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दीपोत्सवः अतीत और वर्तमान

– डा. ललित पाण्डेय

दीपोत्सव कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाने वाला मानव के संघर्ष और उस की विजय के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला उत्सव है। इसकी इस मूल भावना ने ही इस पर्व को वैश्विक स्तर के एक ऐसे उत्सव का दर्जा प्रदान कर दिया है, जो धर्म और राष्ट्र की सीमा से परे जाकर वैश्विक हो गया है।

दीपावली समाज में उल्लास के साथ सामाजिक सौहार्द्र और समभाव का प्रतीक है और इसीलिए भारत की धरती पर जन्मे सभी धर्मों के मतावलम्बी यथा सनातनी, आर्यसमाजी, जैन, बौद्ध और सिक्ख समान उल्लास से इसे मनाते हैं। सनातनी इस पर्व को भगवान राम की अयोध्या वापसी के उल्लास के कारण और लक्ष्मी की आराधना कर मनाते हैं तो बौद्ध इस दिवस को भगवान बुद्ध के सत्रह वर्ष पश्चात कपिलवस्तु आने के कारण, जैन धर्म के मतावलम्बियों द्वारा इस दिन को भगवान महावीर के निर्वाण दिवस की तरह मनाया जाता है। आर्यसमाज में इसको मनाए जाने का कारण महान समाज सुधारक और स्वराज्य का सर्वप्रथम घोष करने वाले महापुरुष दयानंद सरस्वती के भौतिक शरीर त्यागने के दिवस की स्मृति में मनाया जाता है।

मध्यकाल में जब भारत गुलाम था और राष्ट्र का मूल हिंदू समाज एक अत्यंत कठोर और संगठित धर्म से शाश्वत मूल्यों की सुरक्षार्थ संघर्षरत था तो ऐसे समय में युगपुरुष गुरुनानक ने एक सुधारवादी आंदोलन प्रारंभ कर सिक्ख धर्म का सूत्रपात किया, जिसने अत्यंत अल्प अवधि में मुगल साम्राज्य के लिए एक चुनौती उत्पन्न कर दी थी। जिस कारण सिक्ख धर्म के गुरुओं और अनुयायियों को अथक संघर्ष करना पड़ा, लेकिन इन तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी समाज द्वारा दीपावली के दिन 1577 में स्वर्णमंदिर का शिलान्यास किया गया था। इसे ईश्वरीय संयोग कहना ही उचित होगा कि दीपावली को ही सिक्ख धर्म के तीसरे गुरु अमर दास ने सामूहिक रूप से आशीर्वाद लेने की परम्परा शुरू की तो इसी दिन सिक्ख धर्म के छठे गुरु हरगोविंद सिंह जी को जहांगीर की जेल से रिहा किया गया था। इन्हीं कारणों से यह दिन उल्लास और विजय के प्रतीक की तरह भारत का राष्ट्रीय पर्व ही बन गया। भारत जैसे विशाल विविधताओं से भरे लेकिन समाज में अन्तर्निहित एकता की भावना के कारण से प्रत्येक क्षेत्र कुछ विशिष्टताओं से संपन्न है जिसके परिणामस्वरूप ही पूर्वी भारत में इस दिन मां काली की आराधना की जाती है।

पूर्वी भारत के ही राज्य ओड़िसा में प्रातः वेला में तर्पणम किया जाता है, इसमें रंगोली, जिसे मुरुजा कहा जाता है, बनाई जाती है। इसके उत्तर में सात, पूर्व में दस तथा दक्षिण में बारह कक्ष होते हैं जिसमें पूर्व के कक्ष देवताओं, उत्तर के ऋषियों और दक्षिण के कक्ष पूर्वजों के प्रतीक होते हैं और इस दिन घर के सभी सदस्य दीप प्रज्वलित कर रोशनी कर पूर्वजों का आह्वान करते हैं।

दक्षिण भारत में दीपावली से एक दिन पूर्व कृष्ण के द्वारा नरकासुर के वध की स्मृति में उत्सव आयोजित किया जाता है। हम सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि भारत में अनेक जनजातियां निवास करती हैं, यद्यपि जनजातियों की अनेक परम्पराएं धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं तथापि आज भी कतिपय जनजातियां दीपावली पर पूर्वजों के पुतले निर्मित कर उनका स्मरण कर आशीष लेते हैं। राजस्थान के जालोर से प्राप्त 1268ई. के एक अभिलेख से पता चलता है कि दीपावली के रोज श्री पूर्ण देवसूरी के शिष्य रामचंद्राचार्य के द्वारा निर्मित एक मंडप में स्वर्णध्वजारोहण किया गया था। इसके अलावा मेवाड़ के एक संस्कृत ग्रंथ अमरकाव्यम में भी यह वर्णित है कि मध्यकाल में दीपावली राजस्थान का एक प्रमुख पर्व था तथा इस दिन मंदिर, प्रासादों, घरों और बाजार में दीए जलाए जाते थे।

