ब्‍लॉगर

तुर्की और पाकिस्तान ही इसराइल के विरुद्ध हमलावर

 

डॉ. प्रभात ओझा

ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन यानी ओआईसी की 16 मई की आपात बैठक से कुछ बड़े और आक्रामक फैसले की उम्मीद बेमानी थी। इजराइल-फिलिस्तीन मामले में तुर्की और पाकिस्तान को छोड़ अधिकतर देशों के सुर आम तौर पर इजराइल के प्रति नरम ही रहे हैं। नई आपात बैठक में भी ऐसा ही होगा, इस बात पर शक की गुंजाइश रखने वालों को ओआईसी के ढांचे पर नजर डालनी चाहिए। इस संगठन में कुल 57 इस्लामिक देश शामिल हैं। ऐसा जरूरी नहीं कि ये सभी किसी अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर एक स्वर में बोलते हों। खुद तुर्की जो यरुशलम में दुनिया के तीसरे सबसे पवित्र इस्लामिक स्थल मस्जिद-ए-अक्सा की तरफ बढ़ते हाथों को तोड़ देने की बात करता है, उसने भी कभी इजराइल से अपने राजनीतिक रिश्ते खत्म नहीं किए। वैसे 2017 के बाद से तुर्की और इसराइल ने एक-दूसरे के यहां राजदूत नियुक्त नहीं किए हैं। जहां तक ओआईसी का अपना आंतरिक मामला है, वहां ईरान, सऊदी और तुर्की के बीच विवाद बने ही रहते हैं। इनकी मध्य-पू्र्व में विदेश नीति बिल्कुल अलग है। कश्मीर मामले में पाकिस्तान भी ओआईसी से निराश ही रहा है।  


फिलहाल तुर्की और पाकिस्तान ही इसराइल के विरुद्ध हमलावर रुख बनाये हुए हैं। पूरे ओआईसी को ये अपने अनुकूल कर सकेंगे, इसकी कभी उम्मीद नहीं की गयी। कारण भी साफ है कि ओआईसी को सऊदी अरब के प्रभाव में माना जाता है और इसमें तुर्की व पाकिस्तान बेअसर से ही हैं। मुसलिम देशों के इस संगठन में यहीं पर एकराय नहीं दिखती कि सऊदी अरब दो अन्य देशों तुर्की और पाकिस्तान की तरह इसराइल पर आक्रामक रुख नहीं दिखाता। एक तरफ जहां संगठन के तौर पर ओआईसी इसराइल को मान्यता नहीं देता, वहीं पिछले साल इस संगठन के चार सदस्य देशों, यूएई, बहरीन, सूडान और मोरक्को ने इसराइल से औपचारिक रिश्ते कायम किए। इन देशों ने इसराइल के साथ ‘अब्राहम एकॉर्ड्स’ के नाम से मशहूर समझौतों पर दस्तखत किए हैं। इन अरब देशों ने सुरक्षा के मामलों में गोपनीय सूचनाओं तक के आदान-प्रदान पर सहमति जताई है। ध्यान देना होगा कि ऐसे समझौतों के कुछ ही हफ्तों के भीतर इसराइल की गुप्तचर सेवा ‘मोसाद’ के प्रमुख ने खाड़ी के कुछ देशों की यात्रा की थी। तब संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन जैसे देशों ने अपने यहां लोगों को इसराइल के साथ रिश्ते सामान्य बनाने के लाभ गिनाये थे। बताया गया कि इजराइल के साथ होने से कारोबार, पर्यटन, मेडिकल रिसर्च, ग्रीन इकोनॉमिक्स जैसे क्षेत्रों और वैज्ञानिक विकास जैसे क्षेत्रों में हम उसके अनुभवों का लाभ ले सकते हैं।

 

इस तरह के समझौतों का असर इन देशों में दिखाई दे रहा है। यह तो दावा नहीं कर सकते कि इजराइल के तीव्र होते हमलों के बीच सरकारी स्तर पर इन देशों की सरकारें फिलस्तीन का साथ छोड़ देंगी। आखिर इन देशों को भी तो मस्जिद-ए-अक्सा और मुसलिम आवाम के साथ खुद के खड़े रहने को जाहिर करना है। सरकारों के विपरीत, इन देशों में टीवी पर गाजा पट्टी और यरुशलम पर इजराइली हमलों के फुटेज दिखाये जा रहे हैं, तो दूसरी ओर इजराइल की ओर फिलिस्तीनी हमास के दागे जा रहे रॉकेट भी दिख रहे हैं। यह साफ समझा जा सकता है कि संगठन के तौर पर रुख और इजराइल के साथ रिश्तों के बीच कई देशों को सम्भल कर चलना पड़ रहा है। ऐसे संकेत हैं कि अपने देश के लोगों और दुनियाभर की मुसलिम आबादी में भरोसे के लिए ये देश फिलिस्तीन के प्रति कूटनीतिक तौर पर बने रहने के बयान देंगे। इन बयानों में इजराइल को चुनौती भी होगी, संयुक्त राष्ट्र संघ और दुनिया के नेतृत्वकारी देशों से इजराइल पर दबाव बनाने की अपीलें भी शामिल होंगी। सच यह है कि जब तक इजराइल को कथित रूप से समझाया जा सकेगा, वह फिलिस्तीन और यरुशलम के कुछ और हिस्सों को अपने अनुकूल खाली करा लेगा। कारण भी साफ है कि मुसलिम देशों के बीच इजराइल को लेकर अपने-अपने हित की चिंता है। फिलहाल ये चिंता इस विपरीत स्थिति में कुछ समय के लिए दबा कर ही रखी जायेगी।  

 

(लेखक हिंदुस्थान समाचार की पाक्षिक पत्रिका ‘यथावत’ के समन्वय संपादक हैं)   

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