भोपाल न्यूज़ (Bhopal News)

जि़न्दगी के नाटक से बहुत जल्द एग्जि़ट ले ली मसखरी देबू ने

हंस रहा था मैं बहुत गो वक्त वो रोने का था
सख्त कितना मरहला तुझ से जुदा होने का था।

पिछले महीने की 17 तारीख को भोपाल के रंगकर्मी रमेश अहीरे की मर्ग-ए-नागहानी (आकस्मिक मौत) के ग़म को भोपाल के आर्ट और कल्चर के लोग अभी भूले भी न थे कि एक और थियेटर आर्टिस्ट देबार्थी मजूमदार उर्फ देबू के इंतक़ाल की खबर सब को बहुत गमगीन और मायूस कर गई। देबू निहायत जिंदादिल, मज़ाहिया और हर हाल में जि़न्दगी को खुश-ओ-खुर्रम अंदाज़ में जीने जीने वाली फऩकार थी। काफी भारीभरकम और पस्ताकद देबू ने दो रोज़ पहले दिल्ली में फानी दुनिया को अलविदा कह दिया। महज 38 बरस की उम्र में इस बेहतरीन थियेटर आर्टिस का यूं बिछड़ जाना रंग जगत को बेरंग कर गया। देबू दरअसल सहाफी (पत्रकार) बनने की हसरत लिए 2008 में कोलकाता से भोपाल की माखनलाल यूनिवर्सिटी में पढऩे आई थी। यहां मॉस कम्युनिकेशन में पीजी की पढ़ाई के दौरान ही उसे लगा कि उसकी मंजि़ल सहाफत न होके थियेटर है। लिहाज़ा वो पहले आलोक चटर्जी के ग्रुप ‘दोस्त’ से जुड़ी और बाद में बंसी कौल के ‘रंग विदूषक’ से बावस्ता हो गई। बंसी दा के कई नाटकों में उसने जानदार किरदार निभाए। दादा के मशहूर नाटक सीढ़ी दर सीढ़ी उर्फ तुक्के पे तुक्का में देबू ने मसखरे का लपक किरदार निभाया।



ये पेली बार था जब इस प्ले में मसखरे के मेल कैरेक्टर को किसी ख़ातून ने निभाया हो। अपनी भारी भरकम जिसामत के बावजूद उसने कठिन बॉडी मूवमेंट वाले इस किरदार को बेहतरीन अंदाज़ में निभाया था। रंग विदूषक के नाटक कहन कबीर और सौदागर में भी देबू के काम की तारीफ़ हुई। वो ये तय कर चुकी थी कि अब थियेटर ही उसकी रोज़ी रोटी रहेगी, लिहाज़ा उसने एनएसडी से एक्टिंग में डिप्लोमा भी कर लिया। विदूषक परिवार के आर्टिस्ट प्रकाश सिंह से देबू ने शादी की और ये जोड़ा मुम्बई में अपने ख्वाब पूरे करने चला गया। प्रकाश वहां कई फिल्मों के लिए आर्ट डायरेक्शन का काम कर रहे थे। वहीं देबू किसी एक्टिंग स्कूल में पढ़ाने के साथ ही फ्रीलांस थियेटर भी कर रही थी। मुम्बई मायानगरी में पैर जमाने के लिए दोनो जद्दोजहद कर रहे थे। उनके साथी संजय श्रीवास्तव बताते हैं कि देबू रविंद्र संगीत की अच्छी गायिका भी थी। बोलने, लिखने पढऩे और खाने का उसे बहुत शौक था। वो साथी कलाकारों का बहुत सहयोग करती थी। उसके चेहरे पे परमानेंट मुस्कुराहट रहती। अपनी हाजिऱ जवाबी और मज़ाहिया अख़लाक़ से वो महफि़ल में जान डाल देती। प्रकाश और देबू के मुम्बई शिफ्ट होने से उम्मीद जगी थी वो बहुत जल्द फि़ल्म और थियेटर में नाम कमाएगी। इसी हफ्ते वो दो नाटकों के मंचन के लिए दिल्ली पहुंची थी। दिल्ली में ही उसके दिल की धड़कन रुक गई… और इसके साथ ही सारे सपने बिखर गए। अरे मसखरे ने ये क्या किया…जि़न्दगी के नाटक से इत्ती जल्दी एग्जि़ट ले ली। ये तो गलत बात है…अभी तो जि़न्दगी की स्क्रिप्ट के कई पन्ने बाकी थे…।

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