ये है मेरी मरहूम वालदा का नियामतखाना। कोई 65 बरस पुराना है ये । 18 गेज के लोह से बना है। उर्दू में नियामत लफ्ज़ के मायने ईश्वर प्रदत्त वैभव या शानशौकत के हैं। इस लिहाज़ से नियामतखाना खुदा दाद शान और बरकत से वाबस्ता वस्तु है। पचास की दहाई की शुरुआत में जब घरों में फ्रिज नही होते थे तब खाने-पीने का सामान नियामतखाने में रखा जाता था । बताते हैं सन 1958 में मेरे वालिद मरहूम ने इस नियामतखाने को जावद में बनवाया था। वालिद साब वहां तहसीलदार हुआ करते थे। लिहाज़ा शीट मेटल की दुकान वाले किसी मुल्लाजी ने इसे पूरी तवज्जो के साथ बनाया था। एकदम नया चमकदार नियामतखाना घर आया तो वालिदा ने इसका बारीकी से मुआयना किया। उन्होंने इसके दरवाज़े के ऊपर वाले कोने में एक स्टॉपर टाइप का सिस्टम लगवाया। बनाने वाले से पूछा गया…इसमे जंग तो नहीं लगेगा। जवाब मिला…नहीं बाई साब ये तो आपकी कई नस्लों तक चलेगा…कभी खराब नहीं होगा। मुल्लाजी सही थे। इसमे लगी लोहे की जालियां आज तक सलामत हैं। दरवाज़े के नकूचों और कब्जों तक को कोई नुकसान नहीं पहुंचा। नए नए नियामतखाने को घर के हवादार कोने में रखा जाता। रात की बची हुई दाल, सब्जी और दूध रखने के लिए वालिदा इसका इस्तेमाल करतीं। हरी सब्जियों को गीले कपड़े में लपेट कर इसके नीचे वाले खाने में रख दिया जाता। तीन तरफ से आने वाले हवा के झोंके सब्जिय़ों की ताजगी बनाये रखते। दही जमाने वाला मिट्टी का सकोरा भी इसमे रखा जाता। मां के इस नियामतखाने ने वो दौर भी देखा है जब घर मे गैस नहीं लकड़ी का चूल्हा हुआ करता था। आंगन वाले घरों में हम सात भाई-बहनों को इस नियामतखाने ने तमाम सारी नियामतों से नवाजा। माशा अल्लाह नियामतखाना फल और सब्जियों से भरा रहता। सरकारी नोकरी में वालिद साब का तबादला (सन 1958 से 1978 के दरम्यान) जावद के बाद मनासा, रतलाम, सैलाना, शिवपुरी,उज्जैन, रहली, दमोह और भोपाल में हुआ। जिस शहर में भी गए इस नियामतखाने के जलवे बरकऱार रहे। ये वो दौर था जब सिल- बट्टे पे मसाला और चटनी पीसी जाती थी। वो खानदानी सिलबट्टा भी हमारे घर मे महफूज़ है। सिलबट्टा चालीस की दहाई में दादा मरहूम लाये थे। घर के आंगन में बैंगन, टमाटर, भिंडी, गिलकी और लोकी उगाई जाती थी। कैरी का कचूमर सिलबट्टे पे पीसा जाता। कवाब का कीमा भी चने की दाल के साथ सिलबट्टे पे कूटा जाता। मक्का की रोटी या ज्वार के टिक्कड़ पे असली घी लगा के अरहर की दाल के साथ दस्तरख्वान पे पेश किया जाता। सभी भाई बहनों की पंगत ही लग जाती। किसी को चटनी दरकार होती तो किसी को कैरी का कचूमर। ये नियामतखाना हमारे घर के हर नशेबोफराज़ का गवाह है। जब कभी घर मे मेहमान आते तब नियामतखाने के तीनों खाने टकाटख भरे रहते। आज न हमारे वालिद साहब (मरहूम अब्दुल समद बेग डिप्टी कलेक्टर) हयात हैं और न वालिदा (मरहूम राबिया बेगम) हैं। हम भाई बहनों में सबसे चटोरे शाहिद मिजऱ्ा (मशहूर पत्रकार) साब भी अब इस दुनिया मे नहीं हैं। बचपन मे शाहिद भाई ही सबसे ज़्यादा इस नियामतखाने के इर्द-गिर्द पाए जाते थे। रेफ्रिजरेटर और डीप फ्रीजर के इस दौर में नियामतखाना अब अप्रासंगिक हो गया है। इंदौर के धार कोठी वाले हमारे घर में मॉड्यूलर किचन में रखा ये नियामतखाना हमारे पुराने गौरवशाली बचपन के दौर का गवाह है । इसे आज भी बावर्चीखाने के उसी कोने में रखा गया है जहां हमारी वालिदा मरहूम इसे रख कर गईं थीं। बुजुर्गों की इस धरोहर को हमारी पीढ़ी तो सहेजे हुए है…आगे क्या होगा ये कौन जानता है।
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