– विकास सक्सेना
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में शर्मनाक प्रदर्शन के बाद पहली बार सार्वजनिक मंच से बोलते हुए कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने हार का ठीकरा बसपा सुप्रीमो मायावती के सिर फोड़ने की कोशिश की है। एक पुस्तक के विमोचन कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि केंद्रीय जांच एजेंसियों के डर से बसपा नेत्री ने भाजपा के सामने समर्पण कर दिया। हालांकि मायावती ने उनके बयान पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्हें बसपा के बारे में झूठ न बोलने की सख्त हिदायत दी। अपने बेतुके और तथ्यहीन बयानों के लिए कुख्यात राहुल गांधी ने कांग्रेस की दयनीय स्थिति में सुधार के लिए उसकी नीति, रीति और नेतृत्व की कमियों पर आत्ममंथन करने के बजाए दूसरे दलों पर मनगढ़ंत आरोप लगाकर एक बार फिर अपनी फजीहत कराई है।
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश की सत्ता में भाजपा की वापसी का ठीकरा बसपा सुप्रीमो मायावती के सिर फोड़ते हुए दावा किया कि भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस, बसपा से गठबंधन करना चाहती थी। इसके लिए मायावती को मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव भी दिया गया था लेकिन प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग और सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेंसियों के डर की वजह से मायावती ने उनके प्रस्ताव पर गौर नहीं किया। राजनीति की मामूली जानकारी रखने वाला भी अच्छी तरह जानता है कि अगर बसपा और कांग्रेस के बीच चुनावी समझौता होता तो मुख्यमंत्री पद की स्वभाविक दावेदार मायावती ही होतीं।
अगर राहुल गांधी की बातों में जरा भी सच्चाई है तो विचारणीय प्रश्न यह है कि आखिर बसपा ने कांग्रेस से समझौता क्यों नहीं किया। इस सवाल का जवाब कांग्रेस को अपने चुनावी प्रदर्शन में खोजना चाहिए। विधानसभा चुनाव 2017 में कांग्रेस ने सपा के साथ मिलकर चुनाव मैदान में ताल ठोंकी इसके बावजूद भाजपा तीन चौथाई से ज्यादा सीटें जीतकर प्रदेेश की सत्ता पर काबिज हो गई। लोकसभा चुनाव 2019 में राहुल गांधी खुद अपने परिवार की परम्परागत अमेठी सीट से चुनाव हार गए। पश्चिम बंगाल में सीपीएम और फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दिकी के इंडियन सेक्यूलर फ्रंट से समझौता करने के बावजूद शून्य पर सिमटी कांग्रेस पार्टी को कोई भी राजनैतिक दल भला क्यों महत्व देगा, इस पर राहुल गांधी को गंभीरता से विचार करना चाहिए। राहुल गांधी के बयान को सिरे से खारिज करते हुए मायावती ने इसे बसपा को बदनाम करने की साजिश करार दिया है।
राजनैतिक विश्लेषकों में यह धारणा पुष्ट होती जा रही है कि सियासी फायदे के लिए झूठ बोलना कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की आदत में शुमार होता जा रहा है। पिछले कार्यकाल में मोदी सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान उन्होंने सरकार पर राफेल विमानों की खरीद में घोटाले के आरोप लगाए थे। उन्होंने कहा कि संप्रग सरकार जिन विमानों को महज 520 करोड़ रूपये में खरीद रही थी, उसे मोदी सरकार ने 1600 करोड़ रूपये में खरीदा है। देश की कूटनीति और अन्तरराष्ट्रीय संबंधों की परवाह किए बिना उन्होंने फ्रांस के राष्ट्रपति से बातचीत का हवाला देते हुए दावा किया कि राफेल विमान सौदे में गोपनीयता की शर्त नहीं है। सरकार इस रक्षा सौदे में हुए घोटाले को छिपाने के लिए इन विमानों की कीमत बताने से कतरा रही है। लेकिन राहुल गांधी के भाषण के दो घंटे के भीतर ही फ्रांस की सरकार को बयान जारी करके सफाई देनी पड़ी कि राहुल गांधी का बयान गलत है। राफेल सौदे में गोपनीयता की शर्त है और यह शर्त यूपीए सरकार के समय हुए समझौते से ही शामिल है।
