ज़रा हटके देश

तकनीक की मदद से दुनिया को देखता है दिल्ली का दृष्टिहीन परिवार, हैरान करता है उनके जीने का तरीका

नई दिल्ली। पूर्वी दिल्ली (East Delhi) के घोंडा चौक के पास ऊबड़-खाबड़ सड़क पर खुलती एक संकरी गली है. इस गली के भीतर करीब 50 गज का एक मकान आम घर जैसा ही दिखता है. हालांकि ये तीन मंजिला मकान (three storey house) है बेहद खास. इस घर को खास बनाता है यहां रहने वाला परिवार. दरअसल यहां रहने वाले सात सदस्यों के परिवार (family of seven) के पांच सदस्य (five members blind) देख नहीं सकते. इसके बावजूद इस परिवार के सदस्यों ने अपने जज्बे से शरीर की इस कमजोरी को जिंदगी पर हावी नहीं होने दिया है. ये इनका हौसला ही है जो हर मोड़ पर ये दूसरे आम परिवारों के साथ कदमताल करते दिखते हैं. फिर चाहे वो घर का कामकाज हो, पढ़ाई-लिखाई हो, नौकरी हो, गाना-बजाना-पार्टी करना हो या फिर स्मार्टफोन पर ट्विटर-फेसबुक-वॉट्सऐप का इस्तेमाल (use twitter-facebook-whatsapp on smartphone). इनकी आंखों में भले ही रोशनी नहीं है, लेकिन अपने जीने के तरीके से इन्होंने जिंदगी को रोशन कर रखा है।

50 साल पहले शुरू हुई थी कहानी
परिवार में सबसे बड़े हैं डॉक्टर बसंत कुमार वर्मा (Dr Basant Kumar Verma). वर्मा 63 साल के हैं. 12-13 साल की उम्र में वो बिहार के अपने गांव से दिल्ली आने वाली एक ट्रेन में बैठकर यहां आ गए थे. गांव के लोगों को लगा कि आंखों में रोशनी तो है नहीं तो वो किसी तरह शहर में भीख मांगकर गुजारा कर लेंगे. लेकिन बसंत कुमार कुछ और सोचकर आए थे. थोड़े संघर्ष के बाद उन्होंने अपनी किस्मत खुद लिखना शुरू किया. एक ब्लाइंड स्कूल से प्राइमरी शिक्षा के बाद उच्च शिक्षा के लिए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) में दाखिला लिया. वहां से एमफिल के बाद हिंदी में पीएचडी की. अब वो डॉक्टर बसंत बन गए थे. दिल्ली के सरकारी स्कूल में उन्हें पीजीटी हिंदी शिक्षक की नौकरी आसानी से मिल गई।


इससे गांव में घर वालों का उन्हें लेकर व्यवहार बदला. परिजनों ने उनकी शादी गांव की ही सुधा से करा दी. सुधा भले ही पढ़ी-लिखी नहीं थीं मगर जिंदगी को लेकर उनका रवैया बहुत स्पष्ट था. बसंत कुमार से पहले सुधा के लिए जो रिश्ता आया था, उसने मोटे दहेज की मांग की थी. लेकिन जब सुधा अपने से सात साल बड़े बसंत से मिलीं तो उनके व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुईं और शादी के लिए हां कर दी. 29 साल के बसंत और 22 की सुधा ने 1988 में सात फेरे ले लिए।

सात में से पांच सदस्य नेत्रहीन
सुधा बसंत की जिंदगी की दो आंखें बनकर आईं. दोनों बहुत जल्द ही माता-पिता बने और शादी के अगले साल ही घर में बेटी अर्चना ने जन्म लिया. बसंत ने जन्म होते ही डॉक्टर से पहला सवाल किया कि क्या उनकी बच्ची दुनिया देख सकती है. डॉक्टर ने हां कहा तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उसके बाद उनके तीन बेटे आदित्य, अभिनव, आलोक और एक बेटी शक्ति वर्मा ने भी जन्म लिया. आदित्य और शक्ति का ब्लाइंडनेस 100 प्रतिशत था. आलोक और अभिनव जन्म के समय सामान्य थे, लेकिन 8वीं तक आते-आते एक हादसे में अभिनव की आंखों की रोशनी भी पूरी तरह चली गई।

इस तरह 7 सदस्यों वाले इस परिवार के 4 सदस्य (पिता, दो पुत्र, एक पुत्री) देख नहीं सकते. परिवार के बड़े बेटे आदित्य ने सुरभि वर्मा से शादी की है, जो कि खुद भी नेत्रहीन हैं. आदित्य कपूरथला पंजाब में केंद्रीय विद्यालय में टीचर हैं जबकि सुरभि पहले निजी कंपनी में एचआर में थीं और फिलहाल काम नहीं कर रही हैं. अभिनव की पत्नी रीत और शक्ति के पति रघुवीर कुमार आम लोगों की तरह देख सकते हैं. दोनों भाई-बहन की शादी इसी साल हुई है. बड़ी बहन अर्चना की शादी 2010 में हुई थी और वो अपनी ससुराल दरभंगा में रहती हैं. सबसे छोटे आलोक अभी पढ़ाई कर रहे हैं।

