ब्‍लॉगर

अफगानिस्तान में विश्व समुदाय की असफलता

– डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

अफगानिस्तान में बीस वर्षों की कवायद के बाद भी विश्व समुदाय समस्या के मूल को समझ नहीं सका। पाकिस्तान में शुरू से आतंकी तत्वों व संगठनों को संरक्षण व संवर्धन मिलता रहा है। इसी मानसिकता के लोग भारत विभाजन विभीषिका के जिम्मेदार थे। नाम व नेतृत्व बदलते रहे। लेकिन विचारधारा में कोई अंतर नहीं रहा। पाकिस्तान पर आतंकी मुल्क होने के कई बार आरोप लगते रहे लेकिन विश्व समुदाय ने उसपर नकेल कसने के प्रयास नहीं किया।

अमेरिका के सैनिक बीस वर्षों तक अफगानिस्तान में रहे, लेकिन आतंकी समस्या का समाधान नहीं हुआ। इसी अवधि में पाकिस्तान की सहायता से तालिबान की ट्रेनिंग चलती रही। उनको हथियार उपलब्ध होते रहे। इसके लिए पाकिस्तान पर कार्रवाई की आवश्यकता थी। लेकिन विश्व समुदाय ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। तालिबान यहां ताकत बढ़ता रहा। अमेरिका के हटते ही उसने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया। जब अफगानिस्तान में अलकायदा कमजोर हुआ तो उसकी जगह तालिबान आ गया। भविष्य में इसकी जगह कोई अन्य संगठन आ सकता है। पाकिस्तान व अफगानिस्तान में ही दर्जनों आतंकी संगठन सक्रिय हैं।

वस्तुतः यह सभी आतंकी विचारधारा की स्वभाविक उत्पत्ति हैं। अफगानिस्तान में आज की स्थिति कोई नई नहीं है। इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े है। भारत विभाजन के समय भी ऐसा ही मंजर था। तब ट्रेन व बसों की जो दशा आज तस्वीरों में दिखाई देती है, वही स्थिति आज काबुल में हवाई जहाजों की है। इसके पहले हवाई जहाज पर ऐसी भीड़ कभी देखी नहीं गई। अनुमान लगाया जा सकता है कि वहां किस प्रकार लोग तालिबानी आतंक से भयभीत हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विभाजन विभीषिका पर जो कहा,व ह बात आज के अफगानिस्तान पर लागू होती है। नरेंद्र मोदी ने कहा कि अब से चौदह अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के तौर पर याद किया जाएगा। देश के बंटवारे के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता। नफरत और हिंसा की वजह से हमारे लाखों बहनों और भाइयों को विस्थापित होना पड़ा और अपनी जान तक गंवानी पड़ी। उन लोगों के संघर्ष और बलिदान की याद में चौदह अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मानने का निर्णय लिया गया है। यह दिन हमें भेदभाव, वैमनस्य और दुर्भावना के जहर को खत्म करने के लिए न केवल प्रेरित करेगा। इससे एकता, सामाजिक सद्भाव और मानवीय संवेदनाएं भी मजबूत होंगी।

अफगानिस्तान में करीब दो दशक पहले भी तालिबानी शासन की स्थापना हुई थी। यह आतंकवादी शासन व्यवस्था थी। अमेरिका पर आतंकी हमला करना तालिबान पर भारी पड़ा। अमेरिका ने इस हमले का बदला लिया। नाटो देशों के साथ उसने अफगानिस्तान पर हमला किया था। इससे तालिबानी शासन का अंत हुआ। अमेरिका के सैनिक जबतक वहां रहे, काम चलाऊ संवैधानिक सरकार चलती रही। नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाईडेन ने सैनिकों को वापस बुलाने का निर्णय लिया। तालिबान के लिए यह निर्णय वरदान साबित हुआ। उन्हें ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा। अफगानिस्तान के सैनिक अमेरिका पर निर्भर थे। उनके लौटने के बाद वह निराधार हो गए। तालिबानों का कब्जा होता गया। वहां के राष्ट्र्पति भी पलायन कर गए।

