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रामचरितमानस : जब विश्वामित्र ने भगवान राम के हाथों ताड़का का कराया वध, जाने कैसे हुआ अहिल्या का उद्धार

नई दिल्‍ली (New Delhi) । अयोध्या (Ayodhya) में नवनिर्मित राम मंदिर (Ram Mandir) की तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं. भगवान राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी को होगी. रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के अवसर पर अयोध्या के साथ-साथ पूरा देश राममय हो रहा है. इस खास मौके पर हम आपको तुलसीदास (Tulsidas) द्वारा अवधी में लिखी गई राम की कहानी विस्तार से बता रहे हैं. आज हम जानेंगे कि कैसे विश्वामित्र ने भगवान राम के हाथों ताड़का का वध कराया और फिर अहिल्या का उद्धार किया.

प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बालक्रीड़ा की और समस्त नगर निवासियों को सुख दिया. कौशल्या जी कभी उन्हें गोद में लेकर हिलाती-डुलातीं और कभी पालने में लिटाकर झुलाती थीं. प्रेम में मग्न कौशल्या जी रात और दिन का बीतना नहीं जानती थीं. पुत्र के स्नेहवश माता उनके बाल चरित्रों का गान किया करतीं. भोजन करने के समय जब राजा बुलाते हैं, तब वे अपने बालसखाओं के समाज को छोड़कर नहीं आते. कौशल्या जी जब बुलाने जाती हैं, तब प्रभु ठुमुक-ठुमुक भाग चलते हैं. जिनका वेद ‘नेति’ (इतना ही नहीं) कहकर निरूपण करते हैं और शिवजी ने जिनका अन्त नहीं पाया, माता उन्हें हठपूर्वक पकड़ने के लिए दौड़ती हैं. वे शरीर में धूल लपेटे हुए आए और राजा ने हंसकर उन्हें गोद में बैठा लिया.

भोजन करते हैं पर चित्त चंचल है. अवसर पाकर मुंह में दही-भात लपटाये किलकारी मारते हुए इधर-उधर भाग चले. श्री रामचन्द्र जी की बहुत ही सरल (भोली) और सुंदर (मनभावनी) बाललीलाओं का सरस्वती, शेषजी, शिवजी और वेदों ने गान किया है. जिनका मन इन लीलाओं में अनुरक्त नहीं हुआ, विधाता ने उन मनुष्यों को वंचित कर दिया (नितान्त भाग्यहीन बनाया). ज्यों ही सब भाई कुमारावस्था के हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया. श्री रघुनाथ जी [भाइयों सहित] गुरु के घर में विद्या पढ़ने गए और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएं आ गईं. चारों वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैं, वे भगवान पढ़ें, यह बड़ा कौतुक (अचरज) है.


स्वर्ग जाते राम के बाण से मरने वाले मृग
चारों भाई विद्या, विनय, गुण और शील में बड़े निपुण हैं और सब राजाओं की लीलाओं के ही खेल खेलते हैं. हाथों में बाण और धनुष बहुत ही शोभा देते हैं. रूप देखते ही चराचर (जड़-चेतन) मोहित हो जाते हैं. वे सब भाई जिन गलियों में खेलते हुए निकलते हैं, उन गलियों के सभी स्त्री- पुरुष उनको देखकर स्नेह से शिथिल हो जाते हैं अथवा ठिठककर रह जाते हैं. कोसलपुर के रहने वाले स्त्री, पुरुष, बूढ़े और बालक सभी को कृपालु श्रीरामचन्द्रजी प्राणों से भी बढ़कर प्रिय लगते हैं. श्रीरामचन्द्रजी भाइयों और इष्ट-मित्रों को बुलाकर साथ ले लेते हैं और नित्य वन में जाकर शिकार खेलते हैं. मन में पवित्र समझकर मृगों को मारते हैं और प्रतिदिन लाकर राजा (दशरथजी) को दिखलाते हैं.

जो मृग श्री राम जी के बाण से मारे जाते थे, वे शरीर छोड़कर देवलोक को चले जाते थे. श्री रामचन्द्र जी अपने छोटे भाइयों और सखाओं के साथ भोजन करते हैं और माता-पिता की आज्ञा का पालन करते हैं. जिस प्रकार नगर के लोग सुखी हों, कृपानिधान श्री रामचन्द्र जी वही लीला करते हैं. वे मन लगाकर वेद-पुराण सुनते हैं और फिर स्वयं छोटे भाइयों को समझाकर कहते हैं. श्री रघुनाथ जी प्रातःकाल उठकर माता-पिता और गुरु को मस्तक नवाते हैं और आज्ञा लेकर नगर का काम करते हैं. उनके चरित्र देख-देखकर राजा मन में बड़े हर्षित होते हैं. जो व्यापक, अकल (निरवयव ), इच्छारहित, अजन्मा और निर्गुण हैं; तथा जिनका न नाम है न रूप, वही भगवान भक्तों के लिए नाना प्रकार के अनुपम (अलौकिक) चरित्र करते हैं.

