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भगवान महावीरः अहिंसा और सत्य के महानायक

 

महावीर जयंती पर विशेष

गिरीश्वर मिश्र
‘जैन’ वह है जो ‘जिन’ का अनुयायी हो और जिन वह होता है जो राग-द्वेष से मुक्त हो। जैन साधु निर्ग्रन्थ होते हैं यानी अपने पास गठरी में रखने योग्य कुछ भी नहीं रखते। निवृत्ति और मोक्ष पर बल देने वाली श्रमण ज्ञान परम्परा सांसारिक जीवन को चक्र की तरह उत्थान पतन के क्रम में चलता हुआ देखती है जिसमें अपने कर्म से अलग किसी ईश्वर की भूमिका नहीं है। ‘तीर्थ’ जन्म-मृत्यु के चक्र से उद्धार के मार्ग को कहते हैं और तीर्थंकर वह होता है जो उस मार्ग को प्रशस्त करे। श्री ऋषभ देव वर्तमान जैन परम्परा के प्रथम तीर्थंकर थे। तेइसवें पार्श्वनाथ थे और इस श्रृंखला में अंतिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर हुए। छठीं सदी ईसा पूर्व आज के बिहार के में पटना के निकट कुंडलपुर में तकालीन विदेह के इक्ष्वाकु राजवंश में सिद्धार्थ और त्रिशला के पुत्र के रूप में इनका अवतरण हुआ था। तीस वर्ष की आयु में अपने समय के आचार-विचार से असंतुष्ट महावीर सबकुछ का त्याग कर ज्ञान की खोज में निकल गए।

अनुश्रुति के अनुसार एक दशक तक मौन, शान्ति, स्वच्छता , कठोर तप से आत्म बोध की साधना की। तदुपरांत ‘केवल’ ज्ञान प्राप्ति के बाद चालीस वर्षों तक उसका प्रचार करते हुए लोक कल्याण में जीवन बिताते हुए पावा नगरी में दीपावली के दिन 72 वर्ष की आयु में उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। तब से वे ‘सिद्ध’ कहे जाने लगे। उनके सर्वोदय के स्वप्न को चरितार्थ करने में उनके मतावलंबी साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाओं की एक बड़ी संख्या आज भी संलग्न है। समय के साथ जैन चिंतन गहन होता गया। आज जैन परम्परा में श्वेताम्बर और दिगंबर (वस्त्रहीन जीवन बिताने वाले ) मतावलंबी मनीषियों के योगदान से जैन दर्शन की अनेक प्रवृत्तियाँ प्रतिष्ठित हैं जिनमें ज्ञान मीमांसा और तत्व मीमांसा की गंभीर व्याख्या की गई है।

सन्मति और काश्यप नामों से भी लोकप्रिय हुए भगवान महावीर के उपदेश उन आगम ग्रंथों में मिलते हैं जो लगभग एक हजार साल बाद व्यवस्थित हुए थे। महावीर ने वैदिक यज्ञ जिनमें पशु बलि होती थी, उसकी हिंसा से विशेष रूप से खिन्न थे। उन्होंने जैन मत की परम्परा में परिष्कार और परिवर्धन किया और धर्म को सर्वोत्तम मंगल कहा। उनके लिए धर्म का आशय था अहिंसा, संयम और तप। उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पांच महा व्रतों को स्वीकार कर धर्म के आचरण का आह्वान किया। अपने उपदेशों में महावीर बार -बार चेताते हैं कि ‘धर्म के पालन में ही जीवन है और इसके लिए किसी को प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।’ वे हिंसा को हर तरह से गर्हित और त्याज्य ठहराते हैं। हिंसा करने, कराने ही नहीं बल्कि हिंसक लोगों का समर्थन करने वालों को भी वे वैर बढ़ाने वाला मानते हैं। उनकी दृष्टि में अहिंसा-सिद्धांत ही यथार्थ ज्ञान है। वे घोषणा करते हैं कि किसी भी जीव की हिंसा नहीं होनी चाहिए। अहिंसा ही शाश्वत धर्म है। भगवान महावीर कहते हैं मैं सभी जीवों से क्षमा मांगता हूँ, सभी के साथ मेरी मैत्री है, वैर किसी से भी नहीं। मित्ती मे सब्बभूएसु वेरं मज्झं न केणइ।

