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‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ बिल पास होते ही देश में उठने लगी जनगणना मांग !

नई दिल्‍ली (New Delhi)। देश में महिलाओं को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं (Lok Sabha and State Assemblies) में 33 फीसदी आरक्षण देने वाले ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ बिल (‘Nari Shakti Vandan Act’ Bill) के पास होने के बाद से ही भारत की जनगणना के मुद्दे की चर्चा शुरू हो गई है। कोविड की वजह से टाली गई जनगणना अभी तक नहीं हो पाई है। महिलाओं को आरक्षण तभी मिलेगा, जब परिसीमन होगा। परिसीमन के आधार पर निर्वाचन क्षेत्र तय होंगे. इन सब चीजों से पहले जनगणना करवाना जरूरी है, जिसके 2026 के बाद होने की उम्मीद है।

भारत में पहली बार 1881 में जनगणना करवाई गई थी. तब से लेकर लगभग हर 10 साल पर जनसंख्या के आंकड़ें जारी होते हैं। जनगणना के जरिए कई महत्वपूर्ण जानकारियां भी सामने आती हैं. जनगणना में देरी की वजह से कुछ सवाल पैदा हुए हैं, जैसे क्या जनगणना की जरूरत है? क्या भारत में जनगणना के बिना काम चल सकता है? यदि समय पर जनगणना की जानकारी नहीं होगी तो देश को क्या और कैसे नुकसान होगा? आइए इन सवालों का जवाब जानते हैं।



एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में जनगणना की जरूरत इसलिए है, क्योंकि हमारा देश बहुत बड़ा है और यहां पॉलिसी बनाने के लिए एक ऐसे डाटा की जरूरत पड़ती है, जो ये बता सके कि उसका प्रभाव कितनी बड़ी जनसंख्या पर पड़ने वाला है। कई लोगों का तर्क है कि जनगणना की जगह सर्वे करवाए जाने चाहिए. मगर सर्वे के जरिए उपलब्ध आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया जा सकता है. सर्वे एक छोटे हिस्से को कवर करता है, जबकि जनगणना के जरिए एक बड़ा हिस्सा कवर किया जाता है।

एक्सपर्ट्स की राय है कि सरकार पॉलिसी बनाने के लिए प्रशासनिक आंकड़ों पर निर्भर हो सकती है, जिन्हें अलग-अलग सरकारी विभागों के जरिए इकट्ठा किया जाता है. हर विभाग की अपनी योजनाएं होती हैं, जिनके लिए आंकड़ें इकट्ठे किए जाते हैं और सरकार इसका इस्तेमाल कर सकती है, हालांकि, प्रशासनिक आंकड़ों के साथ सबसे बड़ी समस्या ये है कि इसके दायरे में प्रवासी मजदूर नहीं आते हैं. इस डाटा के इस्तेमाल की वजह से पॉलिसी बनाते वक्त प्रवासी मजदूर रह जाएंगे।

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के अध्यक्ष और सीईओ यामिनी अय्यर ने बताया कि प्रशासनिक आंकड़ों से गलती भी हो सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि हर विभाग अपने आधार पर डाटा इकट्ठा करता है, जबकि जनगणना में इकट्ठा होने वाला डाटा अलग तरह से इकट्ठा किया जाता है. भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद् प्रणब सेन ने बताया कि प्रशासिक आंकड़ों को जनगणना से नहीं बदला जा सकता है. भ्रष्टाचार से लेकर अक्षमता की वजह से ये आंकड़ें गलत हो सकते हैं।

सेन ने बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐलान किया कि भारत को खुले में शौच से मुक्ति मिल गई है. ऐसा उन्होंने प्रशासनिक आंकड़ों के आधार पर कहा, लेकिन तभी नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे सामने आया, जिसमें पता चला कि देश के 30 फीसदी घरों के पास तो शौचालय ही नहीं है. इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए और हर एक जानकारी के सही होने के लिए भारत को जनगणना की जरूरत है। जनगणना के आधार पर पॉलिसी बनाना सरकार के लिए आसान हो जाता है।
प्रणब सेन ने बताया कि जनगणना देश की संपूर्ण सांख्यिकीय प्रणाली की नींव है. जितने भी सर्वे किए जाते हैं, वह जनगणना के डाटा के आधार पर होते हैं। अगर जनगणना नहीं होती है, तो सरकार के लिए आंकड़ों का सिस्टम तैयार करना मुश्किल हो जाएगा. सरकार जनगणना में अगर देरी करती है, तो उसका असर पॉलिसी भी पड़ने लगेगा. जिन लोगों को पॉलिसी का लाभ मिलना चाहिए, वह पीछे छूट जाएंगे. सरकार को मालूम ही नहीं होगा कि किस योजना का लाभ किसे मिल रहा है।

जनगणना के आंकड़ों के उपलब्ध नहीं होने का असर पब्लिक सेक्टर पर भी पड़ेगा. जितने भी लाइफ इंश्योरेंस होते हैं, वे सभी जनगणना के आधार पर तय किए जाते हैं. जनगणना के जरिए प्राइवेट कंपनियों को ये समझने में मदद मिलती है कि आखिर उन्हें किस ग्रुप को टारगेट करना है. जनगणना नहीं होने से सरकार को ये भी नहीं मालूम चल पाता है कि आंतरिक प्रवास कैसा हो रहा है. इसके अलावा बेरोजगारी का भी सटीक डाटा मिलना मुश्किल हो जाता है।

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