ब्‍लॉगर

तंत्र में स्व को स्थापित करने का समय

– शिवकुमार विवेक

अमृत महोत्सव में स्वतंत्रता के संघर्ष और उसके सुफल की चर्चा की जा रही है। यह अवसर अंग्रेजों की तीन सौ साल से अधिक की दासता को याद करते हुए भारतीय स्वाधीनता की ललक को याद करने का है। ऐसी स्मृतियां हमारी चेतना की गवाही देती हैं और उसे जाग्रत रखने में सहायक होती हैं। इसके लुप्त या क्षीण होने पर ही पराधीनता या मूल्यों के अपहरण की नौबत आती है। क्या हम स्वतंत्रता के समारोह आयोजित करके ही अपनी स्वाधीनता को कायम रखने की शक्ति-सामर्थ्य पा जाएंगे?

असल में केवल स्वतंत्रता ही इसकी गारंटी नहीं है। निश्चित ही हमने स्वतंत्रता को जीवन की अनेक कठिनाइयां झेलकर पाया है। हमारी पीढ़ियों के बलिदान ने आज हमें अपनी हवा में सांस लेने और फलने-फूलने का अवसर उपलब्ध कराया है। इसलिए यह हमारे राष्ट्र जीवन की अमूल्य निधि और ऐतिहासिक उपलब्धि है। लेकिन यही राष्ट्रजीविता की कुंजी नहीं हो सकती। राष्ट्रजीवन ‘स्व’ का तंत्र स्थापित करने मात्र से संजीवनी नहीं पा जाता बल्कि उसके लिए ‘स्व’ की हर क्षेत्र में सत्ता और महत्ता की जरूरत है। चाहे वह मन का क्षेत्र हो या जीवन से जुड़े अन्य क्षेत्र जो सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक सभी हैं। इनमें स्व को अनुभूत, प्रयोगसिद्ध और प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है।

स्वतंत्रता का आंदोलन संपूर्ण ‘स्वबोध या स्वत्व’ को लेकर चला था। लेकिन धीरे-धीरे इसका संकेन्द्रण ‘स्व के शासन तंत्र’ पर हो गया। तत्कालीन परिस्थितियों में यह विचार भी गैरवाजिब नहीं था कि पहले हमें स्वयं का तंत्र स्थापित करना होगा, तदनंतर हम अन्य क्षेत्रों में स्वायत्तता अथवा स्वदेशी व्यवस्थाएं व विचार को प्रस्थापित कर सकेंगे। इसलिए कांग्रेस आंदोलन का पूरा एजेंडा विदेशी तंत्र को उखाड़ कर स्व-तंत्र लाने का रहा। क्रांतिकारी भी इसी दृष्टिकोण पर काम कर रहे थे। यद्यपि उनमें भी भगत सिंह जैसे लोग वैचारिक धरातल खोजने की पहल करते दिखते हैं। वैसे ही स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी स्वानुभूति, स्वत्व या स्व के समावेश के लिए सक्रिय दिखते हैं। कांग्रेस आंदोलन में वही एकमात्र व्यक्ति हैं जो स्व की चिंता को सर्वोपरि रखते हुए उसके लिए समांतर कोशिश करते हैं।

यद्यपि स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस और क्रांतिकारी धारा के अलावा एक समांतर धारा बराबर ऐसी चल रही थी जो इसी स्वत्व के प्रति काम कर रही थी। उसका विचार दूरगामी था। वह मानती थी कि सत्ता प्राप्त करने के लिए भारतीय स्वत्व को तो जगाना ही होगा, इसे चिरस्थायी करने के लिए भी स्वत्व को केन्द्र में रखना होगा। वरना सत्ता या स्वतंत्रता स्थायी नहीं हो सकती। इस धारा को स्वामी विवेकानंद, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जैसी विभूतियां बल देती रहीं। इन्हें अहसास था कि भारतीय गुलामी की बड़ी वजह हमारा स्व भूल जाना था। केवल व्यक्तिगत स्व ही नहीं, समष्टि का स्व, सामूहिकता का स्व, राष्ट्र का स्व। यह स्व भौगोलक सीमाओं के संरक्षण, राजनीतिक सत्ता के अधिकार और सामाजिक संस्थाओं में वर्चस्व से नहीं आ सकता, अपितु यह हमारे अपने मूल्यों, समाज की अंदरूनी शक्तियों और जीवन की अक्षुण्ण व कालजयी परंपराओं से आएगा।

चूंकि स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख राष्ट्रीय धारा ने सत्ता हस्तांतरण को प्रमुखता से केन्द्र में रखा इसलिए विडंबनापूर्ण ढंग से सत्ता मिलने पर सत्ता संचालन ही उसकी प्राथमिकता बन गया। आजादी के साढ़े सात दशक की समीक्षा करने पर हम यही पाते हैं कि यह पूरा कालखंड सत्ता संचालन की प्रविधियां तय करने का समय है। भौतिक विकास हुआ है लेकिन यह किसी भी सरकार के अस्तित्व की भी शर्त है। लेकिन क्या हमने समाज के स्वरूप को सुधारा, क्या हमने संस्कृति के विलुप्त हुए तत्वों को तलाशा, क्या हमने आत्माभिमान, आत्मगौरव और आत्मानुभूति कराने वाली शिक्षा व्यवस्था, मूल्य प्रणाली और प्रतिमानों को स्थापित किया? जब इस बारे में सोचते हैं तो निराशा होती है।

