों ने राम के भाव की नए-नए ढंग से सर्जना की है। वाल्मीकि तो कथा कहते भी हैं और खुद कथा के एक पात्र भी हैं। श्रीराम सारे भारतीय समाज में न केवल आख्यानों और जनश्रुतियों के नायक हैं बल्कि आज भी विभिन्न मांगलिक अनुष्ठानों में लोकगीतों में विभिन्न अवसरों पर राम ही माध्यम बनते हैं। उनके नाम को सबने अपनाया है और सबने अपने-अपने ढंग से राम में अपने प्राप्तव्य को खोजा और पाया है। यह कथा देश से बाहर थाईलैंड और इंडोनेशिया तक पहुंची। अन्य संस्कृतियों के सम्पर्क में वाल्मीकि की मूल कथा ने कई रूप धारण किया है और उसमें बदलाव होते रहे हैं। भारत की अधिकांश और कई विदशी की भाषाओं में न सिर्फ अनुवादित हुई है बल्कि बार-बार रची जाती रही। इसके चलते आज न केवल कई तरह की रामायण उपलब्ध है बल्कि राम से जुड़े काव्य, उपन्यास और नाटकों की भी बहुत विशाल संख्या है। यह क्रम अभी भी जारी है। यह श्रीराम कथा की मूल्यवत्ता का ही प्रमाण है। हम उसे स्मरण और अनुभव करते हुए श्रीराम की ओर अग्रसर होने की आकांक्षा भी रखते हैं।

देश काल की सीमाओं का अतिक्रमण करती हुई श्रीराम की कथा शौर्य, धर्म, सत्य, चरित्र, मैत्री, दया, करुणा और नैतिकता जैसे मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करती है। ठीक इसके विपरीत रावण एक ऐसे शूरवीर और विद्वान के रूप में उपस्थित होता है जो धर्म, करुणा, दया, न्याय से रहित है। विजयादशमी का पर्व रावण के नाश का स्मरण दिलाता है। हम प्रति वर्ष यह अनुष्ठान करते हैं। आज के सामाजिक संदर्भों में जहां गरीबी, शक्तिवान का वर्चस्व, सत्ता और वर्ग भेद के वश में लोग दिग्भ्रमित हो रहे हैं और हिंसा, भ्रष्टाचार, दुष्कर्म और अपराध प्रबल होते जा रहे हैं; सत्य की पुकार अधिक मूल्यवान होती जा रही है। हमें अपने अंदर झांकना होगा और अपने राम को जगाना होगा।

(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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