इंदौर। मानसून सिर पर है और नगर निगम (Municipal council) हर साल जर्जर मकानों (dilapidated houses) को ढहाने की कार्रवाई भी करता है। मगर 7 साल पहले जर्जर घोषित की जा चुकी नेहरू नगर (Nehru Nagar) और एलआईजी (LIG) की 17 इमारतें (Buildings) अभी भी हवा में लटकी हैं और इनमें से कुछ इमारतें तो इतनी खतरनाक हो चुकी हैं कि कभी भी टपक सकत ीहै। बावजूद इसके रहवासी इन इमारतों को छोडऩे को तैयार नहीं हैं। दूसरी तरफ हाउसिंग बोर्ड भी फाइलों में रीडेंसीफिकेशन की योजना बनाकर बैठ गया और सभी रहवासियों से सहमति लेने के विशेष प्रयास भी नहीं किए जा रहे हैं। सिर्फ 30 से 35 फीसदी ने ही अभी तक सहमति दी है। दरअसल, जो व्यवसायिक गतिविधियां अवैध रूप से चल रही हैं वे ही इसमें बाधक बने हैं और रहवासियों को बरगलाते भी हैं।
शासन ने भले ही हाउसिंग बोर्ड के लिए रीडवलपमेंट पॉलिसी बना दी, जिसमें पुराने और जर्जर निर्माणों को तोडक़र उनकी जगह अत्याधुनिक बिल्डिंगें निर्मित की जाना है। मगर अभी तक हाउसिंग बोर्ड इंदौर में एक भी प्रोजेक्ट इस पॉलिसी के तहत अमल में नहीं ला सका और नई कोई आवासीय योजना भी नहीं आई। दूसरी तरफ जो जमीनें उसमें अधिग्रहित करना चाही उसमें भी उसे अदालती हार का मुंह देखना पड़ा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट में पालाखेड़ी सहित खजराना जागीर की जमीनों को लेकर प्रकरण लम्बित पड़े हैं। दूसरी तरफ नेहरू नगर, एलआईजी के साथ-साथ शॉपिंग कॉम्प्लेक्स को लेकर भी बोर्ड ने रीडेंसीफिकेशन प्रोजेक्ट तैयार किया। मगर यह भी फाइलों तक ही सीमित रहा। एलआईजी चौराहा और नेहरू नगर में 17 इमारतें 60 से 70 साल पुरानी तो हैं ही, वहीं अब खतरनाक और जर्जर भी 2018 में ही निगम द्वारा घोषित की जा चुकी हैं। इसमें एलआईजी की इमारतें में 268 और नेहरू नगर की इमारतों में 408 फ्लेट बने हैं, जिनमें 676 परिवार रह रहे हैं। हाउसिंग बोर्ड ने एलआईजी और नेहरू नगर की लगभग साढ़े 6 एकड़ जमीन पर इन पुरानी इमारतों को तोडक़र नई हाईराइज बिल्डिंगें बनाने के प्रोजेक्ट तो तैयार किए, जिसमें पुराने फ्लेटों के बदले 20 फीसदी बड़े आकार के फ्लेट बनाकर देने और उसमें भी रजिस्ट्री का कोई शुल्क ना लेने के अलावा रहवासियों को एक और बड़ी सुविधा यह भी दी कि जब तक नई हाईराइज बिल्डिंगें नहीं बनती तब तक रहवासी अन्य जगह किराए का मकान लेकर रहें तो उसका किराया भी बोर्ड ही चुकाएगा। बावजूद इसके 30 से 35 फीसदी रहवासियों ने ही इसकी सहमति दी। जबकि रीडेंसीफिकेशन प्रोजेक्ट के नियम के मुताबिक कम से कम 51 फीसदी रहवासियों की सहमति अनिवार्य है। समस्या यह है कि हाउसिंग बोर्ड में जितने भी उपायुक्त या अन्य अधिकारी इंदौर में पदस्थ होते हैं वे सिर्फ टाइम पास करते हैं और किसी भी प्रोजेक्ट में रुचि नहीं लेते और दूसरी तरफ राजनीतिक दबाव-प्रभाव भी रहता है, क्योंकि इनमें कई फ्लेटों पर अवैध कब्जे तो हैं ही, वहीं मकान मालिक-किराएदार विवाद के अलावा व्यवसायिक गतिविधियां भी अवैध रूप से चल रही है और उन्हें डर है कि इमारतें टूटने के चलते उनकी व्यवसायिक गतिविधियां बंद हो जाएंगी, जिसके चलते वे भी कोर्ट-कचहरी करने से लेकर अन्य अड़ंगे डालते रहते हैं। फिलहाल तो इनमें कई इमारतें इतनी अधिक जर्जर और खतरनाक हो गई है कि कभी भी टपक सकती है और कोई बड़ा हादसा संभव है।
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