खरी-खरी ब्‍लॉगर

बजट में तेरे कहां हमारे गम हैं… कैसे बताएं कि तेरे ही तो सताए हम हैं..

 


तारीफ करें क्या उनकी… जिसने हमें रुलाया… वो बजट (Budget) बना रहे हैं और हमारा बजट बिगाड़े जा रहे हैं…सडक़ें बन जाएंगी… कॉलेज (college) खुल जाएंगे… तीर्थदर्शन कराएंगे… लेकिन जब दाल-रोटी के लाले पड़ जाएंगे… सब्जी (vegetable) तो दूर प्याज तक नहीं ला पाएंगे… रसोई गैस (cooking gas) के दाम इतने बढ़ जाएंगे कि चूल्हे की आग में खाना तक नहीं बना पाएंगे… वाहनों के चक्के थम जाएंगे… बसों के लिए पैसे नहीं बच पाएंगे… पैदल चलकर कहां तक जाएंगे… बच्चों को कैसे पढ़ाएंगे… जब जीवन ही नहीं चला पाएंगे… अपने घर का बजट नहीं संभाल पाएंगे तो प्रदेश और देश के बजट पर क्या जश्न मनाएंगे… पहले कोरोना काल ने तपाया… अच्छे-अच्छों को बेरोजगार बनाया… घर का दाना-दाना बीनकर खाया… जब घर से बाहर निकलने का वक्त आया तो महंगाई ने इस कदर सर उठाया कि चेहरों पर पसीना और आंखों में आंसुओं का सैलाब उतर आया… पुरुष कमाई के लिए जद््दोजहद में लगे हैं और महिलाएं चिल्लर से घर चला रही हैं… उधर सरकार कहीं रसोई गैस तो कहीं पेट्रोल-डीजल में आग लगा रही है… टैक्सों की भरमार बढ़ाए जा रही है… वसूली के लिए अधिकारियों की फौज घर-दुकान पर ताले लगा रहा रही है… बिजली बिलों के झटके से नींद उड़ी जा रही है… हर वर्ग पर मुसीबतें बढ़ती जा रही हैं… हर चीज की कीमतों में आग लगी जा रही है… सीमेंट, सरिया आसमान पर जा रहा है… रेत, गिट््टी का भाव सोने की तरह बढ़ता जा रहा है… अधूरे प्रोजेक्ट पूरे नहीं हो पा रहे हैं… कोरोना काल में घर गए मजदूर वापस नहीं आ रहे हैं… उत्पादन घटता जा रहा है… उद्योगों में निराशा का भाव इस कदर बढ़ता जा रहा है कि नया निवेश नजरें चुरा रहा है… पूरा देश अनचाहे अंधकार में फंसता जा रहा है… देश वैक्सीन बनाने के गर्व से इठला रहा है… लेकिन करोड़ों डोज घरों में रखकर सरकार किस्तों में वैक्सीन बांट रही है… इसको लगेगा, उसको लगेगा, इनको लगेगा, उनको नहीं लगेगा जैसे ऊलजुलूल नियम बना रही है… अदालतों से इंसाफ वक्त चुरा रहा है… न वकील अदालत जा पा रहा है और न जज को ऐतबार हो पा रहा है… हर आदमी डर-डरकर जीवन गुजार रहा है और आम आदमी मरा जा रहा है… फिर कहीं देश का तो कहीं प्रदेश का बजट थोपा जा रहा है… बजट में भी लुभावने वादे किए जा रहे हैं… करोड़ों की योजनाओं के ऐलान हुए जा रहे हैं… लेकिन समझने वाले मन ही मन घबरा रहे हैं… जब यह नई-नई योजनाएं बनाएंगे तो खर्च बढ़ाएंगे और आम आदमी से वसूली के लिए कर बढ़ाएंगे… जितना बजट लुभावना होगा उतना ही जानलेवा भी बनेगा… जितने वादे किए जाएंगे उतनी कमर तोड़ी जाएगी… आत्मनिर्भरता का बखान करेंगे और घुटना आम आदमी पर धरेंगे… अर्थशास्त्री पता नहीं कब लोगों की जिंदगी का बजट समझ सकेंगे…

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