राफेल विमान खरीद को लेकर बोले गए अपने झूठ को स्थापित करने के लिए उन्होंने संवेदनहीनता की सारी सीमाएं लांघ दी थीं। वह 29 जनवरी 2019 को अचानक पूर्व रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर से मिलने पहुंच गए। इस मुलाकात के बाद उन्होंने कहा कि पर्रिकर ने उनसे कहा कि बतौर रक्षामंत्री राफेल सौदे से उनका कोई लेना-देना नहीं था। पल-पल मौत की तरफ बढ़ रहे मनोहर पर्रिकर उनके बयान से भौंचक रह गए थे। उन्होेंने पत्र लिखकर राहुल गांधी के बयान पर आपत्ति जताते हुए कहा कि पांच मिनट की भेंट में राफेल का जिक्र तक नहीं हुआ। उनके झूठ से आहत पर्रिकर ने यहां तक कहा कि मेरे लिए ये अत्यंत निराशाजनक और आहत करने वाली बात है कि मेरे स्वास्थ्य का हाल जानने के बहाने आपने अपने क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों को पूरा करने का काम किया है। मैं इसकी कल्पना भी नहीं कर पा रहा हूं। गौरतलब है कि बीमारी से जूझते हुए मनोहर पर्रिकर का 17 मार्च 2019 को यानी राहुल गांधी से मुलाकात के लगभग डेढ़ माह बाद निधन हो गया था।
भाजपा और संघ को घेरने के लिए नए नए पैंतरे आजमाने वाले राहुल गांधी ने इसी कार्यक्रम में वर्तमान सरकार को संविधान और संस्थाओं के लिए खतरा बताया। संविधान और संस्थाओं की दुहाई देते समय वह भूल गए कि वर्ष 1976 में जब देश में आपातकाल लगा हुआ था उस समय संसद में बहस के बिना ही संविधान की प्रस्तावना को बदलने का काम कांग्रेस ने किया था। इसी तरह जब उच्चतम न्यायालय ने सीबीआई को पिंजड़े का तोता कहा था उस समय देश में कांग्रेस के नेतृत्व में संप्रग की ही सरकार थी। संवैधानिक संस्थाओं का राहुल गांधी कितना सम्मान करते हैं इसे दागी जनप्रतिनिधियों को बचाने के लिए लाए गए मनमोहन सिंह सरकार के अध्यादेश के संदर्भ से आसानी समझा जा सकता है।
भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी संप्रग सरकार इस अध्यादेश के खिलाफ बन रहे देशव्यापी माहौल के कारण भारी दबाव में थी। अध्यादेश वापसी का श्रेय लेने के लिए राहुल गांधी ने इसके बचाव में की जा रही कांग्रेस की एक पत्रकार वार्ता में अचानक पहुंचकर ‘एंग्री यंग मैन’ की तरह कहा कि यह अध्यादेश बकवास है, इसे फाड़कर कूड़े के डिब्बे में फेंक देना चाहिए। अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री और उनकी केबिनेट से पारित अध्यादेश पर राहुल गांधी की प्रतिक्रिया से संस्थाओं के प्रति उनके सम्मान के भाव को आसानी से समझा जा सकता है। हालांकि राहुल गांधी की ‘भावनाओं’ की कद्र करते हुए सरकार ने यह अध्यादेश वापस ले लिया जबकि उस समय वह एक संसद सदस्य मात्र ही थे।
देश में लोकतंत्र की मजबूती के लिए जिम्मेदार विपक्ष का होना अनिवार्य है। राजनैतिक इतिहास के सबसे खराब दौर में भी कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव 2019 में तकरीबन 12 करोड़ वोट हासिल किए। लेकिन यह देश का दुर्भाग्य है कि देश में सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस के सबसे प्रभावशाली नेता संघर्ष और जनांदोलनों के बजाए झूठ और प्रपंच के सहारे सत्ता के शिखर पर पहुंचने की कोशिश में जुटे हुए हैं। दूसरे दलों के नेता ही नहीं उनके अपने दल के नेता भी उनकी कार्य प्रणाली से असंतुष्ट हैं इसीलिए ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह समेत अनेक युवा कांग्रेसी उनका साथ छोड़ चुके हैं और असंतुष्ट कांग्रेसी नेताओं की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
राहुल गांधी को समझना चाहिए कि राजनेता की सबसे बड़ी पूंजी उसकी विश्वसनीयता ही होती है। लेकिन वह अपने बेतुके, तथ्यहीन और झूठे बयानों से लगातार इस पूंजी को गंवा रहे हैं। जन विश्वास में कमी के कारण ही कांग्रेस का जनाधार तेजी से घट रहा है। घटती लोकप्रियता के कारण राहुल गांधी की चुनावी सभाएं उनके प्रत्याशियों को लाभ नहीं पहुंचा पा रही हैं, यहां तक कि वह अपना चुनाव भी हार चुके हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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