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    पृथ्वी की पीड़ा को समझें

  • April 21, 2023

    – हृदयनारायण दीक्षित

    भारतीय विवेक और श्रद्धा में पृथ्वी माता हैं। पृथ्वी को मां मानने और जानने की अनुभूति केवल भारत में है। हम सब पृथ्वी पुत्र हैं। इसी में जन्म लेते हैं। पृथ्वी ही पालती है। यही पोषण करती है। लेकिन दूषित पर्यावरण के कारण पृथ्वी का अस्तित्व संकट में है। सारी दुनिया का ताप बढ़ रहा है। पर्यावरण संरक्षण वैज्ञानिकों के सामने भी बड़ी चुनौती है।

    आज से 18 साल पहले 2005 में संयुक्त राष्ट्र का सहस्त्राब्दी पर्यावरण आकलन (मिलेनियन इकोसिस्टम असेसमेंट) आया था। यह एक गंभीर दस्तावेज था और है। इस अनुमान में कहा गया था कि पृथ्वी के प्राकृतिक घटक अव्यवस्थित हो गए हैं। यह अनुमान 18 वर्ष पुराना है। इसके पूर्व सन 2000 में भी पेरिस के `अर्थ चार्टर कमीशन’ ने पृथ्वी और पर्यावरण संरक्षण के 22 सूत्र निकाले थे। लेकिन इस दिशा में कोई महत्वपूर्ण काम नहीं हुआ। कोई ठोस संकल्प नहीं लिए गए।

    वैसे वैदिक साहित्य पर्यावरण प्रीति से भरा-पूरा है। हिन्दुत्व की जीवन शैली में पर्यावरण संरक्षण अंतर्निहित है। भारत के प्राचीनकाल में ही पृथ्वी के प्रति संवेदनशील प्रीति और श्रद्धा थी। वैदिक पूर्वजों ने जल को माताएं देवता जननी कहा था। उन्होंने पृथ्वी को माता और आकाश को पिता बताया था। ऋग्वेद में जल को बहुवचन रूप में माताएं कहा गया है। यूनानी दार्शनिक थेल्स ने जल को आदि तत्व बताया है। प्रकृति के 5 महाभूतों में जल एक महत्वपूर्ण महाभूत है। जल का मुख्य स्रोत वर्षा हैं।


    वैदिक साहित्य में जल को अतिरिक्त आदर दिया जाता रहा है। वैदिक समाज में जल वृष्टि के कई देवता हैं। ऋग्वेद (1.164) में कहते हैं, `सत्कर्मों से समुद्र का जल ऊपर जाता है। वाणी जल को कंपन देती है। पर्जन्य वर्षा लाते हैं। भूमि आनंद मगन होती हैं।’ यहाँ मुख्य बात है कि सत्कर्म के कारण समुद्र का जल ऊपर जाता है। सत्कर्म महत्वपूर्ण हैं। वस्तुतः ऐसे कर्म सांस्कृतिक कर्तव्य हैं। वर्षा पर्जन्य की कृपा हैं। आधुनिक संदर्भ में पर्जन्य को `इकोलॉजिकल सिस्टम’ कह सकते हैं। पर्जन्य देव पृथ्वी, जल, वायु, नदी, वनस्पतियों और सभी प्राणियों के संरक्षण से प्रसन्न होते हैं।

    पृथ्वी आराध्य देवता हैं। वैदिक देवता अनूठे हैं। देवता प्रकृति की महत्वपूर्ण शक्तियां हैं। उन्हें कई विभागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला द्युस्थानीय देवता हैं। द्यौव का ही एक रूप वरुण हैं। द्युस्थानीय देवताओं में द्यौव सबसे प्राचीन बताए गए हैं। आर्यों की ग्रीक शाखा के लोग ‘ज्योस‘ या ‘जिअस‘ के रूप में इस देवता की उपासना करते थे। द्यौव का प्रकट रूप हैं आकाश। उन्हें पिता कहा गया है। ऋषि राहुगण पुत्र गौतम द्य¨ को सबके पिता कहते हैं। इसी तरह वैदिक देवताओं का दूसरा विभाग है अंतरिक्ष स्थानीय देवता। ऋग्वेद के प्रतिष्ठित देवता इन्द्र इसी श्रेणी में आते हैं। इन्द्र मेघों में अवरुद्ध जल को मुक्त करते हैं। जल प्रवाह वर्षा द्वारा पृथ्वी की ओर आता है। मातरिस्वा, अपानपात आदि अंतरिक्ष स्थानीय देवता हैं। इनमें रूद्र मुख्य हैं। नि:स्संदेह ऋग्वेद में उनकी स्तुतियां कम हैं। ऋग्वेद के एक मंत्र में रूद्र शिव को त्रयम्बक कहा गया है। यजुर्वेद का सोलहवां अध्याय शिव रूद्र की स्तुति है।

