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राहुल गांधी को ‘मोदी सरनेम’ पर हुई सजा…जानिए कहां से हुई सरनेम रखने की शुरूआत

नई दिल्‍ली (New Delhi) । कांग्रेस सांसद राहुल गांधी (Congress MP Rahul Gandhi) को ‘मोदी सरनेम’ (Modi Surname) पर विवादित टिप्पणी (controversial comment) करने पर दो साल की सजा सुनाई गई है. मानहानि के मामले (defamation case) में सूरत की अदालत ने उन्हें दोषी करार दिया है.

राहुल गांधी को जिस मामले के लिए दोषी ठहराया गया है, वो चार साल पुराना है. 13 अप्रैल 2019 को कर्नाटक में चुनावी रैली में राहुल गांधी ने कहा था, ‘नीरव मोदी, ललित मोदी, नरेंद्र मोदी का सरनेम कॉमन क्यों है? सभी चोरों का सरनेम मोदी क्यों होता है?’

इस टिप्पणी पर बीजेपी विधायक पूर्णेश मोदी ने राहुल के खिलाफ मानहानि का केस दायर किया था. इसी पर सूरत की कोर्ट ने राहुल को दोषी ठहराया है.

ये तो बात हो गई ‘मोदी’ सरनेम की, लेकिन दूसरी ओर ‘नेहरू’ सरनेम पर भी सियासत हो रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ महीने पहले नेहरू सरनेम को लेकर गांधी परिवार पर निशाना साधा था. पीएम ने राज्यसभा में कहा था, ‘मुझे ये समझ नहीं आता कि उनकी पीढ़ी का कोई भी व्यक्ति नेहरू सरनेम रखने से डरता क्यों है? उन्हें क्या शर्मिंदगी है? इतना महान व्यक्तित्व, अगर आपको मंजूर नहीं है, आपके परिवार को मंजूर नहीं है, और हमारा हिसाब मांगते रहते हो?’


लेकिन जिन सरनेम को लेकर संसद से लेकर अदालत तक बहस हो रही है, वो आए कहां से? हमें सरनेम लगाने की जरूरत क्यों पड़ी? जानिए….

अब बात सरनेम कहां से आए?
माना जाता है कि प्राचीन काल में सरनेम नहीं हुआ करते थे, लेकिन जैसे-जैसे इंसानी आबादी बढ़ती गई, वैसे-वैसे इसकी जरूरत महसूस होने लगी.

सरनेम हमें किसी व्यक्ति की जाति, पेशे, स्थान यानी जहां वो रहता हो जैसी बातें बताता है. इसी तरह हर क्षेत्र और भाषा में अलग-अलग सरनेम हैं जो कुछ न कुछ बताते हैं.

भारत में सरनेम की परंपरा हजारों साल पुरानी मिलती है. कई वैदिक पुराणों में सरनेम यानी उपनाम का जिक्र मिलता है, जो पिता, माता और गोत्र के नाम से लिए गए थे.

ऋग्वेद में कहा गया है कि हर व्यक्ति के चार नाम होने चाहिए. एक नाम नक्षत्र के आधार पर, दूसरा नाम जिससे लोग उसे जानें, तीसरा नाम सीक्रेट हो और चौथा नाम सोमयाजी के आधार पर होना चाहिए. सोमयाजी यानी वो जो सोमयज्ञ करवाते हैं.

नरेंद्र नाथ की लिखी किताब ‘द इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टली’ में नाम और उपनाम को लेकर काफी कुछ लिखा गया. इस किताब के मुताबिक, जब प्राचीन ग्रंथों से गुजरते हैं तो पता चलता है कि बहुत से ऐसे लोग थे जिनके तीन-तीन नाम हुआ करते थे. उदाहरण के लिए- राजा हरिश्चंद्र. उन्हें वेधास और इक्ष्वाका के नाम से भी जाना जाता है. वेधा का मतलब है- वेद और इक्ष्वाका का मतलब उनके इक्ष्वाकु वंश से है.

इसी तरह से कई प्राचीन किताबों में एक ही व्यक्ति के दो नाम का जिक्र भी है. इनमें से एक उसका नाम है और दूसरा उसका गोत्र बताता है. जैसे- हिरण्यस्तूप अंगीरस, जिसमें हिरण्यस्तूप नाम है और अंगीरस गोत्र. इसके अलावा ये भी पता चलता है कि प्राचीन समय में लोग अपने नाम के साथ-साथ अपने स्थान को भी जोड़ते थे. जैसे- जनक वैदेहा और भार्गव वैदर्भी. वैदेहा और वैदर्भी जगह है.

