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हर दो साल में धरती से गायब हो रही एक औषधि, संरक्षण को लेकर आयुर्वेद की विश्व कांग्रेस ने जताई चिंता

पणजी। विभिन्न जड़ी-बूटी और औषधियों(Herbs and Medicines) का हम चिकित्सा के तौर पर सेवन करते हैं। हालांकि, धीरे-धीरे प्रकृति की यह सौगात लुप्त हो रही है। धरती से हर दो साल में एक न एक औषधि लुप्त हो रही है, जिसके संरक्षण को लेकर आयुर्वेद की विश्व कांग्रेस में विशेषज्ञों (experts in congress) ने गंभीर चिंता व्यक्त की है।

पणजी में आयोजित नौंवी विश्व आयुर्वेद कांग्रेस में विशेषज्ञों ने कहा, जलवायु परिवर्तन (Climate change) और सरकारों की अनदेखी से औषधियों को नुकसान हो रहा है। उन्होंने औषधीय पौधों के संरक्षण के लिए नई कार्यनीतियों की मांग की। इस चर्चा में अमेरिका, यूके, जापान, अफ्रीका, नेपाल और ताइवान (Nepal and Taiwan) के वैज्ञानिक भी शामिल रहे। विशेषज्ञों के अनुसार, विलुप्त होने की दर प्राकृतिक प्रक्रिया की तुलना में 100 गुना तेज है। औषधीय पौधों के संरक्षण के लिए केंद्रित और नवीनतम कार्यनीतियों के लिए एक मजबूत आधार निर्मित करना जरूरी है, क्योंकि मात्र जागरूकता अभियानों पर भरोसा करना काफी नहीं है। छत्तीसगढ़ के स्टेट मेडिसिनल एंड एरोमैटिक प्लांट्स बोर्ड के सीईओ जेएसीएस राव ने अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) का हवाला देते हुए कहा, दुनिया की लगभग 20 से 25 हजार संवहनी पौधों की प्रजातियों में से लगभग 10% अलग-अलग स्तर के खतरों से गुजर रही हैं।

विशेष कानून पर ध्यान देना जरूरी
गोवा के राज्य (State of Goa) जैवविविधता बोर्ड के सदस्य सचिव डॉ. प्रदीप विठ्ठल ने कहा कि भारत में 45 हजार पौधों की प्रजातियां हैं। इनमें 7,333 औषधीय सुगंधित पौधे हैं। हमें क्षेत्र अध्ययन, उचित दस्तावेजीकरण, न्यूनीकरण उपाय, लुप्त प्राय प्रजाति अधिनियम, 1973 जैसे विशेष कानून और पुर्न प्राप्ति कार्यक्रम जैसी संरक्षण कार्यनीतियों को अपनाना होगा।


दो प्रजातियां पूरी तरह से गायब
गोवा विवि के वनस्पति विज्ञान विभाग के प्रोफेसर जनार्थानम ने बताया, भारत में संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची में पौधों की संख्या 387 है जबकि 77 गंभीर रूप से विलुप्त प्रजातियां हैं। वन में दो प्रजातियां पूरी तरह से गायब हो गई हैं।

भारतीय वन अधिनियम में बदलाव की आवश्यकता
केंद्रीय आयुष मंत्रालय के पूर्व संयुक्त सचिव और राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड के पूर्व सीईओ जितेंद्र शर्मा ने कहा, नीतिगत हस्तक्षेप के बारे में यह पता लगाना जरूरी है कि देश में औषधीय पौधों के कच्चे माल की आपूर्ति शृंखला के साथ, हम प्राकृतिक संसाधन संरक्षण प्रयासों में कहां तक सक्षम हो पाए हैं। वन्य से संवर्धित संसाधनों से आपूर्ति शृंखलाओं का एक सहज जुड़ाव बड़ी चुनौती है। भारतीय वन अधिनियम 1927 में संशोधन करने की आवश्यकता है, क्योंकि राष्ट्रीय पारगमन परमिट के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो वनोपज को देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में ले जाने की अनुमति देता हो।

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