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अमेरिका और अफगानिस्तानः जीत या हार ?

– डॉ. विश्वास चौहान

अंतरराष्ट्रीय विचारक, लेखक, कूटनीति के जानकार अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना हटाने और तालिबानी शासन दोबारा कायम होने पर अमेरिका की भूमिका का अपने-अपने नजरिये से विश्लेषण कर रहे हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय विधि के प्रोफेसर की हैसियत से मैं आपको बताना चाहता हूं कि अफगानिस्तान में जो कुछ भी घट रहा है, वह विधिवत अंतरराष्ट्रीय कानूनों के आधार पर हुए समझौते के अनुसार ही किया जाना है, समझौते का उल्लंघन अलग विषय है।

संयुक्त राज्य अमेरिका और तालिबान ने तीन महीने पहले कतर में एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए और अफगानिस्तान में 19 साल तक चले युद्ध को समाप्त करते हुए अफगानिस्तान में मौजूद अलग-अलग राजनीतिक ताकतों के बीच बातचीत का रास्ता खोला। अमेरिका के विशेष दूत जाल्मय खलीलजाद के साथ दो साल तक चली सुलह और समझौते संबंधी बातचीत के बाद, सभी पक्षों ने एक रुख अपनाते हुए अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी का मसौदा तैयार किया। इसमें अमरीका के साथ अफगानिस्तान की अपदस्थ गनी सरकार के प्रतिनिधि भी शामिल हुए थे।

अफगानिस्तान के इतिहास का विश्लेषण कर कुछ विद्वान यह कह सकते हैं कि सोवियत यूनियन को भगाने के लिए अमेरिका ने ही तालिबान का सृजन किया था। लेकिन इस विषय पर मेरा प्रश्न यह है कि क्या वहां के निवासी इतने भोले थे कि उन्होंने तालिबान के सृजन को स्वीकार कर लिया ? अगर कोई किसी को कुआं में कूदने के लिए उकसाए और अगर वह कूद जाए तो दोष किसका होगा ? वास्तव में अमेरिका, 9/11 के सन्दर्भ में अफगानिस्तान में छुपे आतंकियों को निकालने ही गया था। जब वे आतंकी दड़बों में मार दिए गए तो अमेरिका की उपस्थिति अफगानिस्तान में केवल सैन्य शक्ति प्रदर्शन तक सीमित रह गयी थी।

विगत दिनों जब मैं ओबामा की एक किताब पढ़ रहा था, उसमें इस विषय पर भी तथ्य दिए गए हैं, जिनके अनुसार राष्ट्रपति ओबामा के प्रशासन के समय जब बाइडेन उपराष्ट्रपति थे, तभी वे ओबामा को अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना को बाहर निकालने के लिए कह रहे थे। ओबामा अपनी इस पुस्तक ‘ए प्रोमिज़्ड लैंड’ (A Promised Land) में लिखते हैं कि वर्ष 2009 में अफगानिस्तान पर राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की व्हाइट हाउस में प्रथम मीटिंग के बाद जब ओबामा कांफ्रेंस रूम से अपने ऑफिस जाने के लिए सीढ़िया चढ़ रहे थे, तब बाइडेन तेजी से उनके पास आए और उनकी एक बांह पकड़कर कहा- “मेरी बात सुनिए बॉस; आर्मी जनरल आप को फंसा रहे है कि अफगानिस्तान में अधिक सेना भेजी जाए तथा सेना समस्या को सुलझा लेगी, आप उन्हें ऐसा मत करने दीजिए।”

जहां तक अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प की बात है तो वे भी अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना को वापस बुलाना चाहते थे। बाइडन को सेना वापसी की शुरुआती भूमिका उन्हीं के कार्यकाल की तैयार मिली है। यह कार्य अंत में बाइडेन ने पूरा किया।

