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काशी में गंगा का जल हरा हो गया

गिरीश्वर मिश्र
दो दिन हुए टीवी पर सूचना मिली कि काशी में गंगा का जल हरा हो गया है। प्रदूषण खतरनाक स्तर पर है और उस जल का स्पर्श, स्नान, और पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकर होने से वर्जित कर दिया गया। युगों-युगों से काशी और वहां गंगा पर उपस्थिति दोनों मिलकर भारत के गौरव की श्री वृद्धि करते आये हैं। पुण्यतोया गंगा के महत्त्व को पहचान कर ‘नमामि गंगे’ परियोजना भी कई हजार करोड़ की लागत से शुरू हुई। इन सबके बावजूद वाराणसी शहर के पास हर तरह के प्रदूषण की वृद्धि ने गंगा को बड़ी क्षति पहुंचाई है। गंगा के प्रवाह को प्रदूषण मुक्त कर स्वच्छ बनाना राष्ट्रीय कर्तव्य है। गंगा-प्रदूषण की मात्रा में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है और इसके लिए तत्काल प्रभावी कदम उठाना चाहिए।
गंगा भारतीय संस्कृति की जीवित स्मृति है जो युगों-युगों से भौतिक जीवन को संभालने के साथ आध्यात्मिक जीवन को भी रससिक्त करती आ रही है। हिमालय से चलकर तमाम नदियों का जल समेटते हुए बंगाल की खाड़ी से होते हुए समुद्र तक पहुँचने की भौगोलिक यात्रा एक तथ्य है परन्तु लोक मानस में गंगा नदी से ज्यादा एक मान, पापनाशिनी और मोक्षदायिनी जाने कितने रूपों में बसी हुई है। गंगा-स्नान की लालसा सबको गंगा की और लौटने के लिए आमंत्रित और उन्मथित करती रहती है। गंगा नाम लेना और उनका दर्शन मन को पवित्र करता है। गंगा जल लोग आदर से घर ले जाते हैं और प्रेमपूर्वक सहेज कर रखते हैं।
गंगा भारत की सनातन संस्कृति का अविरल प्रवाह है और साक्षी है उसकी जीवन्तता का। कहते हैं भागीरथ ने बड़े श्रम से गंगा को धरती पर अवतरित किया था इसीलिए वह ‘भागीरथी’ भी कहलाती हैं। कथा के अनुसार राजा सगर के वंशज भगीरथ ने बड़ा तप किया तब कहीं भगवान विष्णु के चरणों से बिंदु-बिदु निकलीं जिसे ब्रह्मा ने झट से अपने कमंडलु में रख लिया। ब्रह्मा को भी भगीरथ ने तप से प्रसन्न किया और तब गंगा का प्रवाह निकला जिसे भगवान शिव ने अपनी जटा में धारण कर लिया। भागीरथ ने फिर तप किया और तब जाकर गंगा का पृथ्वी पर अवतरण हुआ।
गंगा प्रतीक है शुभ्रता का, पवित्रता का, ऊष्मा का, स्वास्थ्य और कल्याण का। भौगोलिक रूप से मध्य हिमालय के अन्दर ऊंचाई पर स्थित कई ग्लेशियरों से जल उपलब्ध होता है। फिर वह गोमुख में एकत्र होता है और वहां से आगे की यात्रा पर निकलता है। आगे चलकर वनों से होते हुए कई प्रवाह समेट कर भागीरथी प्रकट होती है। इसी में केदारनाथ में मंदाकिनी मिलती है जो फिर अलकनंदा से देवप्रयाग में मिलती है। ऋषीकेश से होकर भागीरथी हरद्वार पहुंचती है और फिर गंगा का रूप लेती है। आगे राम गंगा, यमुना से मिलती है। प्रयाग में संगम है जहां गंगा तट पर प्रतिवर्ष विश्व का अद्भुत मेला लगता है। बारह वर्ष पर कुम्भ होता है। फिर गंगा