जब राम-लक्ष्मण को लेने दशरथ के द्वार पहुंचे विश्वामित्र
ज्ञानी महामुनि विश्वामित्र जी वन में शुभ आश्रम (पवित्र स्थान) जानकर बसते थे. जहां वे मुनि जप, यज्ञ और योग करते थे, परन्तु मारीच और सुबाहु से बहुत डरते थे. यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि बहुत दुःख पाते थे. गाधि के पुत्र विश्वामित्र जी के मन में चिन्ता छा गई कि ये पापी राक्षस भगवान के मारे बिना न मरेंगे. तब श्रेष्ठ मुनि ने मन में विचार किया कि प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने के लिए अवतार लिया है.

इसी बहाने जाकर मैं उनके चरणों का दर्शन करूं और विनती करके दोनों भाइयों को ले आऊं. जो ज्ञान, वैराग्य और सब गुणों के धाम हैं, उन प्रभु को मैं नेत्र भरकर देखूंगा. बहुत प्रकार से मनोरथ करते हुए जाने में देर नहीं लगी. सरयू जी के जल में स्नान करके वे राजा के दरवाजे पर पहुंचे. राजा ने जब मुनि का आना सुना, तब वे ब्राह्मणों के समाज को साथ लेकर मिलने गए और दण्डवत करके मुनि का सम्मान करते हुए उन्हें लाकर अपने आसन पर बैठाया. चरणों को धोकर बहुत पूजा की और कहा- मेरे समान धन्य आज दूसरा कोई नहीं है. फिर अनेक प्रकार के भोजन करवाए, जिससे श्रेष्ठ मुनि ने अपने हृदय में बहुत ही हर्ष प्राप्त किया. फिर राजा ने चारों पुत्रों को मुनि के चरणों पर डाल दिया.

श्री रामचन्द्र जी को देखकर मुनि अपनी देह की सुधि भूल गए. वे श्री राम जी के मुख की शोभा देखते ही ऐसे मग्न हो गए, मानो चकोर पूर्ण चन्द्रमा को देखकर लुभा गया हो. तब राजा ने मन में हर्षित होकर ये वचन कहे – हे मुनि! इस प्रकार कृपा तो आपने कभी नहीं की. आज किस कारण से आपका शुभागमन हुआ? कहिये, मैं उसे पूरा करने में देर नहीं लगाऊंगा. मुनि ने कहा- हे राजन्! राक्षसों के समूह मुझे बहुत सताते हैं. इसीलिए मैं तुमसे कुछ मांगने आया हूं. छोटे भाई सहित श्री रघुनाथ जी को मुझे दो. राक्षसों के मारे जाने पर मैं सनाथ (सुरक्षित) हो जाऊंगा.

सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं।।
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा ।।

हे राजन! प्रसन्न मन से इनको दो, मोह और अज्ञान को छोड़ दो. हे स्वामी! इससे तुमको धर्म और सुयश की प्राप्ति होगी और इनका परम कल्याण होगा. इस अत्यन्त अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का हृदय कांप उठा और उनके मुख की कान्ति फीकी पड़ गई. उन्होंने कहा- हे ब्राह्मण! मैंने चौथेपन में चार पुत्र पाए हैं, आपने विचारकर बात नहीं कही. हे मुनि! आप पृथ्वी, गौ, धन और खजाना मांग लीजिए, मैं आज बड़े हर्ष के साथ अपना सर्वस्व दे दूंगा. देह और प्राण से अधिक प्यारा कुछ भी नहीं होता, मैं उसे भी एक पल में दे दूंगा. सभी पुत्र मुझे प्राणों के समान प्यारे हैं; उनमें भी हे प्रभो! राम को तो [किसी प्रकार से] देते नहीं बनता. कहां अत्यन्त डरावने और क्रूर राक्षस और कहां परम किशोर अवस्था के बिल्कुल सुकुमार. मेरे सुंदर पुत्र! प्रेम-रस में सनी हुई राजा की वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि विश्वामित्र जी ने हृदय में बड़ा हर्ष माना.

तब वसिष्ठ जी ने राजा को बहुत प्रकार से समझाया, जिससे राजा का सन्देह नाश को प्राप्त हुआ. राजा ने बड़े ही आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और हृदय से लगाकर बहुत प्रकार से उन्हें शिक्षा दी. फिर कहा- हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं. हे मुनि! अब आप ही इनके पिता हैं, दूसरा कोई नहीं. राजा ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद देकर पुत्रों को ऋषि के हवाले कर दिया. फिर प्रभु माता के महल में गए और उनके चरणों में सिर नवाकर चले.

विश्‍वामित्र ने राम के हाथों करवाया ताड़का का वध
पुरुषों में सिंहरूप दोनों भाई (राम-लक्ष्मण) मुनि का भय हरने के लिए प्रसन्न होकर चले. वे कृपा के समुद्र, धीरबुद्धि और सम्पूर्ण विश्व के कारण के भी कारण हैं. भगवान के लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएं हैं, नील कमल और तमाल के वृक्ष की तरह श्याम शरीर है, कमर में पीताम्बर पहने और सुंदर तरकश कसे हुए हैं. दोनों हाथों में सुंदर धनुष और बाण हैं. श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई परम सुंदर हैं. विश्वामित्र जी को महान निधि प्राप्त हो गई. वे सोचने लगे- मैं जान गया कि प्रभु ब्रह्मण्यदेव (ब्राह्मणों के भक्त) हैं. मेरे लिए भगवान ने अपने पिता को भी छोड़ दिया.