पेशे से ब्लाइंड स्कूल में टीचर अभिनव लेट ब्लाइंड हुए. अभिनव बताते हैं ‘वो मेरे लिए सबसे बुरा दिन था, जब मेरी आंखों के सामने से रंग और रोशनी पूरी तरह से गायब हो गए. मैं एक अंधेरी दुनिया में था. मेरा दिमाग जैसे मेरे शरीर का साथ नहीं दे रहा था. मैं इस अंधेरे को स्वीकार ही नहीं कर पा रहा था. मैंने सभी देशों के फ्लैग देख रखे थे. वो गौरैया, तोते, रंग-बिरंगे फूल, अपने मम्मी-पापा, भाई-बहन सब जैसे कहीं खो गए थे. मैं उस वक्त को याद करके आज भी सहम जाता हूं’।

हालांकि अच्छा ये था कि बसंत परिवार के लोगों की आंखों को लेकर इतना डरे रहते थे कि उन्होंने बचपन से ही नेशनल एसोसिएशन फॉर द ब्लाइंड आरकेपुरम में उनका एडमिशन करा रखा था. यहां वे पहले से ही ब्रेल वगैरह सीख चुके थे. अभिनव बताते हैं कि उन्हें चलना-फिरना नहीं आता था. काउंसिलिंग और पापा मम्मी की मदद से उन्होंने अपने हालात को स्वीकारना सीखा. उस साल वो आठवीं में फेल भी हो गए थे, लेकिन फिर धीरे-धीरे पढ़ने में मन लगाना शुरू कर दिया क्योंकि वो जानते थे कि पढ़-लिखकर ही हालात बदले जा सकते हैं।

तकनीक के सहारे, काम होने लगे सारे
अभिनव बताते हैं ‘यहीं से मेरी जिंदगी में तकनीक ने दस्तक दी. हम लोग समर्थ संस्था में जाकर सीखते थे कि कैसे हम घड़ी से लेकर थर्मामीटर, कैलकुलेटर, खेल-कूद हर चीज इस्तेमाल कर सकते हैं. हम कैसे तकनीक की मदद से अकेले भी घर से निकल सकते हैं. हमारी सेंसर वाली छड़ी से लेकर बोलने वाली घड़ी तक हमारी हेल्प करने लगी थी’।

जब ये घर बन रहा था तब भी बसंत ने इस बात का पूरा ध्यान रखा कि उनके परिवार के सभी सदस्य पूरे घर में सुरक्षित तरीके से चल-फिर सकें. घर की सीढ़ियों पर लोहे की मजबूत रेलिंग लगाई गई. पूरे घर को एकदम समतल रखा गया. पत्नी सुधा ने भी इसमें बहुत मदद की. तीन मंजिला बने इस घर में मेन गेट से लेकर पूरा घर समतल है. घर में हर चीज को इस्तेमाल करके उसकी तय जगह पर ही रखे जाने का नियम सख्त है, ताकि कोई सदस्य टकराकर गिरने न पाए. इसके बाद ऊपर की मंजिल पर जाने के लिए संकरे जीने में भी लोहे की मजबूत रेलिंग लगी है. जिसको पकड़कर आसानी से ऊपर जाया जा सकता है।

हर अलमारी और बेड के किनारों पर थोड़ा-थोड़ा सामान रखा है. सबकी छड़ी की एक नियत जगह है. घर को संभालने वाली सुधा वर्मा कहती हैं कि हमलोग घर के सामान की जगह बार-बार नहीं बदल सकते, क्योंकि इन लोगों के हाथ जिस सामान को लेकर सेट हैं, वो ये लोग आसानी से खोज लेते हैं. अगर जगह बदलती हूं तो उसके लिए ट्रेंड होने में इनको काफी देर लग जाती है।

टीवी-ओटीटी का भरपूर मजा लेता है परिवार
घर में रखा टीवी इतना स्मार्ट है कि वो बोलकर प्रोग्राम सेट कर देता है. उसमें पहली च्वाइस होती है नेट फ्लि क्स और अमेजन प्राइम. अभिनव बताते हैं कि इन दोनों ऐप ने परिवार का फिल्म या सीरीज देखना बहुत आसान कर दिया है. इसमें ऑडियो डिस्क्रि्प्शन का फीचर होता है, जिसमें फिल्म या सीरीज के दृश्यों का भी पता चल जाता है. डिस्क्रििप्शन के कारण उन्हें फिल्म का सस्पेंस भी सही से समझ में आ जाता है. अब इस फीचर से पांचों लोग फिल्म साथ देख लेते हैं. अभिनव गाने सुनते हैं और कैशियो बजाना भी उन्होंने सीखा है।

