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महाराष्ट्र की राजनीति में ‘चाणक्य’ की पराजय

– मुकुंद

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता अजित पवार ने अपने समर्थक विधायकों के साथ महाराष्ट्र की शिंदे सरकार में शामिल होकर सबको चौंका दिया। अजित ने उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है। छगन भुजबल समेत नौ विधायकों को भी शिंदे सरकार में जगह दी गई है । अजित पवार राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले शरद पवार के भतीजे हैं। भतीजे ने पवार को भरी दोपहर में राजनीति के आसमान में तारे दिखा दिए हैं।

दो महीने पहले की बात है। समूची राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सकते में आ गई थी। दरअसल शरद पवार ने घोषणा की थी-एक मई, 1960 से एक मई, 2023 तक सार्वजनिक जीवन में लंबा समय बिताने के बाद अब कहीं रुकने पर विचार करने की आवश्यकता है। इसलिए, मैंने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त होने का फैसला किया है। इस वक्त यशवंतराव चव्हाण केंद्र के सभागार में मौजूद हर नेता के पैरों तले जमीन हिल गई थी।

शरद पवार का पूरा नाम शरद गोविंदराव पवार है। पूर्व कांग्रेस नेता शरद पवार ने 1999 में अलग राह पकड़ी थी। वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के संस्थापक हैं। पवार महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री रह चुके हैं। प्रभावशाली नेता के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले शरद केंद्र में रक्षा और कृषि मंत्री रहे हैं।


राजनीति के साथ-साथ वह क्रिकेट प्रशासन से भी जुड़े रहे हैं। सन 2005 से 2008 तक भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष और 2010 से 2012 तक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद के भी अध्यक्ष रह चुके हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के निर्माण का मुख्य कारण यह था कि पवार, तारिक अनवर और पीए संगमा इटली मूल की सोनिया गांधी के कांग्रेस का नेतृत्व किए जाने के खिलाफ थे। इस आधार पर 20 मई, 1999 को तीनों कांग्रेस से अलग हो गए। …और 25 मई 1999 को देश नए राजनीतिक दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का उदय हुआ। पवार ने अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत कांग्रेस के साथ 1967 में की थी।

यशवंतराव चव्हाण को उनका राजनीतिक गुरु माना जाता है। 1978 में जनता पार्टी के गठबंधन से सरकार बनाने के लिए उन्हें कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया था। इस गठबंधन के फलस्वरूप वह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने थे। साल 1984 में बारामती से वह पहली बार लोकसभा चुनाव जीते। 1987 में शिवसेना के बढ़ते प्रभाव की वजह से उन्होंने कांग्रेस में वापसी की। 1993 में उन्होंने चौथी बार मुख्यमंत्री के पद शपथ ली। यह उनका सबसे विवादास्पद कार्यकाल रहा। 2001-2002 के दौरान उन पर माफिया से संबंध होने के आरोप लगे। उन पर गेहूं निर्यात और 2जी स्पेक्ट्रम घोटालों के आरोप भी लगते रहे हैं।

कहा तो यह भी जाता है कि शरद पवार कभी हारते नहीं हैं। जब वह खुद चुनाव लड़ते हैं तो जीत उनकी होती है। जब जीत पक्की न हो तो वह मैदान में उतरते ही नहीं। फिर भी उन्हें एक चुनाव में हार का सामना करना पड़ा।यह उनके चुनावी करियर की एकमात्र हार है। बेशक यह पराजय राजनीतिक क्षेत्र में नहीं बल्कि क्रिकेट के मैदान में हुई। वर्ष 2004 में उन्हें तत्कालीन अध्यक्ष जगमोहन डालमिया के हाथों ‘भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड’ यानी ‘बीसीसीआई’ के चुनाव में बेहद कड़े मुकाबले में पराजय का सामना करना पड़ा। इससे वह हार नहीं माने। अगले ही साल उन्होंने डालमिया को हरा दिया और बीसीसीआई के अध्यक्ष बन गए। लेकिन ताजा राजनीतिक घटनाक्रम उनके लिए ‘पराजय’ से कम नहीं है। वह निश्चित तौर पर आज ‘काटो तो खून नहीं’ मुहावरे को पढ़कर कसमसा रहे होंगे।

पिछले छह दशक तक महाराष्ट्र की राजनीति उनके ही इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। वह सत्ता में रहे हों या न रहे हों। बहुमत में रहे हों या न रहे हों। बावजूद इसके वह महाराष्ट्र की राजनीति में प्रभावी भूमिका में रहे हैं। साढ़े तीन साल पहले आलोचक कहने लगे थे कि शरद पवार राजनीति के दूसरे चरण के अंत तक पहुंच गए हैं। इस वक्त भी उन्होंने आलोचकों का मुंह बंद कराते हुए महाराष्ट्र में ‘महाविकास आघाड़ी’ बनाकर यह साबित किया कि वह अब भी सक्रिय हैं। इतना सब होने के बावजूद दो जुलाई, 2023 की टीस को वह कभी नहीं भुला पाएंगे। आखिर अजित पवार ने राजनीतिक चालें अपने चाचा से ही तो सीखी हैं। शरद पवार को यह उम्मीद नहीं रही होगी कि अजित राजनीति की बिसात पर इस तरह से घेर लेंगे।

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