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WHO ने मलेरिया की वैक्‍सीन के इस्‍तेमाल को दी मंजूरी, पर अभी और खोज की है जरूरत

नई दिल्‍ली: हर साल दुनिया भर में मच्छर (Mosquito) से होने वाली बीमारी मलेरिया (Malaria) से करीब चार लाख लोगों की जान चली जाती हैं. सैकड़ों साल बीत चुके हैं इसके बावजूद हम इस बीमारी से जूझ रहे हैं और आज तक हमें इससे निजात नहीं मिल पाई है. खास बात ये है कि अगर भारत (India) की बात की जाए तो इतने वक्त से मलेरिया हमारे बीच में है कि आम जनमानस इसे एक आम बीमारी मान चुका है.

यही वजह है कि किसी की मलेरिया से मौत हमें चौंका देती है और अक्सर लोग इसे डॉक्टर की लापरवाही मान लेते हैं. अब इस बीमारी से निजात पाने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) ने मलेरिया के खिलाफ इस्तेमाल होने वाली पहली वैक्सीन (Vaccine) के व्यापक इस्तेमाल की इजाजत दी है. इस वैक्सीन को ग्लेक्सोस्मिथ क्लाइन (जीएसके) ने बनाया है. RTS,S/AS01 नाम की इस वैक्सीन को बतौर पायलट प्रोजेक्ट घाना, केन्या और मालावी के करीब 8 लाख बच्चों को लगाया जा चुका है .

WHO का समर्थन मिल जाने से ऐसे क्षेत्रों में जहां मलेरिया का ज्यादा प्रकोप रहता है, वहां भी इसके इस्तेमाल का रास्ता खुल गया है. RTS,S/AS01 जिसका ब्रांड नाम मॉस्क्यिरिक्स है, वैश्विक आबादी पर प्रभावी टीकाकरण की ओर अभी पहला कदम है. मलेरिया के गंभीर मामलों में RTS,S/AS01 महज 30 फीसद असरदार है. इससे ज्यादा असरदार वैक्सीन के लिए प्रयास अभी जारी है.

मलेरिया के खिलाफ वैक्सीन इतनी अहम क्यों
मानव इतिहास में मलेरिया सबसे घातक बीमारियों में से एक रही है. जिसकी वजह से लाखों लोगों की जान गई है. यही नहीं इतने साल गुजर जाने के बाद भी आज भी इस बीमारी के चलते हर साल करीब 4 लाख लोगों की जान जाती है. 20 सालों में हालांकि बहुत सुधार हुआ है, नहीं तो इससे पहले ये आंकड़ा लगभग दोगुना था. अफ्रीका में तो ये बीमारी आम है. नाइजीरिया, कॉन्गो, तन्जानिया, मोजांबिक, नाइजर औऱ बुरकिना फासो में हर साल होने वाली मौतों में से आधी मौत मलेरिया की वजह से होती हैं.


हालांकि पिछले कुछ सालों में उल्लेखनीय सुधार हुआ है और मौत के मामलों में काफी कमी आई है. 20 सालों में, डब्ल्यूएचओ ने 11 देशों को मलेरिया मुक्त घोषित किया है, इन देशों में लगातार तीन सालों तक मलेरिया का एक भी मामला नहीं आया था. 2019 में इनमें यूनाइटेड अरब अमीरात, मोरक्को, श्रीलंका और अर्जेंटीना भी शामिल हो गए हैं.

27 देशों में इसके 100 से भी कम मामले सामने आए जबकि 20 साल पहले 100 से कम मामलों वाले देशों की संख्या सिर्फ 6 थी. भारत उन देशों में से है जो इस बीमारी से बुरी तरह ग्रसित हैं. हालांकि भारत में मलेरिया से मरने वालों की संख्या में पिछले कुछ सालों में काफी कमी आई है. आधिकारिक तौर पर अब ये आंकड़ा 100 के अंदर है.
वो वैक्सीन जिसे व्यापक उपयोग की मंजूरी मिली

RTS,S/AS01 ग्लेक्सोस्मिथ क्लाइन और वैश्विक गैरलाभकारी पाथ के संयुक्त प्रयास का नतीजा है जिसे बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन से अनुदान प्राप्त हुआ है. यह एक रिकॉम्बिनेंट प्रोटीन वैक्सीन है यानी इसमें एक से ज्यादा स्रोतों से डीएनए लिए जाते हैं. जो दुनिया में मच्छर की सबसे घातक परजीवी और अफ्रीका में सबसे ज्यादा पाए जाने वाले प्लाजमोडियम फेल्सिपेरम में सर्कमस्पोरोजाइट नाम के प्रोटीन पर निशाना साधता है.

हालांकि इस वैक्सीन से पी वाइवैक्स मलेरिया से सुरक्षा नहीं मिलती है, ये भी अफ्रीका के बाहर के कई देशों में बहुत प्रभावी परजीवी है. इस वैक्सीन को AS01 नाम के सहायक के साथ तैयार किया है. इसे इस तरह से तैयार किया गया है कि ये परजीवी को लिवर को संक्रमित करने से रोकता है. यही वो जगह है जहां पर यह परजीवी पनपता है और अपनी संख्या को बढ़ाकर लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित कर देता है यानि खून में फैल जाता है जिसकी वजह से मरीज की मौत हो जाती है.


पांच साल तक के बच्चों को लिए इस वैक्सीन के चार इन्जेक्शन लगाने होंगे, इसका असर हल्का होता है. 2009 से 2014 तक 7 अफ्रीकी देशों में इसे 15,000 बच्चों और शिशुओं पर फेज 3 के ट्रायल के दौरान लगाया गया, जिसके बाद ये परिणाम हासिल हुए हैं. जिसके मुताबिक इसके चार डोज के बाद मलेरिया को 39 फीसद तक रोका जा सकता है और 29 फीसद गंभीर मामलों पर काबू पाया जा सकता है.

मलेरिया की वैक्सीन विकसित होने में इतना वक्त क्यों
कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि इस वैक्सीन के विकसित होने में सबसे बड़ी परेशानी मलेरिया पैदा करने वाले परजीवी का जटिल जीवन चक्र है. जिसमें मच्छर, मानव लिवर, और मानव रक्त जैसे कई चरण शामिल होते हैं. इसके साथ ही इस परजीवी की एंटीजन विविधता भी है जो वैक्सीन विकसित करने में मुश्किल खड़ी करता है.

यही नहीं ये परजीवी खुद को मानव कोशिकाओं में छिपा कर रखने की काबिलियत भी रखता है, इस वजह से इसकी पहचान भी नहीं हो पाती है. भारत में चिकित्सा से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि इसके शोध और वैक्सीन तैयार करने के लिए बहुत कम आर्थिक मदद मिलती है, क्योंकि मलेरिया आमतौर पर कम और मध्यम आय वाले देशों पर असर डालता है. वहीं कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि मलेरिया वैक्सीन पर उतना ध्यान कभी नहीं दिया गया जितना एड्स पर दिया गया है, जबकि ये उससे ज्यादा जानलेवा है.

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