भोपाल न्यूज़ (Bhopal News)

मालवा और ग्वालियर-चंबल में होंगे बहुकोणीय मुकाबले

  • जाति और वर्ग के नाम पर हो रही है चुनावी लामबंदी

भोपाल। मध्य प्रदेश में जातिगत आधारित क्षेत्रीय दल अस्तित्व के लिए करीब आने में संकोच कर रहे हैं और यही भाजपा के लिए शुभ संकेत दे रहा है। यानी वोटों में बिखराव की दशा में भाजपा के सामने सीधे मुकाबले की चुनौती कमजोर पड़ेगी और जीत की राह आसान होगी।
दरअसल, मध्य प्रदेश में भीम आर्मी और जयस (जय आदिवासी युवा शक्ति संगठन) जैसे संगठन चुनावों में ताल ठोंकने की तैयारी में हैं। राजधानी के भेल दशहरा मैदान में रैली आयोजित कर इन संगठनों ने अपनी ताकत दिखाई और अपनी तैयारियों को भी जमीन पर टटोल लिया है। अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) वर्ग के लिए प्रदेश में 82 सीटें आरक्षित हैं। फिलहाल इन पर भाजपा और कांग्रेस का कब्जा है और इसमें सेंध लगाने की तैयारी में क्षेत्रीय संगठन दमखम आजमाने के लिए इन क्षेत्रों में पैठ बढ़ा रहे हैं। हालांकि, सियासी हालात कुछ और ही संकेत कर रहे हैं, जिसके मुताबिक इन क्षेत्रीय दलों की सक्रियता और अलग-अलग चुनाव लडऩे से भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा चुनाव में बड़ा लाभ होने की संभावना है।


वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में जयस की कांग्रेस से नजदीकी के कारण मालवांचल में एसटी वर्ग के वोट का बड़ा हिस्सा कांग्रेस के खाते में चला गया था। वहीं, ग्वालियर- चंबल में एससी वर्ग का वोट एट्रोसिटी आंदोलन की नाराजगी के चलते भाजपा से दूर हटकर कांग्रेस के पास चला गया था। सीधे मुकाबले में वोट के एकतरफा मुड़ जाने का सीधा नुकसान भाजपा को हुआ और उसे सत्ता गंवानी पड़ी थी, लेकिन अब जो तस्वीर उभर कर सामने आ रही है, वह भाजपा को राहत देने वाली है। क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस से दूरी बना ली है और कांग्रेस ने भी अपने स्तर पर बिना किसी दल से हाथ मिलाए चुनाव में उतरने का मन बना लिया है। ऐसे में कई सीटों पर सीधे मुकाबले के बजाय बहुकोणीय टकराव की तस्वीर उभरेगी। विश्लेषक मानते हैं कि जिन वोटों के घुमाव ने कांग्रेस को फायदा पहुंचाया था, वही जब कांग्रेस के खिलाफ होंगे तो उसे नुकसान और भाजपा को फायदा होगा।
इस बार भीम आर्मी ने ग्वालियर अंचल में मजबूत जड़ें जमा ली हैं और जयस मालवांचल सहित आदिवासी क्षेत्रों में वोट खींचने में सक्षम हो गया है। ये दोनों संगठन अलग चुनाव लड़ेंगे तो वोटों का बिखराव होगा। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि ऐसी दशा में क्षेत्रीय दलों को अस्तित्व बनाने और अपनी ताकत टटोलने में तो कामयाबी मिलेगी, लेकिन विधानसभा सीटों की बड़ी संख्या शायद न मिल सके।

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