तालिबान कह रहे है कि लोगों को डरने की जरूरत नहीं है। उन्होंने लोगों को आम माफी दी है। लेकिन तालिबान के आतंकी विचार को देखते हुए कोई उन पर विश्वास करने को तैयार नहीं है। पूरे अफगानिस्तान में भगदड़ और अराजकता व्याप्त है। लोग अपना घर जमीन छोड़कर पड़ोसी मुल्कों में भागने का प्रयास कर रहे है। अफगानिस्तान से रूसी सैनिकों की वापसी के बाद तालिबान ने अफगानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू किया था। इसकी शुरुआत उत्तरी पाकिस्तान में हुई थी। पाकिस्तान ही उनको हथियार उपलब्ध करा रहा है। सऊदी अरब से भी इनको आर्थिक सहायता मिलती रही है। इसके अलावा अमेरिका से पाकिस्तान को जो सहायता मिल रही थी, उसका उपयोग तालिबान जैसे संगठनों को मजबूत बनाने में हो रहा था।

तालिबान इस्लामी धार्मिक शिक्षा के छात्र रहे हैं। वहीं से इनको प्रेरणा मिलती रही है। पाकिस्तान के कट्टर सुन्नी इस्लामी विद्वानों ने धार्मिक संस्थाओं के सहयोग से पाकिस्तान में इनको शिक्षित व प्रशिक्षित किया। इसपर देवबंदी विचारधारा का पूरा प्रभाव है। नब्बे के दशक में अफगानिस्तान पर रूस का प्रभाव था। वहां के तत्कालीन राष्ट्रपति रूस के कृपापात्र थे। अमेरिका ने रूस के हस्तक्षेप को समाप्त करने के लिए तालिबान को आगे बढ़ाया था। लेकिन जब इस्लामी आतंकियों ने अमेरिका पर हमला किया, तब उसकी आंख खुली। उसने अफगानिस्तान से तालिबान शासन को समाप्त करने के लिए हमला किया। इसमें सफलता मिली। किंतु पाकिस्तान से लगने वाली सीमा व अन्य कबाइली इलाकों से तालिबान को समाप्त करने में अमेरिका सफल नहीं हुआ। पाकिस्तान उन्हें संरक्षण देता रहा। जबकि इसके शीर्ष नेता मुल्ला उमर और फिर मुल्ला मुख्तर मंसूर की अमेरिकी ड्रोन हमले में मारे गए थे। लेकिन तालिबान इससे कमजोर नहीं हुए। हिब्तुल्लाह अखुंजादा की कमांड में उनकी गतिविधियां चलती रही।

पाकिस्तान की सेना और आईएसआई की सहायता से तालिबान मजबूत होता गया। दो वर्ष पूर्व अमेरिका ने तालिबान से शांति वार्ता शुरू की और दोहा में कई राउंड की बातचीत भी हुई। तालिबान वार्ता में शामिल हुए। लेकिन उसने अपनी हिंसक तैयारियों में कमी नहीं की। कई क्षेत्रों में वह कब्जा भी जमा रहा था। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने इस वर्ष सितंबर तक अमेरिकी सैनिकों की पूरी तरह से वापसी का ऐलान किया था। अगस्त में ही इसका असर दिखाई देने लगा। अफगानिस्तान के सैनिक पीछे हटते गए और तालिबान अफगानिस्तान पर कब्जा जमाता गया।

अफगानिस्तान में पिछले शासन के दौरान तालिबान ने पूरे देश में शरिया कानून लागू किया था। उल्लंघन करने वालों को इसी कानून के अनुरूप सार्वजनिक सजा दी जाती है। बामियान में बुद्ध की ऐतिहासिक मूर्ति का विध्वंस कर दिया था। पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई ने इस आतंकी शासन को मान्यता दी थी। अब तालिबान शासन अधिक देशों से मान्यता प्राप्त करना चाहता है। उसके आम माफी व महिलाओं के संबन्ध में दिया गया बयान इसी रणनीति का हिस्सा है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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