खरी-खरी

पलायन नहीं पराक्रम दिखाइए… अफसर की नहीं अंतरात्मा की आवाज पर ध्यान लगाइए… वरना वाकई में घर जाइए

 


समय संयम और संघर्ष का….अफसर की नहीं, अंतरात्मा की आवाज सुनने का… रुदन को रोकने का… मौतों की आहट सुनकर भी नहीं जागे… अर्थियों की कतारें देखकर भी न पसीजे… अपनों के बिछुड़ते, सपनों के बिखरने पर उठी चीत्कारों से भी यदि कानों के पर्दे नहीं फटे तो आपकी इंसानियत मर चुकी है… मानवता मिट चुकी है…. जिन लोगों को ईश्वर ने जिस फर्ज के लिए चुना है, यदि वो उस फर्ज को नहीं निभा पा रहे हैं तो ईश्वर के अपराधी बने जा रहे हैं… बेहद ही कठिन दौर से गुजरते देश के इंदौर शहर का दृश्य भी आत्मा को झकझोरने वाला रहा… कई लोग बिछड़ चुके हैं…कई लोग संघर्ष कर रहे हैं… चिताओं के लिए श्मशान कम पड़ गए… कब्रिस्तान घट गए… हम शहर को संभालने में लगे रहे… उधर प्रकोप गांवों में घुस गया… प्रशासन अब वहां दौड़ लगा रहा है… अव्यवस्था देखकर गुर्रा रहा है… शहरों जैसा दृश्य गांवों में नजर आ रहा है… फिर यदि दिल का दर्द दिमाग में चढ़ जाए… जिम्मेदारों को हडक़ाए और जवाबदार इस्तीफा देकर अपना अहंकार दिखाए तो वाकई में ऐसे लोगों की न तो प्रशासन को जरूरत है और न ही जनता को… यह गद्दारी फर्ज से नहीं खुद से है… हम नाकामियों का दर्द भोग चुके हैं… हम लापरवाहियों के बदले में मिली लाशों का बोझ सह चुके हैं… इधर प्रशासन बेपरवाह था उधर हम… वो व्यवस्था नहीं जुटा पाए और हम भीड़ बढ़ाकर-मास्क उतारकर अकड़ बताकर महामारी को चिढ़ाते रहे… प्रकोप को बुलाते रहे… प्रशासन को ठुकराते रहे… उन्होंने वैक्सीनेशन कैम्प लगवाए… महोत्सव करवाए, जनजागरण जुटाए, मगर हम देखेंगे, समझेंगे, चलेंगे, फिर आगे बढ़ेंगे जैसी अक्खड़ता और अनपढ़ता दिखाते रहे… न महामारी से बचने का उपाय जुटाया न लडऩे के लिए वैक्सीन लगवाई… अब जब मौतें चौपालों पर आ चुकीं तो हाहाकार मचाया… जब कोई कुछ करने की स्थिति में नहीं है तब इल्जाम लगाया… अब भी यदि नहीं संभलेंगे तो इसी तरह संघर्ष करेंगे… महामारी के इस मुकाबले के लिए जहां जनता को जाग्रत होना होगा… वहीं प्रशासन को भी सख्त होना पड़ेगा… प्राथमिक उपचार के लिए तत्पर बनना पड़ेगा… इसी संकल्प के साथ गांवों का रुख कर चुका प्रशासन यदि कोई भी लापरवाही देखे तो सहन करना और नाकामी को स्वीकार करना किसी बड़े खतरे के आगाज से कम नही ंहोगा… भडक़कर इस्तीफा देने वाली स्वास्थ्य पदाधिकारी को स्थिति समझना भी चाहिए थी और व्यवस्था करना भी चाहिए थी… यदि दवाइयां नहीं पहुंचीं तो यह उनकी जवाबदारी भी थी और जिम्मेदारी भी… वो अपना फर्ज समझतीं… मातहतों तक यही संदेश पहुंचातीं… जो नाकारा हैं उन्हें हटाने और इसी तरह हडक़ाने के बजाय खुद ही पलायन कर जाएंगी… जिंदगी से लड़ते लोगों को जवाब देने के बजाय घर में दुबक जाएंगी तो वो पद तो पद इंसानियत के काबिल भी नहीं रह पाएंगी… जिन्होंने पद को नहीं फर्ज को ठुकराया है…उन्हें घर बिठाकर सही मुकाम पर भिजवाया है…

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