ब्‍लॉगर

कैसे खुल जाते हैं फर्जी विश्वविद्यालय

– डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने पिछले सप्ताह देश के 21 फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची जारी कर दायित्व की इतिश्री कर ली है। आयोग का लगभग हर साल ऐसी सूची जारी करता है। सवाल यह है कि युवा पीढ़ी के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने वाले यह विश्वविद्यालय कैसे खुल जाते हैं। आखिर ऐसा तंत्र क्यों नहीं विकसित किया जाता जो इनको पनपने ही न दे। होता यह है कि जब तक ऐसी सूची जारी होती है तब तक हजारों छात्र- छात्राओं का भविष्य दांव पर लग चुका होता है। मोटे अनुमान के अनुसार ही पिछले एक दशक में 90 हजार से अधिक विद्यार्थियों का भविष्य इन फर्जी संस्थाओं की भेंट चढ़ चुका है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि डिग्री लेने के सालों बाद पता चलता है कि वह फर्जी या अमान्य है।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की इस सूची में मजे की बात यह है कि सर्वाधिक फर्जी विश्वविद्यालय देश की राजधानी दिल्ली में हैं। सूची के अनुसार दिल्ली के आठ विश्वविद्यालय फर्जी हैं। उत्तर प्रदेश के चार, पश्चिम बंगाल के दो, ओडिशा के दो, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र्, पुडुचेरी और आंध्र प्रदेश के एक-एक विश्वविद्यालय इस सूची में शामिल हैं। इनमें ओपन यूनिवर्सिटी से लेकर, होम्योपैथी, नेचुरल पैथी, साइंस एवं इजीनियरिंग व वोकेशनल सहित विभिन्न पाठ्यक्रमों को संचालित करने वाली यूनिवर्सिटी शामिल हैं। सवाल सीधा सा यह है कि जब लगभग ऐसे संस्थानों की सूची जारी होती है तो फिर कुकुरमुत्ते की तरह किसके इशारे पर यह फर्जी संस्थान उग जाते हैं। सवाल यह भी है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का निगरानी तंत्र इतना कमजोर क्यों है?

सवाल यह भी उठता है कि इन विश्वविद्यालयों का कोई न कोई प्रचार तंत्र अवश्य होता है जिसके कारण विद्यार्थियों की इन तक पहुंच हो पाती है और वे इनमें प्रवेश लेते हैं। निश्चित रूप से समाचार पत्रों व अन्य प्रचार माध्यमों में इनमें प्रवेश के लिए अभियान चलाया जाता होगा। कहने का अर्थ यह है कि इनका प्रचार तंत्र निश्चित रूप से प्रभावी होता है। दूसरी बड़ा सवाल यह उठता है कि विश्वविद्यालय लगभग हर साल फर्जी संस्थानों की सूची जारी कर लोगों को आगाह करता है। इससे यह तो तय है कि कोई न कोई ऐसा तंत्र है जो यह सब देखता है। मगर आयोग को इन संस्थानों की जानकारी पहले क्यों नहीं मिल पाती-यह सबसे अहम और जवाबदेही तय करने वाला सवाल है। इससे सीधा सीधा अर्थ यह है कि आयोग का निगरानी तंत्र समय पर कार्रवाई नहीं करता। सामान्य सोच की बात करें तो केवल और केवल देश के प्रमुख समाचार पत्रों के विज्ञापनों पर नजर रख ली लाए तो इन पर समय पर कार्रवाई आसानी से की जा सकती है।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पास अपना मजबूत निगरानी तंत्र हैं। आयोग से अनुमोदित या यों कहें कि एप्रूव्ड संस्थानों की सूची भी है तो फिर केवल विज्ञापनों पर ही ध्यान केन्द्रित कर लिया जाए तो तत्काल पता चल सकता है कि विज्ञापित संस्थान एप्रूव्ड है या फर्जी। इस तरह के काम को सूचना तकनीक के माध्यम से और भी आसान किया जा सकता है। इस तरह का सॉफ्टवेयर बनाया जा सकता है बल्कि आयोग के पास निश्चित रूप से पहले से होगा जिसमें एप्रूव्ड संस्थानां की सूची होगी तो उस सॉफ्टवेयर के माध्यम से विज्ञापित संस्थान का नाम अपलोड कर तत्काल मालूम किया जा सकता है कि अमुक संस्था सही है या फर्जी? इस कार्य के लिए एक पृथक से सेल गठित कर भी दिया जाए तो इसमें कोई बुराई नहीं होगी। इससे हजारों विद्यार्थियों के भविष्य से होने वाले खिलवाड़ को भी रोका जा सकता है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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