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स्मृति शेषः राष्ट्रीय नायक थे कल्याण सिंह

– डॉ. राकेश उपाध्याय

जीवन भर श्रीराम की छवि अपने मनमंदिर में बसाकर चलने वाले राष्ट्रीय नायक थे कल्याण सिंह। परमात्मा द्वारा परमात्मा के कार्य के लिए चयनित थे, अपना कार्य पूरा कर अपने मन-आंगन में रामनाम की सुंदर छवि बसाकर, अंतिम सांसों में भी राम को बसाकर रामपथ पर चले गए। उनकी स्मृति सदैव मन पर अंकित रहेगी। हिन्दू राजनीतिक अधिष्ठान पर चलने वाला हिन्दू नेतृत्व कैसा होना चाहिए, कल्याण सिंह वैसे ही थे जो चिरकाल तक भारत की राष्ट्रवादी राजनीति के दीपस्तंभ बनकर जगमगाते रहेंगे।

समकालीन भारतीय राजनीति में उनके जैसी भाषण और कर्तृत्व शैली वाले नेता बिरले थे। भारतीय जनता पार्टी में अटल बिहारी वाजपेयी की भाषण शैली के बाद अगर कोई नेता सबसे ज्यादा तेवर और धार के साथ भाषण कला में प्रवीण था तो वह कल्याण सिंह ही थे। जमीन से वह बहुत गहराई से जुड़े थे। गणित और भाषा के अध्यापक थे। लिहाजा राजनीति में उतरे तो उन्होंने बड़ों-बड़ों के सारे राजनीतिक गणित धराशायी कर दिए और अपनी दहाड़ने वाली शैली में हर विरोधी राजनीतिक भाषा को उन्होंने निरुत्तर कर दिया। उप्र की राजनीति को पूरब से पश्चिम तक, प्रत्येक जिले और ब्लॉक स्तर पर जाकर उसकी नब्ज भांपने वाले नेता थे वह। उनकी राजनीति सर्वसमावेशी और सदा न्यायी थी। हर जाति वर्ग में उनकी लोकप्रियता आसमान छूती थी। अगड़ा-पिछड़ा के नाम पर जब समाज को बांटने की राजनीति 80 और 90 के दशक में कुछ राजनीतिक दलों और कथित वैचारिक गिरोहों का एजेंडा बनी तो कल्याण सिंह जैसे कद्दावर नेता ने उसे आगे आकर थाम लिया और हिन्दुत्व को भारतीय राजनीति का केंद्रीय एजेंडा बनाया।

वह अकादमिक शैली में खंडवार अपने विषय की प्रस्तुति करते थे। एक-एक बिन्दु पर बारी-बारी से आकर तथ्य और तर्क के साथ बात कहते थे। गरीब और किसान की जिन्दगी उन्हें सबसे ज्यादा प्यारी थी क्योंकि वह खुद भी गरीबी और किसानी की मिट्टी से निकलकर सियासत की अनजान डगर पर स्थापित हुए थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक स्व.ओमप्रकाश जी ने उनके प्रारंभिक सामाजिक जीवन को खाद-पानी दिया था। पंडित दीनदयाल उपाध्याय से उनके आत्मिक लगाव ने उन्हें जनसंघ की राजनीतिक यात्रा का अनुगामी बनाया था। इसीलिए अपनी राजनीति का आधार तथाकथित पिछड़ावाद को न बनाकर एकात्ममानव वाद की राह पर वह जीवन भर चले और उनकी जीवन साधना को कथित अगड़ी और तथाकथित वंचित, दलित या पिछड़ी समेत सभी जातियों का उतना ही प्यार और आशीर्वाद मिला। वह जितने लोध-क्षत्रियों में लोकप्रिय थे, उससे कहीं ज्यादा उनकी लोकप्रियता ब्राह्मणों समेत अन्य जातियों में भी लहर पैदा करती थी। ऐसी जनप्रियता पाने वाला उत्तर प्रदेश की मिट्टी में जन्मा नेता शायद ही कोई दूसरा हो जिसे दिलोजान से जनता ने प्यार दिया हो।

उनके भीतर एक बेचैनी थी। एक तूफान सा था। वह तूफान सदैव उनकी आंखों से झांकता रहता था। गंगा के निर्मल प्रवाह जैसा उनका जीवन था जिसमें से करुणा, प्रेम, दया, ममता का पुष्प भी उगता था तो एक शिक्षक की तरह वह अपने अनुयायियों को अनुशासन की डोर में बांधे रखना भी बखूबी जानते थे। जो ठान लेते थे और मान लेते थे, फिर उस भाव धारा से उन्हें डिगा पाना असंभव हो जाता था।

