ब्‍लॉगर

षड्यंत्रों को समझिए, तैयारी कीजिये

– संजय तिवारी

झारखंड में अंकिता के साथ जो भी हुआ ,बहुत दुखद है। इससे भी ज्यादा दुखद अतिशय सहिष्णुता है। अर्थ और बाजार आधारित समाज मे ये घटनाएं आश्चर्य नहीं लेकिन विचलित करने वाली हैं। आखिर हम कितने और सहिष्णु बनें? क्या यह अतिशय सहिष्णुता हमें रहने देगी? कोई यह तो बताए कि मनुष्यता कहां है? और कितने सहिष्णु होना चाहते हैं? यह होता ही है। आर्थिक समृद्धि के बाद सामाजिक चिंता और सभ्यता में सहिष्णुता का प्रभाव अपने कार्य करने लगते हैं। समृद्ध सभ्यताओं को किसी वाह्य सभ्यता या घुसपैठ से बहुत चिंता नहीं होती । उनमें सभी के प्रति एक सहिष्णु भाव ही रहता है। मनुष्य और मनुष्य में समृद्ध सभ्यता भेद नहीं करती। इसीलिए ऐसी सभ्यताएं सर्वदा षड्यंत्रों से निश्चिन्त रहती हैं लेकिन घुसपैठिये और षड्यंत्रकारी उन्हें निरंतर हानि पहुचाते रहते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्वयं भारत है।

प्राचीन भारत की समृद्धि और संतुष्टि ने भारतीयों को इतना निश्चिन्त कर दिया कि उनके मन में कभी यह भाव ही नहीं उत्पन्न हुआ कि कोई शक्ति उनकी समृद्धि को समाप्त कर एक दिन उन्हें ऐसे बिंदु पर लाकर खड़ा कर देगी जहां से पीछे देखने पर परिदृश्य लुटे-पिटे स्वरूप में दिखने लगेगा। सृष्टि के आरंभ से ऐसा हुआ भी है लेकिन तब अलग-अलग युगों में अलग-अलग नायकों ने इसे पुनः स्थापित भी किया। आज से पांच हजार वर्ष पूर्व का भारत भी अत्यंत समृद्ध था। सम्पूर्ण भौतिक सुखों से प्रत्येक नागरिक परिपूर्ण था। यह पूर्णता कितनी रही होगी, इसका अंदाज आप इस बात से लगा सकते हैं कि शासक परिवार में एक रानी को भरी सभा मे अवस्त्र करने पर भी समाज की कोई प्रतिक्रिया ही नहीं हुई। यह प्रमाणित करता है कि जनता को अपने राजा से कोई शिकायत थी ही नहीं। इसीलिए कौरव एवं पांडव के विभेद को जनता ने पारिवारिक विवाद माना और उसमें कोई जन क्रांति या प्रतिक्रिया ही नही हुई।

यह समृद्धि के कारण उपजी सहिष्णुता ही थी जिसने महाभारत युद्ध के बाद से लगातार लगभग ढाई हजार साल तक सब कुछ वैसे ही चलने दिया जैसा कृष्ण नीतिगत रूप से निर्धारित कर गए थे। बुद्ध और महावीर के बाद तो जैसे भारत के लोग युद्ध ही भूल गए। अधिकार, दायित्व और शास्त्रों से विरत भारत के खंडित होने का यही काल है। इसी के बाद अब्राहमिक संप्रदायों का उदय भी होता है और वे घुसपैठ कर बार-बार भारत के अखंड भूभाग को खंडित करते हैं। बुद्ध के 500 वर्ष बाद ईसाई आते हैं। उनके 600 वर्ष बाद इस्लाम आता है। छठी शताब्दी के उत्तरार्ध से भारत पर इस्लामिक आक्रमण होने लगते हैं। 11वी शताब्दी में मुहम्मद गोरी की लूटमार शुरू होती है। सत्रहवीं शताब्दी में अंग्रेज आते हैं और 1947 तक भारत को विभाजित कर चले जाते हैं। उनके बाद भारत मे भारतीय सरकारें आती हैं लेकिन किसी कपोल कल्पित गंगा-जमुनी तहजीब के साथ।

समग्र भारत आज भी विश्व का सर्वाधिक सहिष्णु राष्ट्र है। यहां बहुसंख्यक समाज के विरुद्ध लगातार षड्यंत्र करने वालों को भरपूर सम्मान उपलब्ध है। विश्व इसे देख भी रहा है और समझ भी रहा है लेकिन अभी भी बहुत से बहुसंख्यकों को नहीं दिख रहा। प्राचीन इतिहास का एक एक पड़ाव यह प्रमाणित कर रहा है कि जब- जब सनातन हिन्दू शक्ति से सम्पन्न रहा है तब-तब भारत उन्नति के शिखर पर रहा है। भारत की आर्थिक शक्ति केवल हिन्दू शासकों के समय में ही विश्व मे शिखर पर स्थापित रही है। आज यदि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ यह कहते हैं कि हिंदुत्व और विकास एक-दूसरे के पूरक हैं तो वे यह बात अपने गौरवशाली अतीत को पढ़ कर ही कहते हैं।

यह सहिष्णुता हम त्याग नहीं सकते लेकिन अपनी आस्था और अपने उच्च प्राचीन आदर्शों की बलि भी नहीं चढ़ा सकते। यदि इस सहिष्णुता के दुष्परिणाम हाल के वर्षों में देखना है तो यूरोप को देख लीजिए। जब एक खास वर्ग के लोग यूरोप में अंधाधुंध घुसपैठ हुई तो यूरोप को लगा कि बहुत सस्ता श्रम मिल रहा है। इन्हें आने दो । लेकिन जब इस घुसपैठ के भयंकर परिणाम निकलने शुरू हुए तो सारी समृद्धि और सहिष्णुता की चूलें हिल गईं। आज यूरोप की दशा किसी से छिपी नहीं है। हजारों वर्षों के घनघोर युद्धों में बड़े लड़ाके के रूप में स्थापित यूरोप की हालत पिछले सौ 150 वर्षों में बदतर हो गई है। सीरिया का उदाहरण सामने है। लंदन की सड़कों पर भी अब बार-बार नमाजियों के कारण रास्ते रोकने पड़ रहे हैं। मध्य एशिया की हालत तो सभी देख रहे हैं।

यह प्रमाणित तथ्य है कि समृद्धि के कारण लंबे समय की निश्चिंतता और सहिष्णुता किसी भी राष्ट्र के लिए सबसे शक्तिशाली शत्रु के रूप में सामने आती है। भारत ने इसको सर्वाधिक झेला है। इसलिए भारत को ही सर्वाधिक सतर्क होने की आवश्यकता है। कारण यह है कि विश्व की अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है। छोटे देश बड़े-बड़े कर्ज में डूबे हैं। अमेरिका और यूरोप के बाजार त्राहि त्राहि कर रहे हैं। अभी कोविड में अमेरिका ने तीन ट्रिलियन डॉलर लोगों के खातों में डाले लेकिन मुद्रास्फीति को वह रोक नहीं पाया। यह स्थिति लगातार बिगड़ ही रही है, क्योंकि विश्व बाजार की हर कड़ी अपने-अपने क्षेत्र में ही टूट चुकी है। ऐसे में छोटे देशों की खराब हालत के लोगो के पलायन और दूसरे देशों में उनकी घुसपैठ बहुत चिंतित करने वाली है और खासतौर पर भारत जैसे राष्ट्र को बहुत तैयारियों की आवश्यकता है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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