इतना ही नहीं, प्राचीन समय के कई ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जो बताते हैं कि लोग अपने नाम के साथ पिता या माता का नाम भी जोड़ते थे. जैसे- दीर्घात्मा मामतेय (ममता का बेटा) और कुत्स अर्जुनेय (अर्जुन का बेटा).

वहीं, मनुस्मृति में भी सरनेम का जिक्र मिलता है. इसमें लिखा है, ब्राह्मणों को अपने नाम के बाद ‘सरमन’ (खुशी या आशीर्वाद), क्षत्रियों को ‘वर्मन’ (शक्ति और सुरक्षा), वैश्यों को ‘गुप्ता’ (समृद्धि) और शूद्रों को ‘दास’ (गुलाम या निर्भरता) लगाना चाहिए.

सरनेम आने के पीछे ये भी कहानियां…
जब आबादी कम थी तो लोगों को एक ही नाम से जाना जाता था. लेकिन जैसे-जैसे आबादी बढ़ने लगी और उनकी पहचान कर पाना मुश्किल हो गया तो उपनाम भी रखे जाने लगे.

दस्तावेजों से पता चलता है कि दुनिया की कई सभ्यताओं और परंपराओं में सरनेम रखने का जिक्र मिलता है.

दो हजार साल पहले चीन में फू शी नाम के राजा ने सरनेम रखने का आदेश दिया था. ऐसा इसलिए ताकि लोगों की गिनती हो सके. शुरुआत में चीन में लोग अपना सरनेम मां के नाम पर रखते थे, लेकिन बाद में इसे पिता के नाम पर रखा जाने लगा.

इसी तरह अंग्रेजी में सरनेम या उपनाम या खानदानी या पारिवारिक नाम के चार मुख्य स्रोत हैं. इनसे किसी व्यक्ति के पेशे, स्थान, निकनेम या रिश्ते का पता चलता है. उदाहरण के लिए- आर्चर यानी शिकारी या तीर-धनुष चलाने वाला और स्कॉट यानी स्कॉटलैंड का रहने वाला.

इंग्लैंड में एक हजार साल पहले उपनाम रखने की प्रथा शुरू हुई थी. शुरुआत में लोग अपनी मर्जी से सरनेम रखते थे, लेकिन बाद में माता-पिता के नाम, पेशे, स्थान जैसी चीजों के आधार पर रखे जाने लगे.

ईरान में सरनेम का चलन मध्यकाल की तरह ही था. यहां भी सरनेम पूर्वजों से ही पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहा. अरब समाज में नाम या तो सीधे परिवार या जाति से जुड़े रहे या फिर पेशे या जन्मस्थान से उनका ताल्लुक रहा. लेकिन वे यूनिवर्सल नहीं थे.

दुनिया में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले सरनेम?
netcredit.com के अनुसार, दुनिया के ज्यादातर देशों में सरनेम यूरोपीय परंपरा से प्रभावित मिलते हैं. यहां ज्यादातर लोगों के सरनेम ऐसे होते हैं जो उनका पेशा बताते हैं. वहीं, एशिया, अफ्रीका और अमेरिका में पारिवारिक उपनाम का चलन ज्यादा है.

अफ्रीका में पुर्तगालियों का कब्जा मिला है, इसलिए यहां पुर्तगानी सरनेम की झलक मिलती है. यहां के कई देशों में ‘केपे वरदे’, ‘लोपेस’, ‘साओ तोमे’ और ‘प्रिंसिप’ जैसे सरनेम काफी आम है. वहीं, यहां के कई देशों में मुस्लिम आबादी ज्यादा है, इसलिए ‘मोहम्मद’, ‘अली’ और ‘इब्राहिम’ जैसे सरनेम आम हैं.

वहीं, दक्षिण एशिया में ‘तेन’, ‘चेन’ और ‘झेन’ जैसे सरनेम आम हैं. एक अनुमान के मुताबिक, चीन में हर 13 लोगों में से एक का सरनेम ‘वांग’ है. साउथ कोरिया और नॉर्थ कोरिया में हर पांच में से एक शख्स का सरनेम ‘किम’ और वियतनाम में हर चार में से एक का ‘यूगेन’ होता है.

अमेरिका में ज्यादातर लोगों का सरनेम ‘स्मिथ’ होता है. अनुमान है कि हर 121 में से एक का सरनेम ‘स्मिथ’ है. भारत में सबसे आम सरनेम ‘देवी’ और पाकिस्तान में ‘खान’ है. वहीं, यूरोपीय देशों में ‘श्मिट’, ‘मर्फी’, ‘पीटर्स’, ‘सिल्वा’, ‘मार्टिन’, ‘मूलर’ जैसे उपनाम आम हैं. ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भी सबसे आम सरनेम ‘स्मिथ’ ही है.

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