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पोजिटिव सोच और स्वास्थ्य प्रोटोकाल से हारेगा कोरोना

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
पोते को कोरोना न हो जाए इसी डर से राजस्थान में दादा-दादी ने ट्रेन के आगे कूदकर जान दे दी तो परिवार के लोगों को कोरोना से बचाने के लिए मकान से कूदकर जान देने के समाचार प्रमुखता से समाचार पत्रों में पिछले दिनों प्रकाशित हुए हैं। यह तो उदाहरण मात्र है। दरअसल कोरोना का भय और नकारात्मक व डरावने समाचारों से कमजोर दिल के लोग अब मानसिक अवसाद में जाने लगे हैं। कुछ लोग तो इतने अवसाद में जाने लगे हैं कि अपनी इहलीला समाप्त कर रहे हैं। यह कोई कोरोना के दूसरी लहर की बात ही नहीं है अपितु इस तरह के समाचार कोरोना के पहले दौर में भी हमारे देश में ही नहीं अपितु दुनिया के दूसरे देशों में भी आम रहे हैं।
कोरोना के पहले दौर में जयपुर के आरयूएचएस की दूसरी मंजिल से संदिग्ध कोरोना मरीज 78 वर्षीय बुजुर्ग कैलाश चंद्र की आत्महत्या का मामला हो या दिल्ली में पत्रकार तरुण सिसौदिया के कोरोना केन्द्र की छत से कूदकर जीवन लीला समाप्त करने का प्रकरण। इस तरह के बहुत से समाचार, अखबारों में देखने को मिलते रहे हैं। इस तरह के उदाहरण खासतौर से कोरोना के कारण आत्महत्या के प्रयास या गहरे डिप्रेशन के समाचार समूची दुनिया से आ रहे हैं। कोरोना महामारी का डर और कोरोना के कारण दुनियाभर में समय समय पर लगाए गए लॉकडाउन का साइड इफेक्ट यह सामने आ रहा है कि दुनिया के देशों में डिप्रेशन के मामलों में तेजी आई है। आदमी अपने आप में खोने लगा है। देखा जाए तो कोरोना महामारी ने केवल बीमारी ही नहीं अपितु इसने जीवन के लगभग सभी मोर्चों को हिलाकर रख दिया है। यहां तक कि सामाजिक ताना-बाना भी प्रभावित होने लगा है।
कोरोना ने मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के कंसेप्ट को ही बदल कर रख दिया है। हालात यह हो गई है कि घर में किसी के हल्की खांसी या गले में खरास भी देखने को मिलती है तो पहली प्रतिक्रिया उसे घर में ही आइसोलेट करने की हो रही है। कोरोना का भय ही ऐसा है कि लोग डरने लगे हैं। घर पर ही मास्क लगाने लगे हैं पर यह कुछ लोगों तक ही सीमित है। क्योंकि जिस तेजी से देश में कोरोना की दूसरी लहर ने जकड़ा है वह कोरोना प्रोटोकाल की पालना के प्रति हमारा गंभीर नहीं होने का ही परिणाम है। जिस तरह से घर-परिवार, मिलने जुलने वालों से आइसोलेट हो जाता है तो इससे थोड़े भी संवेदनशील मानसिकता के लोग डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं। उसका दुष्परिणाम यह भी आता है कि ऐसे मरीजों के रिकवर होने में अधिक समय लगने लगता है।