अभिनव स्मार्टफोन का भी आसानी से इस्तेमाल कर लेते हैं. इसके लिए फोन में टॉक बैक ऐप इंस्टॉल है. ये हर एंड्रायड की सेटिंग के एक्सेसबिलिटी में मिलता है. वो फोन टच से कमांड देते हैं, जिससे फोन बोलकर बता देता है. फिर कमांड देने के लिए डबल टैप और होल्ड करते हैं. लेफ्ट टू राइट या राइट टू लेफ्ट स्वाइप करके आइकन में जाते हैं. फिर डबल टैप करके ऑप्शन को सेलेक्ट कर लेते हैं।

फोटो को पहचानने के लिए फेसबुक काफी हेल्प करता है. फेसबुक के फीचर्स के अनुसार फोटो पर क्लिक करने पर पता चलता है कि कितने लोग फोटो में हैं. इसमें पीपल विद आई ग्लासेज या लोग, समुद्र, पेड़ पौधे या फूलों के पास हैं तो उसकी एक मिरर इमेज बना लेते हैं, इसमें कई बार जब अच्छा लगता है तो कमेंट कर देते हैं. हालांकि व्हाट्सऐप पर आई फोटोज नहीं पता चल पातीं. इसके अलावा कई ऐसी ऐप हैं जो हिंदी इंग्लिश में पोस्ट पढ़ने में हेल्प करती हैं।

शक्ति वर्मा ने एलिमेंट्री एजुकेशन में डिप्लोमा किया हुआ है. वो बताती हैं कि आम लोग रोशनी देखकर भी समय का अंदाजा लगा लेते हैं, लेकिन पापा को उसके लिए खुलने वाली घड़ी देखनी पड़ती है. वो खुद टॉकिंग वॉच से भी समय पता कर लेती हैं. इसके अलावा मोबाइल पर गूगल असिस्टेंट से वक्त पूछ लेते हैं. घर में किसी की तबीयत खराब होने पर वे लोग टॉकिंग थर्मामीटर का इस्तेमाल करते हैं. मां ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं हैं तो उनको खुद ही ये चेक करना पड़ता है।

शक्ति कहती हैं कि हम लोगों के लिए तकनीक तो बहुत सी उपलब्ध हैं मगर ये काफी महंगी होती हैं इसलिए हर कोई इसे एक्सेस नहीं कर सकता. इसी तरह पढ़ाई में टॉकिंग कैलकुलेटर मदद करता है. ब्रेल बुक और ऑडियो बुक भी काफी हेल्प‍फुल होती हैं. लेकिन दिक्कत ये है कि ये सीमित मात्रा में हैं क्योंकि इसमें पेपर काफी यूज होता है. जैसे किसी नॉर्मल प्रिंट बुक को ब्रेल बुक बनाया जाए तो वो बुक दो-तीन वैल्यूम में तैयार होगी।

कैसे चूज करते हैं कपड़ों का कलर
अभिनव कहते हैं कि जो लोग जन्म से अंधे हैं, उनके लिए इसमें समस्या होती है. लेकिन जैसे उनको बाद में दिखना बंद हुआ तो उनको कॉम्बीनेशन मालूम है. उनको ब्लू ग्रीन पहले अच्छा लगता था, तो वो वही कपड़ा लेने की कोशिश करते हैं. इसके अलावा जो लोग जन्म से नहीं देख पाते वो पसंद वाले व्यक्तिे से पूछते हैं कि क्या पहनें जो ऑड न लगे. कुछ चीजें जैसे अगर दांत में कीड़े लग रहे हैं, दर्द हो रहा है तो किसी से पूछ लेते हैं कि देख लीजिए. वैसे ही अगर बाल सफेद हो रहे हैं तो भी पूछना पड़ता है. अगर आपकी दोस्ती अच्छी है तो कई बार वो ही टोक देते हैं।

हमदर्द भी, दर्द भी
अभिनव बताते हैं कि कई बार लोग उनको सूरदास, अंधे जैसे ताने देते हैं, लेकिन साथ ही कई लोग मदद भी करते हैं. जब वे मेन रोड पर पहुंचते हैं तो वो रोड बहुत चलने वाला है. तो वहां एक भैया हैं जो दौड़कर उनकी हेल्प के लिए आ जाते हैं. वो पापा की भी हेल्प कर देते हैं. अभिनव कहते हैं कि हमलोग नहीं देख पाते हैं तो हमारा संघर्ष जगजाहिर है, लेकिन असली संघर्ष फैमिली के उन लोगों का भी है जो हर कदम पर हमारी मदद करते हैं. जैसे कि मां का पूरा जीवन बच्चों और पिता की देखरेख में चला गया. भाभी नये घर आईं उनको नहीं दिखता था तो मां ने उनकी भी मदद की. ठीक ऐसे ही छोटा भाई आलोक चूंकि देख सकता है तो घर का ज्यादातर काम उसे ही बताया जाता है. कहीं से कुछ मंगाना हो, कहीं बाहर जाना हो तो उसे ही दौड़ाया जाता है. मेरी पत्नी रीत अब मेरी हेल्प करती है।

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