    देवताओं के तीसरे वर्ग को पृथ्वी स्थानीय देवता कहा गया है। इस देव तंत्र में सोम अतिप्रतिष्ठित देवता हैं। ऋग्वेद के नौवें मण्डल के अधिकांश सूक्तों के देवता सोम हैं। सोम को सर्वश्रेष्ठ पेय बताया गया है और सर्वश्रेष्ठ औषधि भी। इसी श्रेणी में अग्नि देव भी आते हैं। ऋग्वेद में अग्नि सर्वशक्तिमान बताए गए हैं। बृहस्पति भी पृथ्वी स्थानीय देवता हैं। पृथ्वी भी पृथ्वी स्थानीय देवता हैं। नदियां भी देवता हैं। पूर्वजों के हृदय में पृथ्वी के प्रति माता का भाव है। अथर्ववेद का पृथ्वी सूक्त अंतरराष्ट्रीय कविता है। कहते हैं कि यहाँ भिन्न-भिन्न विचारधाराओं वाले लोग रहते हैं। माता पृथ्वी सबका पोषण करती हैं। दुनिया के तमाम विद्वानों ने पृथ्वी सूक्त की प्रशंसा की है। वैदिक साहित्य में उत्तर वैदिक काल और महाकाव्यों में भी पृथ्वी की स्तुति है। महाभारत के एक प्रसंग में श्रीकृष्ण पृथ्वी की उपासना करते हैं। वे पृथ्वी से ही पूछते है कि आप किस तरह की उपासना से प्रसन्न होती हैं। स्वयं पृथ्वी ने उत्तर दिया कि `तुम प्रतिदिन चिड़ियों और निराश्रित पशुओं के लिए कहीं भी अन्न डाल दिया करो। मैं इसी में प्रसन्न होती हूँ।’

    रामकथा के अनुसार श्रीराम का जन्म पृथ्वी को निशिचर विहीन और पृथ्वी का भार समाप्त करने के लिए हुआ था। रामचरितमानस में पृथ्वी संकट का उल्लेख है। तुलसीदास ने लिखा है, `अतिशय देख धरम की हानी/परम सभीत धरा अकुलानी’- धर्म की ग्लानि को बढ़ता देख कर पृथ्वी भयग्रस्त हुई और देवताओं के पास जा पहुंची। उसने देवों को अपना दुख सुनाया- निज संताप सुनाइस रोई- पृथ्वी ने रोते हुए अपना कष्ट बताया। शंकर जी ने पार्वती जी को बताया कि वहां बहुत देवता थे। मैं भी उनमें से एक था- तेहि समाज गिरजा मैं रहेऊ। रामचरितमानस के अनुसार आकाशवाणी हुई, `हे धरती धैर्य रखो। मैं स्वयं सूर्य वंश में आऊंगा और तुमको भार मुक्त करूँगा।’

    पृथ्वी बहुत महत्वपूर्ण हैं। हम सबका आश्रय हैं। पृथ्वी को भार मुक्त करने के लिए परम सत्ता मनुष्य बनती है। आधुनिक काल का पृथ्वी संकट बड़ा चुनौतीपूर्ण है। वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी का अस्तित्व संकट में है। उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव में हमेशा बर्फ जमी रहती है। वह बर्फ पिघल रही है। पृथ्वी के एक भूखंड में खनिज, तेल और गैस भारी मात्रा में हैं। खनिज सम्पदा और गैस पाने के लिए तमाम देश लालायित रहते हैं। लेकिन वे पृथ्वी के अस्तित्व को बचाने की चिंता नहीं करते। अधिक बर्फ पिघलने से समुद्र का स्तर ऊपर जाएगा। दुनिया खतरे में होगी। अंधाधुंध औद्योगिक विकास समस्या है। नगरीकरण सुनियोजित योजना के अनुसार नहीं है। दो ढाई वर्ष पहले मैं युगांडा की राजधानी काम्पाला में कामनवेल्थ देशों के संसदीय आयोजन में सम्मिलित था। मुझे नगरीकरण से उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर विचार व्यक्त करने के लिए कहा गया था। अनियोजित नगरीकरण से पर्यावरण का संकट बढ़ा है और जल, वायु प्रदूषण भी।

    हिन्दू अनुभूति के अनुसार पृथ्वी, जल, वायु, नदी, वनस्पति और सभी प्राणियों के संरक्षण से देवता प्रसन्न होते हैं। संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में मिस्र के शर्म अल शेख, इसके पहले स्कॉटलैण्ड के ग्लास्गो में भी सम्मेलन हुए थे। ब्राजील के रिओ डी जेनेरिओ नगर में पहला पृथ्वी सम्मेलन हुआ था। लेकिन अब तक के सारे आयोजन बेनतीजा रहे हैं। पृथ्वी माता व्यथित भयग्रस्त है। भूकम्प इसी के परिणाम हैं। वायु भी व्यथित है। यह बेचैनी आंधी और तूफानों में प्रकट होती है। जल अशांत हैं। अतिवृष्टि अनावृष्टि इसी का परिणाम हैं। एक वैदिक मंत्र में स्तुति है, `पृथ्वी शांत हों। अंतरिक्ष शांत हों। जल शांत हों। वनस्पतियां औषधियां शांत हों। शांति हमें शांति दें।’

    हिन्दू जीवन स्वाभाविक ही पर्यावरण प्रेमी है। पृथ्वी के सभी घटकों का संरक्षण राष्ट्रीय कर्तव्य है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया, `अन्न से प्राणी हैं। अन्न वर्षा से होता है। वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ सत्कर्मों से होता है।’ यह साधारण यज्ञ नहीं है। इसमें सत्कर्म की महत्ता है। भारतीय संस्कृति का अधिष्ठान सत्कर्म हैं।

    (लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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