यह एक निर्विवाद सत्य है कि आज के युग में किसी भी राष्ट्र को बाहरी सैन्य शक्ति द्वारा नहीं बनाया जा सकता। स्वयं राष्ट्र के लोग ही अपने राष्ट्र का पुनर्निर्माण या व्यवस्था परिवर्तन करते हैं। आज का अफगानिस्तान, सीरिया, यमन, इराक, लीबिया की घटनाएं यही सिद्ध करती है।अगर कोई यह कहता है कि अमेरिका अफगानिस्तान से हारकर भाग गया, जैसे कि अमेरिका वियतनाम से भागा था या बिल्कुल वैसे ही जैसे मुजाहिदीनों ने महाशक्ति रूस को भगा दिया था, तो वे अंधेरे के स्वर्गलोक में जी रहे हैं। उन लोगों से मेरा प्रश्न है कि क्या अमेरिका अफगानिस्तान पर कब्जा करने आया था ? क्या अमेरिका ने तालिबान का खात्मा करने की कसम उठाई थी ? वास्तव में अमेरिका ने इस विषय पर कोई वादा या बयान कभी नहीं दिया है।

अमेरिका अफगानिस्तान में आया था, ओसामा बिन लादेन की खोज में जो कि पहले तो वहां की टोरा बोरा गुफाओं मे छुपा रहा, अमेरिकी सेना ने उसे खोजने के लिए ओसामा के सहयोगी तालिबानों को मारकर (एक आंख वाले मौलाना उमर सहित) पूरे तालिबानी इलाकों को नष्ट किया। जबकि वो जानता था कि ओसामा पाकिस्तान में छुपा है।

फिर एकदिन उसकी सील टीम-6 पाकिस्तान में आई और आपरेशन जेरेनिमो के जरिये ओसामा बिन लादेन को उसने ठिकाने लगाया। कोई नहीं जानता कि उसे मार दिया, कूट दिया, समुद्र में फैंका या फिर किसी अमेरिकी जेल में CIA और FBI के लोग उस पर थर्ड डिग्री आजमा रहे हैं इसलिए अगर किसी को लगता है अमेरिका ने तालिबान से मुक्ति दिलाने के लिए अफगानिस्तान में अवतार लिया था तो उनको ये गलत जानकारी है।

अमेरिका को लादेन के बहाने पहले पूरे अफगानिस्तान में आतंकी ठिकाने नष्ट करने थे । जिसके लिए उनकी बडी कंपनियो ने पैसा उपलब्ध कराया था । फिर उसी टूटे फूटे मिट्टी का ढेर बन चुके अफगानिस्तान मे एक कठपुतली सरकार बैठाकर , सडक, पुल , बाँध, सेना , पुलिस , से लेकर हर ठेका अमेरिकी कंपनियो को देकर, उनको लागत पर बीस गुणा मुनाफा दिलवाना था

अमेरिका का मकसद पूरा हुआ। उसने लादेन को निपटा लिया, अल कायदा का वजूद खत्म कर दिया। अंत मे शिया ईरान को साधने के लिए, उसे पड़ोस मे सुन्नी तालिबान की जरूरत थी। तो शांति प्रक्रिया के बहाने तालिबान को अमेरिका ने ही फिर से खड़ा किया, उनसे बातचीत की। और समझौते में उनके लिए सत्ता पर काबिज होने की राह साफ करके पल्ला झाड़कर अपना मकसद पूरा करके निकल लिया। इसलिए अफगानिस्तान में अमेरिका की हार हुई कहने वाले जियो-पाॅलिटिक्स के विद्वानों से मेरा कहना है कि आपको सीआईए की ठीक से समझ नहीं है। वे कोई भी कार्य अध्ययन और शोध के बाद पूरी तैयारी से करते हैं।

अमेरिका ने आपरेशन एंडोयोरिंग फ्रीडम में सीधे तौर पर अपनी फौजें नहीं उतारी थी बल्कि उसने नाॅर्दन अलायंस को पैसा और हथियार दिये थे। तालिबान को हटाकर अपनी कठपुतली सरकार बैठाने के लिए उसने ताजिक जनरल अब्दुल रशीद दोस्तम और अहमद शाह मसूद के कंधों पर रखकर बंदूक चलायी थी। कंधार में मुल्ला उमर का सफाया किया ।