वह सच्चे और अपने भीतर के परमात्मा से सीधे जुड़े इंसान थे, इसीलिए अक्सर भावुक भी हो जाते थे। बड़ी साफगोई और ईमानदारी से राजनीति के रास्ते पर बढ़े, इसलिए जब उनके पीछे अंदरूनी राजनीतिक साजिशें रची जाने लगीं और कुछ पत्रकार और जनता से कटे नेता इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे तो उनका गुस्सा फूट पड़ा। कुछ पत्रकारों की सियासत के साथ कुटिल मिलीभगत के कारण उनके धवल चरित्र पर लांछनों की बौछार की जाने लगी तो उनका मन बिलख उठा। जिस दल ने उन्हें नायकत्व के रास्ते पर आगे बढ़ाया, उसके शीर्ष पर भी कानाफूसी की जाने लगी। जिस उत्तर प्रदेश में जनसंघ और बीजेपी की राजनीति को उन्होंने अपनी जीवन तपस्या से बहुमत में परिवर्तित किया था, उस प्रदेश से हटाकर उन्हें केंद्र में ले जाने का प्रस्ताव उन्हें कुछ कारणों से स्वीकार नहीं हुआ। सियासत के कुटिल चक्रव्यूह में वह घिरते चले गए। उन्हें भीतर से संभालने वाला तब उनके पास शायद ही कोई रहा हो। उनके आहत मन ने उन्हें बागी बना दिया और उन्होंने कुछ समय के लिए रास्ता बदलना ही उचित समझा।

काश उस नाजुक वक्त में उन्हें किसी ने संभाल लिया होता। वह रास्ता उन्होंने न बदला होता तो संभवतः 2004 की सियासत के बाद भारतीय जनता पार्टी के भीतर से वह भारत के प्रधानमंत्री पद के लिए सर्वस्वीकृत उम्मीदवार के रूप में खड़े हुए होते। विश्व हिन्दू परिषद के वरिष्ठ नेता अशोक सिंहल जी ने एकबार मुझे बताया था कि उनके भारतीय जनता पार्टी छोड़कर जाने के फैसले ने उन्हें भी व्यथित कर दिया था। वह पार्टी में बने रहे होते तो 2004 के बाद बीजेपी की राजनीतिक बागडोर उनके कंधों पर आसानी से आ सकती थी क्योंकि वैचारिक मोर्चे पर उनकी कथनी और करनी को लेकर कभी संघ और संगठन के भीतर सवाल नहीं था। वह जनता के बीच में पले-बढ़े थे, उनकी राजनीति जनता की राजनीति थी, किन्तु वह संगठन की परंपरा को भी बखूबी समझते और उसका सम्मान कर चलते थे। वह सदैव कहते रहे कि संघ और बीजेपी के संस्कार उनके रक्त की बूंद-बूंद में हैं तो इसके पीछे उनके जीवन की जन और संगठन साधना बोलती थी।

ऐसे नेता का मिलना अब दुर्लभ है। बाबरी ध्वंस के बाद उनकी रैलियों में विशाल जनसैलाब उमड़ पड़ता था। पूरे भारत के सभी राजनीतिक नेताओं में वह सबसे ज्यादा भीड़ को आकर्षित करने वाले नेता बन चुके थे। उन्हें इस बात का कोई दुख नहीं था कि उनके शासन में बाबरी ढांचा ध्वस्त हो गया। वह अकेले ऐसे नेता थे जो दोगुने जोश और दोगुनी आवाज से नारा लगते हुए कहते थे कि धरती पर अनीति, अन्याय और पाप के निशान नहीं टिकेंगे जबकि नीति, न्याय और पुण्य की प्रतिष्ठा यह मिट्टी बार-बार उठ-उठकर करती रहेगी। बाबरी ध्वंस में उन्होंने आतंक के युग के अंत का अध्याय देखा और जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण प्रारंभ होने के समाचार ने उन्हें उनके जीवन का सबसे गहन सुख प्रदान किया मानो जिस काज के लिए उनका जन्म हुआ, उसे पूर्णकर वह अब सुख और शान्ति से जीवन की सद्गति की ओर बढ़ चले हों। इसीलिए वह जीवन भर कहते रहे कि पाप और जुल्म के निशान संसार से ऐसे ही विदा होने चाहिए जैसे उनके राज में बाबरी की विदाई हुई थी। उन्होंने कभी 6 दिसंबर की घटना को लेकर कोई दुख प्रकट नहीं किया जैसा कि एक होड़ भारतीय राजनीति से जुड़े कुछ कद्दावरों में पैदा हो गई थी। इसके विपरीत वह 6 दिसंबर को इतिहास चक्र का न्याय दिवस बताते थे और पूरी पीढ़ी को उन्होंने बताया कि 6 दिसंबर भारत भूमि का गौरव दिवस है, हमारे इतिहास के जगमगाते स्वर्ण दिवसों में एक जिसकी प्रतीक्षा पीढ़ियां सदियों से कर रही थीं।

कल्याण सिंह के होने का मतलब था। अन्याय और आतंक के पुतलों को सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि उनकी करनी का हिसाब आज नहीं तो कल होकर रहता है। इसके लिए परमात्मा कल्याण सिंह जैसे नर-रत्न भारतीय राजनीति के गर्भ से पैदा करते रहे हैं, पैदा करते रहेंगे।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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