इसी तरह वे निजी स्वार्थ, क्रोध या भय के कारण असत्य वचन बोलने और किसी से बुलवाने का निषेध करते हैं। वे कहते हैं कि भूल से भी असत्य भाषण करना आदमी को पाप का भागी बनाता है। जो अपना हित चाहता है उसे क्रोध, मान, माया और लोभ को छोड़ देना चाहिए ( इन्हीं सबसे उबरकर ही तो महावीर अरिहंत हुए थे!)। जीवन बड़ा जटिल है। महावीर उसे असंस्कृत कहते हैं (असंखयं जीविय ), एकबार टूट जाने पर वह जुड़ता नहीं है। इसलिए प्रमाद, हिंसा और असंयम से सदैव बचना चाहिए और रूप से विराग होने पर ही शोक-मुक्ति संभव है, तभी संसार के दुःख में रहते हुए भी व्यक्ति जल से कमल के पत्ते की तरह अलिप्त रहता है। भगवान महावीर कहते हैं कि क्रोध से प्रीति, मान से विनय, कपट से मित्रता और लोभ से सारे के सारे सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। इनका उपाय बताते हुए वे क्रोध को शान्ति से, अभिमान को नम्रता से, कपट को सरलता से और लोभ को संतोष से परास्त करने के लिए कहते हैं। पर मानुषी प्रवृत्ति है कि लाभ मिलने के साथ लोभ भी बढ़ता जाता है क्योंकि हमारी तृष्णा का अंतहीन होती है। वह आकाश की तरह अनंत होती है। पर मनुष्य की आयु तो थोड़ी (सीमित!) है और बाधाएं भी तमाम हैं इसलिए अप्रमाद की ज्योति को अखंड रहना चाहिए। भगवान महावीर ने त्रयोदशांग धर्म प्रतिपादित किया जिसमें अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचारी, अपरिग्रह, सम्यक गति, सम्यक भाषा, सम्यक आहार, सम्यक प्रयोग, सम्यक उत्सर्ग, मन गुप्ती,वचन गुप्ती काय गुप्ती का विधान किया गया था।

जीवन की पहेली सुलझाने के लिए पिछले कर्मों की धूल हटा तनिक भी प्रमाद न करना ही एकमात्र मार्ग है। यह याद रहना चाहिए कि कर्म अपने कर्ता के पीछे-पीछे लगे रहते हैं। इसलिए अपने दुखों और सुखों के लिए आत्मा ही कर्ता और भोक्ता है। सुमार्ग पर चलने पर वह आत्मा मित्र है और कुमार्ग पर चलने पर शत्रु। अत: संयमयुक्त आचरण का पालन करना चाहिए। सद्गुरु और वृद्धजनों की सेवा, मूढ़ जनों से दूरी, एकाग्र शास्त्र अध्ययन, धैर्यपूर्वक अचल शान्ति का अनुभव करना चाहिए। संयमी पुरुष हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, भोग की लिप्सा और लोभ से बचा रहता है। भगवान महावीर कहते हैं कि कोई आदमी श्रमण होता है समता की भावना अपनाने से, ब्राह्मण होता ब्रह्मचर्य ब्रत धारण करने से, मुनि होता है ज्ञान अर्जित करने से, तपस्वी होता है तप करने से। वस्तुत: अपने को जीतना ही सर्वोत्तम विजय है। भगवान महावीर यह भी कहते हैं कि अपने दृष्टिकोण की प्रशंसा करने वाले और दूसरों की निंदा करने वाले असत्य के नागपाश से बंध जाता है। एकान्तग्राही तर्कों का प्रतिपादन करने वाले धर्म और अधर्म के ज्ञाता नहीं होते इसीलिए ‘स्याद्वाद’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया जो विभिन्न सम्भावनाओं की उपस्थिति को ग्राह्य मानता है। इसके अंतर्गत सप्त भंगी न्याय बड़ा प्रसिद्ध हुआ। अस्ति-नास्ति ( है , नहीं है ) की विभिन्न संयुक्तियों (काम्बीनेशन) को लेकर विचार किया जाता है।

एक परिवर्तनशील संसार के लिए किसी अतीन्द्रिय या इन्द्रियातीत सत्ता नकारते हुए स्वयं अपने कर्म को जिम्मेदार ठहराते हुए भगवान महावीर ने धर्म की एक व्यापक दृष्टि दी जो आज के हिंसा, संघर्ष, कलह, अविश्वास, असत्य के दौर में बेहद प्रासंगिक हो रही है। कोविड महामारी के दौर में जीवन का प्रश्न और चुनौती जिस तरह खड़ी हो रही है और इस महासंकट के दौर में अकर्मण्यता, नफापरस्ती और विमानवीकरण की बढ़ती घटनाएं चीख-चीखकर सम्यक आचरण की ओर कदम बढ़ाने के लिए गुहार लगा रही हैं। हम हैं कि प्रमादवश और लोभ और लिप्सा से जकड़ कर सिर्फ स्वार्थ देख रहे हैं। ऐसे में महावीर के वचन झकझोर रहे हैं और जीवन के पक्ष में खड़े होने के लिए पुकार रहे हैं।

 

(लेखक, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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