उसने इन दोनों का वैसा ही इस्तेमाल किया जैसे रूस के खिलाफ गुलुबुद्दीन हिकमतयार का किया था। 2002 में पंजशीर का शेर बनाकर अहमद शाह मसूद का खात्मा खुद CIA ने ही कराया था। बाद मे काला झांगी घटना के बाद ताजिक रशीद दोस्तम को ठंडा कर लिया। उसके बाद जनरल “राजिक” को निपटवाया। वस्तुस्थिति यह है कि तालिबान अमेरिका के बगराम एयरबेस छोड़ने के बाद अफगानिस्तान पर हावी नहीं हो रहे हैं। वस्तुत: इनकी सत्ता का रास्ता खुद अमेरिका तालिबानों से लिखित समझौते में बनाकर गया है।

मैं आज समाचार पत्र में अफगानिस्तान पर लेख लिखने वाले कुछ विद्वानों को यह जानकारी देना चाहता हूं कि अमेरिका का Operation enduring freedom आधिकारिक तौर पर दिसम्बर 2014 में ही समाप्त हो चुका था। अमेरिका ने मात्र 2428 जवान खोकर दो लाख से अधिक तालिबानी या अफगानी नागरिकों की बलि ली है। अमेरिका अपना लक्ष्य प्राप्त कर चुका है। तालिबान का खात्मा उसका आब्जेक्टिव था ही नहीं।

वास्तव में तालिबान केवल एक नाम है, असल चेहरे हैं वहाँ के “कबीलाई वार लाॅर्ड ” जिनके कबीलों की निष्ठाऐं पैसे और पावर के लिए बदलती रहती है। पश्तून, ताजिक, उजबेग, महसूद ,वजीरी और हजारा कबीले अबतक अमेरिकी सहायता पर ही पल रहे थे। अब नये समीकरण बन रहे हैं तो वे ही लोग तालिबान को अपनी निष्ठा बेच रहे हैं। जलालुद्दीन हक्कानी के हक्कानी नेटवर्क को उसका पुत्र सिराजुद्दीन संभाल रहा है। सिराजुद्दीन हक्कानी और मुल्ला उमर का पुत्र मुल्ला याकूब तालिबान मे नंबर-२ की हैसियत रखता है । वही हैबतुल्ला अखुंडजादा “अमीर उल मोमिनीन (सुप्रीम कमांडर ) है ।

विदित हो कि अफगानिस्तान के बारे में मशहूर है कि वहाँ पहाडियों, झाड़ियों और दाढ़ियों के अलावा ना कुछ पहले था और ना आगे कुछ होगा। अमेरिका पिछले दो दशको में जितना कुछ खर्च करके गया, अमेरिकी कंपनियां पुनर्निर्माण के नाम पर पूरे अफगानिस्तान को निचोडं कर ले जा चुकी है।

तालिबान का सत्ता में आना, केवल और केवल ईरान के लिए खतरे की घंटी है। भारत के भी हित सुरक्षित हैं। क्योंकि तालिबानी नेताओं मे से अधिकांश के परिवार भारत में ही रहते है और भारत सरकार की सुविधाओं पर पलते हैं।

जिन विद्वानों को इस बात से तकलीफ हो रही है कि अमेरिका चुपचाप क्यों निकला बगराम एयरबेस से, उनसे मेरा निवेदन है कि कूटनीति ढोल बजाकर नहीं की जाती। जिन्हें पता होना चाहिये था, उन्हें बाकायदा बताकर गया है। वो भी लिखित समझौता करके, उसी समझौते के अनुसार अब अपने नये नवेले दोस्तों यानि तालिबान के लिए 800 फाइटिंग व्हीकल, हवाई जहाज, हेलीकॉप्टर भी तोहफे में छोड़कर गया है। ताकि अमेरिका के दुश्मन ईरान को सीधा किया जा सके।

29 फरवरी 2020 को कतर की राजधानी दोहा में U.S. और तालिबान के बीच हुए एग्रीमेंट के बाद , अमेरिका को तो जाना ही था और तालिबान को आना ही था। अब अगर तालिबान वापसी कर रहा है तो यह अंतरराष्ट्रीय समझौते के अनुसार कर रहा है । नरेंद्र मोदी सरकार सभी तथ्यों से परिचित हैं इसलिए भारत सरकार पर हमको भरोसा बनाये रखना चाहिए।

(लेखक मप्र निजी विश्वविद्यालय विनियामक आयोग, भोपाल के सदस्य (प्रशासनिक) हैं।)

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