सरकार बदलने के साथ इसमें सुधार और संशोधन शुरू हुए हैं जो अच्छी बात है। इसकी जरूरत थी। लेकिन ऐसा करना ही पर्याप्त इसलिए नहीं है क्योंकि इन्हें कोई भी नई सरकार आने के बाद या पुरानी के वापस लौटने पर फिर इन्हें स्थगित कर सकती है या निरस्त कर सकती है। उनकी अपनी राजनीतिक बाध्यताएं हो सकती हैं, जैसा हमारा अनुभव है। इसलिए इतिहास बदलने, पाठ्यपुस्तकों में संशोधन करने, पुरानी मूर्तियां हटाकर नई बनाने और पुराने मूर्तिमानों को हटाकर नए प्रतिमान रख देने भर से काम नहीं चलेगा। आत्मबोध के लिए दीर्घकालिक और स्थायी किस्म का काम करना होगा। जिसके मामले में बहुत काम करने की जरूरत है और यह काम सरकारें कम, समाज ज्यादा कर सकता है।

हमें यह शिकायत है कि हमारी नई पीढ़ी को आजादी के मूल्य, हमारे समाज की मूल्य परंपरा और राष्ट्रीय गौरव जैसी चीजों से बहुत लेना-देना नहीं है। भाषा के मामले में यह शिकायत ज्यादा गंभीर है। जबकि भाषा हमारी पूरी सांस्कृतिकता को अभिव्यक्त करती है। वह विरासत से जोड़ती है। उसे समझने में सहायक होती है। अपनी भाषा को न समझना एक बात है, जिसे समझाया जा सकता है लेकिन समझने की कोशिश न करना या उसकी जरूरत ही महसूस न करना दूसरी बात है। यह दूसरी बात इसलिए खटकती है कि हमें देशवासियों से संवाद की भाषा की जरूरत महसूस नहीं होती या संवाद-सेतु की अब आवश्यकता नहीं लगती। हमारी अपनी पूंजी लुट रही है और हम उधार की पूंजी से खुश हो रहे हैं। भाषा जैसा हाल हर क्षेत्र में हो रहा है। जब हम अपनी चीज खोकर दूसरे को अपनाते हैं तो हमारे पास अपना कुछ नहीं होता। और अपना कुछ नहीं होने से, जिसे हम अपना स्वत्व कहते हैं, हमारी वैश्विक जगत में क्या पहचान है-यह सोचने का विषय है।

नई पीढ़ी से यदि इस बारे में शिकायत है तो इसके लिए असल में तो हम यानी हमारा समाज ही जिम्मेदार है। इतिहास के बारे में भी यही बात है। हम शिकायत करते हैं कि अंग्रेजों या काले निहित स्वार्थी अंग्रेजों का तैयार किया हुआ सिलेक्टिव इतिहास पढ़ाकर हमारी कई पीढ़ियों को आत्मगौरव और हमारे समाज की अंतर्निहित शक्ति-सामर्थ्य-गौरव के भान से वंचित कर दिया गया। तो इसके लिए समाज भी उतना ही जिम्मेदार है। उसके पास ऐसी संस्थाएं, लोग और उपकरण नहीं थे जो इस काम को कर सकें। अगर ये होते तो शायद सरकारों को भी सही राह पर रखने की कोशिश कारगर होती।

स्वतंत्रता संग्राम की हीरक जयंती स्व बोध, स्व की अनुभूति, स्व के गौरव और स्व के अभिमान की बात करने का समय है। यह स्व ही हमें एक राष्ट्र के रूप में पहचान देगा। आज विदेश जाने वाले बच्चों से वहां जब लोग अपने बारे में पूछते हैं तो अक्सर वे निरुत्तर हो जाते हैं। कुछ अभिभावकों की यह शिकायत हमारी उसी कमी को इंगित करती है। भारत के पास राष्ट्र के रूप में गर्व करने के लिए दुनिया में सबसे ज्यादा धरोहरें हैं। ज्ञान के मामले में हमने पांच हजार साल से गहरे अनुसंधान किए। चार-पांच सभ्यताओं को छोड़कर सभी अपेक्षाकृत नई और परवर्ती हैं। वैयक्तिक उत्थान के मामले में भारत के बराबर आज भी किसी के पास ज्ञान भंडार नहीं है। विश्व के विकसित देशों के विद्वानों ने यहां आकर अपनी जिज्ञासाएं और ज्ञान की भूख शांत की और शेष विश्व को बताया।

प्राचीन परंपराओं और समाज के अध्ययन से पता चलता है कि हमने रंगकर्म, व्याकरण, पुराविज्ञान, चिकित्सा, शिक्षा प्रणाली जैसे तमाम क्षेत्रों में आविष्कार और कतिपय सिद्धांतों का निर्माण किया। लेकिन हमें पराभव याद है, उद्भव और विकास की कहानी नहीं। यह पराभव हमें फिर पराभव ही दे सकता है, जबकि जिजीविषा की कहानियां दुनिया में सिर उठाने का माद्दा देंगी। इसलिए हमें यदि दीर्घजीवी समाज के रूप में जिंदा रहना है और वैश्विक पहचान रखनी है तो अपने स्व को जानना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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