जैसा कि सर्वविदित है कि भारत एक कृषि प्रधान राष्ट्र है और हमारे परम्परागत वित्तीय वर्ष का प्रारंभ चावल की फसल के बाद दीपावली पर ही होता है। आज भी तमाम आधुनिक व्यवस्थाओं के बाद भी रोकड़ (कैशबुक) का श्री गणेश और पूजन व्यवसायी वर्ग धनतेरस को ही करता है। दूसरे इस दिन मां लक्ष्मी की पूजा धान से बनी खील और बताशे से की जाती है। खील जो एक चावल का ही स्वरूप है। चावल को लगभग समस्त दक्षिण एशिया उपमहाद्वीप और इंडो-पैसेफिक क्षेत्र के कई राष्ट्र एक पवित्र धार्मिक उपज मानते हैं। संभवतः इस कारण के अतिरिक्त खील और बताशे का रंग सफेद होता है और दीपावली धनधान्य वैभव को प्राप्त करने के लिए आराधना करने का पर्व है और धनधान्य-वैभव का स्वामी शुक्र ग्रह है और शुक्र को धवलता प्रिय है, इन सभी कारणों से खील का दीपावली का महत्व बढ़ जाता है। यह एक दैवीय संयोग ही है कि खगोलीय दृष्टि से भी कार्तिक अमावस्या को सूर्य और चंद्रमा की युति होती है एवं सूर्य के तुला राशि में होने से ऊर्जा का अधिक संचरण के होने के कारण कार्तिक अमावस्या का समय परस्पर सहयोग और समरूपता का प्रभाव उत्पन्न करने के कारण महत्वपूर्ण हो जाता है।

सनातन वैदिक परम्परा का दिग्दर्शन करने पर बहुत महत्वपूर्ण और सारगर्भित जानकारी मिलती है। दीपावली पांच दिवसीय पर्व है जिसका प्रारंभ आदि चिकित्साशास्त्र आयुर्वेद के प्रणेता धन्वंतरी जयंती से होकर मृत्यु के देवता यम के स्मरण के साथ यम द्वितिया को प्रारंभ होता है। धन्वंतरी जो स्वयं भगवान विष्णु के ही अवतार माने जाते हैं और वैदिककालीन हैं, के स्मरण से प्रारंभ होकर त्रेता युग के राम के अयोध्या लौटने, कुबेर और लक्ष्मी के पूजन पश्चात द्वापर युग में हुए कृष्ण द्वारा नरकासुर वध, गोवर्धन पर्वत को उठा कर इंद्र के अभिमान के मर्दन की ऐतिहासिक घटना के बाद यम द्वितिया को भाई दूज के साथ समाप्त होता हुआ प्रकृति के सम्पूर्ण कालचक्र की परिक्रमा करता हुआ समाप्त होता है।

दीपावली पर लक्ष्मी पूजन की परंपरा को वैदिक धर्म के संदर्भ में अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि लक्ष्मी श्री के रूप में ऋग्वेदिक काल में ही प्रतिष्ठित हो गयी थीं। श्री सूक्त के प्रथम श्लोक में ही कहा गया है: हे अग्ने उन लक्ष्मीदेवी का जिनका कभी विनाश नहीं होता तथा जिनके आगमन से मैं स्वर्ण, घोड़े तथा पुत्रादि प्राप्त करूंगा, मेरे लिए आह्वान करें, से यह स्वप्रमाणित होता है कि लक्ष्मी की पूजा का प्रारंभ आदिकाल में हो गया था।

सनातनी परम्परा का यह आदिपर्व आज संयुक्त राष्ट्र सहित नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार, मारिशस, गुयाना ट्रिनिडाड और टोबेगो, मलेशिया, सिंगापुर, फिजी, सुरीनाम, जापान और इंडोनेशिया सहित 14 दिसम्बर, 2014 से संयुक्त राष्ट्र संघ में भी मनाया जाने लगा है। अमेरिका में सर्वप्रथम राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2009 मे व्हाइट हाउस के ओवल में दीप प्रज्वलित कर निजी स्तर पर दीपावली का जश्न मनाया था और इस अवसर पर कहा था कि मुझे यह गौरव प्राप्त हुआ है और इस तरह मैं दीपावली का आयोजन करने वाला प्रथम राष्ट्रपति हो गया हूं। इस अवसर को मेरे साथ मिशेल ने भी खुशी के साथ साझा किया है।

वर्ष 2009 को दीपावली के दिन बराक ओबामा ने कहा कि यह पर्व इस बात का स्मरण कराता है कि हमेशा से ही प्रकाश अंधकार को पराजित करता आया है। साथ ही इस अवसर पर उन्होंने कुछ इस आशय के उद्गार भी प्रकट किए थे कि हम जब मतभेदों से हट कर कुछ अच्छा करने का प्रयत्न करते हैं तो पाते हैं कि हम कितना कुछ अच्छा कर सकते हैं और हम सब में कितनी समानताएं हैं।

इस तरह से यह कहना समुचित होगा कि दीपावली मानव की उस रचनात्मकता का प्रतिनिधित्व करती है जिस आधार.पर हमारा अस्तित्व बना हुआ है और हम तमाम बाधाओं के बाद भी कुछ अच्छे के लिए सतत् प्रयत्नशील हैं।

(लेखक वरिष्ठ पुराविद हैं)

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