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विश्लेषण: उप्र की चुनावी राजनीति में महिलाओं की भूमिका

– डॉ. निहारिका तिवारी

उत्तर प्रदेश को भारतीय राजनीति के हृदय के रूप में देखा जाता है। इस प्रदेश में होने वाले चुनावी बदलाव, सम्पूर्ण देश की राजनीति को प्रभावित करते हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश नयी विधानसभा के गठन की ओर अग्रसर है। इन दिनों प्रदेश में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं और 10 मार्च को चुनाव के परिणाम घोषित किये जाएंगे। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या में लगभग पचास प्रतिशत महिलाएँ हैं। हमारे देश, यदि हम उत्तर प्रदेश की बात करें तो राज्य, की उन्नति एवं बहुमुखी विकास काफी हद तक महिला-शक्ति पर निर्भर है। यही कारण है कि चुनाव के दौरान राजनीतिक दल महिलाओं को आकर्षित करने के लिए तरह- तरह के प्रयास करते हैं।

वर्तमान चुनाव को मद्देनज़र रखते हुए यदि हम उत्तर प्रदेश की विधानसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विश्लेषण करें तो स्पष्ट होता है कि प्रथम विधानसभा से लेकर वर्तमान तक, प्रदेश का महिला प्रतिनिधित्व कभी भी दस प्रतिशत के आँकड़े से ऊपर नहीं पहुँच सका। 2017 में गठित 403 सदस्यों वाली विधानसभा में से 40 महिला सदस्य रही, जबकि 2012 में यह संख्या 35 थी। यदि हम इस परिदृश्य का विश्लेषण करें तो स्पष्ट होता है कि यद्यपि महिलाओं की सहभागिता का ग्राफ़ निरंतर बढ़ता रहा है परंतु चिंताजनक विषय यह है कि इसकी गति अत्यधिक धीमी है। इसके साथ ही एक सामान्य पृष्ठभूमि की महिला के लिए चुनाव लड़ पाना आज भी अत्यधिक चुनौतियों से भरा हुआ है।

इस संदर्भ में यह कहना सर्वथा उचित होगा कि प्रायः राजनीतिक दल पूर्व से मजबूत राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली महिलाओं को चुनावी-रण में उतारते हैं, परिणामस्वरूप सामान्य महिला की राजनीति में सहभागिता प्रायः परिवार द्वारा निर्धारित राजनीतिक दल को मतदान करने मात्र से ही सम्पन्न हो जाती है। क्योंकि चुनावी रणनीति के तहत टिकट का बँटवारा एक व्यक्ति के विजयी होने की क्षमता एवं जातीय समीकरणों पर आधारित होता है, परिणामस्वरूप लैंगिक समानता जैसे मुद्दे हाशिए पर चले जाते हैं।

फिलहाल, इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि देश एवं राज्य स्तर पर विभिन्न प्रकार के कदम उठाए गये हैं जिनसे महिलाओं की राजनीति में सहभागिता बढ़ी है। उदाहरण के लिए, हमारे संविधान में सभी अट्ठारह वर्ष प्राप्त लोगों को मतदान करने का अधिकार वयस्क मताधिकार के तहत प्रदान किया गया है। इसके अतिरिक्त, पंचायतीराज संस्थाओं में महिलाओं को आरक्षण दिया गया है, इसी प्रकार महिलाओं से जुड़े मुद्दे जैसे महिला सुरक्षा, शिक्षा स्वास्थ्य इत्यादि शनैः-शनैः राजनीतिक मुद्दों में शामिल हो रहे हैं।

उत्तर प्रदेश की आगामी सत्रहवीं विधानसभा में भारतीय चुनाव आयोग ने लैंगिक समानता के मुद्दे को प्राथमिकता देते हुई पूर्णतया महिलाओं द्वारा प्रबंधित पोलिंग बूथ स्थापित किए हैं। यह उत्तर प्रदेश सहित सभी पाँच राज्यों जिनमें चुनाव चल रहे हैं, उनके लिए अनिवार्य है। ऐसे पोलिंग बूथ पर सुरक्षा एवं पुलिस व्यवस्था सभी कार्य महिलाओं द्वारा किए जाएँगे। यह कदम निश्चित रूप से महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है।

यदि हम राजनीतिक दलों के नजरिए से देखें तो, उत्तर प्रदेश के कुल 150 मिलियन मतदाताओं में लगभग 69 मिलियन महिला मतदाता शामिल हैं। यदि हम 2014 के लोकसभा चुनाव से प्रारम्भ कर 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव एवं हाल ही में हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव का विश्लेषण करें तो स्पष्ट होता है कि चुनाव के दौरान महिला मतदाताओं ने चुनाव परिणामों को प्रभावित करने का अभूतपूर्व कार्य किया है। यही वजह है कि, उत्तर प्रदेश चुनाव में भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस पार्टी एवं समाजवादी पार्टी सभी महिलाओं को अपनी तरफ शामिल करने हेतु प्रयत्नशील हैं। उदाहरण के लिए, सत्तारूढ़ भाजपा महिलाओं को निरंतर यह विश्वास दिलाने का प्रयास कर रही है कि “मिशन शक्ति”, “उज्जवला योजना” एवं “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” जैसे प्रयासों से प्रदेश में महिलाओं की सुरक्षा एवं सम्मान को प्राथमिकता दी गई है। इसी प्रकार समाजवादी पार्टी ने सत्ता में आने पर जरूरतमंद महिलाओं को 18000 वार्षिक पेंशन देने की घोषणा की है। बहुजन समाज पार्टी ने लोकसभा एवं विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की है। इसी कड़ी में कांग्रेस पार्टी ने “लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ’ को अपना चुनावी नारा बनाया है एवं आम आदमी पार्टी ने मुफ्त बस सेवा देने एवं महिलाओं को 1000 रुपये प्रतिमाह देने का वादा अपने घोषणा पत्र में किया है।

एक महत्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि जातिगत समीकरण चुनाव के अंतिम समय तक बनते-बिगड़ते रहते हैं, किंतु यदि कोई राजनीतिक दल महिला मतदाताओं को लुभाने में सफल हो जाता है तो यह उसके लिए चुनावी अंकों में एक बहुत बड़ी बढ़त साबित होती है। किंतु यक्ष प्रश्न आज भी वही है कि क्या आने वाले समय में उत्तर प्रदेश की राजनीति महिलाओं से जुड़े मुद्दों को राजनीति की मुख्यधारा में लाने का प्रयास करेगी? साथ ही किस हद तक उत्तर प्रदेश के सत्ता के गलियारों में, जहाँ निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया चलती है, महिलाएँ अपना स्थान बना पाएंगी।

(लेखिका, गोविंद बल्लभपंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, झूंसी में सहायक प्राध्यापिका हैं।)

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