मार्ग में चले जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखलाया. शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी. श्री राम जी ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको निजपद (अपना दिव्य स्वरूप ) दिया. तब ऋषि विश्वामित्र ने प्रभु को मन में विद्या का भंडार समझते हुए भी [लीला को पूर्ण करने के लिए] ऐसी विद्या दी, जिससे भूख-प्यास न लगे और शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो. सब अस्त्र-शस्त्र समर्पण करके मुनि प्रभु श्री राम जी को अपने आश्रम में ले आए और उन्हें परम हितैषी जानकर भक्तिपूर्वक कन्द, मूल और फल का भोजन कराया. सवेरे श्री रघुनाथ जी ने मुनि से कहा- आप जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिए. यह सुनकर सब मुनि हवन करने लगे. श्री राम जी यज्ञ की रखवाली पर रहे.

चलेजात मुनि दीन्ही देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई।।
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।

भगवान राम ने किया अहिल्या का उद्धार
यह समाचार सुनकर मुनियों का शत्रु, क्रोधी राक्षस मारीच अपने सहायकों को लेकर दौड़ा. श्री राम जी ने बिना फल वाला बाण उसको मारा, जिससे वह सौ योजन के विस्तार वाले समुद्र के पार जा गिरा. फिर सुबाहु को अग्निबाण मारा. इधर छोटे भाई लक्ष्मण जी ने राक्षसों की सेना का संहार कर डाला. इस प्रकार श्री राम जी ने राक्षसों को मारकर ब्राह्मणों को निर्भय कर दिया. तब सारे देवता और मुनि स्तुति करने लगे. श्री रघुनाथ जी ने वहां कुछ दिन और रहकर ब्राह्मणों पर दया की. भक्ति के कारण ब्राह्मणों ने उन्हें पुराणों की बहुत-सी कथाएं कहीं, यद्यपि प्रभु सब जानते थे. तदनन्तर मुनि ने आदरपूर्वक समझाकर कहा- हे प्रभु! चलकर एक चरित्र देखिये. रघुकुल के स्वामी श्री रामचन्द्र जी धनुषयज्ञ की बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र जी के साथ प्रसन्न होकर चले.

मार्ग में एक आश्रम दिखायी पड़ा. वहां पशु-पक्षी, कोई भी जीव-जन्तु नहीं था. पत्थर की एक शिला को देखकर प्रभु ने पूछा, तब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही. गौतम मुनि की स्त्री अहिल्या शापवश पत्थर की देह धारण किए बड़े धीरज से आपके चरणकमलों की धूलि चाहती है. हे रघुवीर! इसपर कृपा कीजिए. श्रीरामजी के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई. भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथ जी को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई. अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई. उसका शरीर पुलकित हो उठा; मुख से वचन कहने में नहीं आते थे. वह अत्यन्त बड़भागिनी अहिल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनंद के आंसुओं) की धारा बहने लगी.

फिर उसने मन में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और श्री रघुनाथ जी की कृपा से भक्ति प्राप्त की. तब अत्यन्त निर्मल वाणी से उसने स्तुति प्रारम्भ की- हे ज्ञान से जानने योग्य श्री रघुनाथ जी! आपकी जय हो! मैं अपवित्र स्त्री हूं और हे प्रभु! आप जगत को पवित्र करने वाले, भक्तों को सुख देने वाले और रावण के शत्रु हैं. हे कमलनयन! हे संसार (जन्म-मृत्यु) के भय से छुड़ाने वाले! मैं आपकी शरण आई हूं, रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए.

जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी।।
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पति लोक अनंद भरी।।

मुनि ने जो मुझे शाप दिया, सो बहुत ही अच्छा किया. मैं उसे अत्यन्त अनुग्रह मानती हूं कि जिसके कारण मैंने संसार से छुड़ाने वाले श्रीहरि (आप) को नेत्र भरकर देखा. इसी (आपके दर्शन) को शंकरजी सबसे बड़ा लाभ समझते हैं. हे प्रभु! मैं बुद्धि की बड़ी भोली हूं, मेरी एक विनती है. हे नाथ! मैं और कोई वर नहीं मांगती, केवल यही चाहती हूं कि मेरा मनरूपी भौंरा आपके चरणकमल की रज के प्रेमरूपी रस का सदा पान करता रहे. जिन चरणों से परम पवित्र देव नदी गंगा जी प्रकट हुईं, जिन्हें शिवजी ने सिर पर धारण किया और जिन चरणकमलों को ब्रह्मा जी पूजते हैं, कृपालु हरि (आप) ने उन्हीं को मेरे सिर पर रखा. इस प्रकार [स्तुति करती हुई] बार-बार भगवान के चरणों में गिरकर, जो मन को बहुत ही अच्छा लगा, उस वर को पाकर गौतम की स्त्री अहिल्या आनंद में भरी हुई पतिलोक को चली गई.

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