प्रसिद्ध शिव नगरी काशी पहुंचती है जिसे वाराणसी भी कहते हैं। यह अत्यंत प्राचीन नगर अर्धचन्द्र की तरह गंगा से घिरा है। मानों शिव अपने कपाल पर अर्धचन्द्र धारण किये हों। यहाँ से आगे चलकर गंगा घाघरा, सोन, गंडक, वागमती, कोशी तीस्ता आदि नदियों से मिलती है। इसकी दो धाराएं भी बनती हैं- हुबली और पद्मा। हुबली कोलकाता होकर गंगा सागर में बंगाल की खाड़ी में मिलकर समुद्र तक यात्रा पूरी होती है।
गंगा ने राजनैतिक इतिहास के उतार-चढ़ाव भी देखे हैं। इसके तट पर तपस्वी, साधु-संत बसते रहे हैं और आध्यात्म की साधना भी होती आ रही है। गंगा के निकट साल भर उत्सव की झड़ी लगी रहती है। मान गंगा दुःख और पीड़ा में सांत्वना देने का काम करती है। जीवन और मरण दोनों से जुड़ी है। पतित पावनी गंगा मृत्यु लोक में जीवन दायिनी मां है। गंगा का नाम लेकर उनका आवाहन कर जिस जल का स्पर्श करते हैं वह भी गंगा भाव से भर उठता है। पर गंगा की कृपा से निकटवर्ती क्षेत्र में खेती भी उपजाऊ है। कभी गंगा में जल मार्ग से व्यापार भी होता था जिसकी ओर फिर ध्यान दिया जा रहा है। इन सबके बावजूद नगरों का सारा कचरा और उद्योगों के दूषित सामग्री के अनियंत्रित मेल से गंगा अनेक स्थानों पर विषाक्त सी हो रही है। यह खतरे का संकेत है।
आज मनुष्य भूल गया है कि वह धरती का सहजीवी है स्वामी नहीं है। उसने धरती, हवा, पानी सब पर अधिकार जमा लिया है। जीवन के विकास की कथा की मानें तो मनुष्य ने धरती, पशु, वनस्पति, खनिज पदार्थ आदि प्रकृति के विभिन्न अवयवों पर कब्जा कर अपने उपनिवेश का विस्तार किया और प्रकृति की जीवन-संहिता का उल्लंघन करना शुरू किया। मनुष्य ने प्रकृति के साथ द्रोह की जो ठानी उसके दुष्परिणाम आ रहे हैं और वे हमें चेताते हैं कि संभल जाओ पर अहंकार और आलस्य में हम उन संकेतों की उपेक्षा करते रहते हैं। मनुष्य केन्द्रित दृष्टि में शेष जगत उपभोग की वस्तु हो जाता है और फिर हम उसका अंधाधुंध शोषण करते हैं जो जीवन की कीमत पर होता है। हमारी भोगवादी विकास दृष्टि ने भागीरथी और गंगा का दोहन, शोषण और प्रदूषण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। गंगा की जीवनी शक्ति पर लगातार प्रहार हो रहे हैं।
गंगा जीवन का प्रतीक है और भारत की सांस्कृतिक पहचान बनाने में उसकी प्रमुख भूमिका है। काशी ही नहीं अनेक तीर्थ गंगा से ही अपनी तेजस्विता ग्रहण करते हैं। कभी रीति काल के प्रमुख कवि पद्माकर ने कहा था: छेम की लहर, गंगा रावरी लहर ; कलिकाल को कहर, जम जाल को जहर है। अब स्थिति ऎसी पल्टा खा रही है कि गंगा का स्वयं का क्षेम की खतरे में है। काशी प्रधानमंत्री जी का क्षेत्र है और काशी में गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का तत्काल यत्न जरूरी है। गंगाविहीन देश भारत देश कहलाने का अधिकार खो बैठेगा।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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