कोरोना महामारी के कारण मानसिक अवसाद की स्थिति को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन की कोरोना की पहले दौर के दौरान आई थी रिपोर्ट भी दहला देने वाली है। रिपोर्ट के अनुसार हालतों में बदलाव नहीं आता है तो देश के 20 फीसदी लोग कोरोना के कारण डिप्रेशन का शिकार हो जाएंगे। यह अपने आप में गंभीर और चिंतनीय है। चैन्नई के मानसिक स्वास्थ्य संस्थान के निदेशक डॉ.आर. पूर्णा चन्द्रा के अनुसार कोरोना के पहले दौर में अप्रैल 20 में ही हालात यह रहे कि कोरोना के कारण डिप्रेशन से प्रभावित 3632 लोगों ने फोन से सलाह प्राप्त की। यह तो केवल बानगी मात्र है। दरअसल लोग कोरोना से इस कदर भयक्रांत हो गए हैं कि वे सोच- सोचकर ही डिप्रेशन में जाने लगे हैं। देखा जाए तो कोरोना से लड़ने के लिए जिस तरह का सकारात्मक माहौल बनना चाहिए वह दुनिया के देशों में कहीं नहीं बन रहा है।

दरअसल कोरोना की दूसरी लहर और भी अधिक भयावह होकर आई है। दूसरी लहर में देश में जहां संक्रमितों का एक दिनी आंकड़ा करीब चार लाख को छूने लगा है तो दूसरी और मौत का आंकड़ा भी तेजी से बढ़ा है। कोढ़ में खाज यह कि समूचे देश में ऑक्सीजन की कमी के कारण दम तोड़ते लोगों की तस्वीरों के साथ के समाचार या फिर अस्पतालों के बाहर बेड की अनुपलब्धता के समाचारों ने और भी अधिक भयाक्रांत कर दिया है। मीडिया चाहे वह प्रिंट हो या इलेक्ट्रोनिक उसे यह समझना होगा कि जिस तरह की परिस्थितियां आई है और जो हालात सारी दुनिया के हो रहे हैं उसमें नकारात्मक समाचारों से हम समाज को नुकसान ही पहुंचाएंगे। जब अस्पतालों में जगह नहीं मिलने, दवा की उपलब्धता नहीं होने या फिर उपकरणों का कृत्रिम अभाव, ऑक्सीजन सिलेण्डरों की कमी या इस तरह के समाचार अधिक प्रमुखता से सामने लाए जाते हैं तो इसका साइड इफेक्ट भी हमें समझना होगा।
हांलाकि मीडिया यह सबकुछ हालात सुधारने की नसीहत से करता है पर इसका नकारात्मक पक्ष इस मौके में भी लाभ तलाशने वालों की कोई कमी नहीं हैं। अस्पतालों में बेड के नाम पर लाखों रुपए वसूलने, रेमडिसियर इंजेक्शन की कालाबाजारी, गैस सिलेण्डरों उपलब्ध कराने के लिए मनचाहे दाम वसूलने, आक्सीमीटर जैसे साधारण पर आज की तारीख में महत्वपूर्ण उपकरण के कई गुणा दाम वसूलने और इनकी कालाबाजारी करने वाले लोगों की गिरफ्तारी से ऐसी स्थितियों की गंभीरता को समझना होगा। यह जरूरी है और लोगों में जागरुकता भी होनी चाहिए पर संक्रमण का भय, अब क्या होगा का भय, नौकरी जाने का या इनकम कम होने के भय के कारण कमजोर मानसिकता वाले लोग जल्दी डिप्रेशन का शिकार होने लगे हैं। इसलिए कहीं ना कहीं मनोविश्लेषकों को इसका हल खोजना होगा ताकि लोगों में सकारात्मकता बढ़े। 
कोरोना के साइड इफेक्ट के कारण लोगों की नींद उड़ने लगी है तो व्यक्ति एकाकी होने लगा है। लंबे समय के वर्क फ्रॉम होम से घर का वातावरण भी बोझिल होता जा रहा है तो बाहर निकलते ही डर लगने लगा है। इससे डिप्रेशन के सामान्य लक्षण बैचेनी, नींद नहीं आना, नकारात्मक विचार आदि तो अब आम होता जा रहा है। ऐसे में मनोविज्ञानियों और मनोविश्लेषकों के सामने मेडिकल चिकित्सकों से भी अधिक चुनौती उभरकर आई है। जब यह तय है कि अभी लंबे समय तक हमें कोरोना के साथ ही जीना है तो अपनी सोच में सकारात्मकता लानी होगी। लोगों में भय के स्थान पर जीवटता पैदा करनी होगी तभी कोरोना के इस संक्रमण काल से हम निकल पाएंगे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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