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वर्ल्ड अर्थ डे विशेष: रोती-तड़पती धरती की पुकार सुनें

– सुशील द्विवेदी

पृथ्वी अथवा पृथिवी एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ ‘एक विशाल धरा’ होता है। वैसे पृथ्वी बहुत व्यापक शब्द है, जिसमें जल, हरियाली, वन्य प्राणी, प्रदूषण और इससे जु़ड़े अन्य कारक भी हैं। संसार में एक पृथ्वी ही है जहां जीवन संभव है। पृथ्वी पर रहने वाले तमाम जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों को बचाने तथा दुनिया भर में पर्यावरण के प्रति जागरुकता बढ़ाने के लिए हर साल 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस मनाया जाता है। वर्ष 2022 के लिए पृथ्वी दिवस का मुख्य विषय अर्थात थीम ‘इन्वेस्ट इन अवर प्लानेट’ है। पृथ्वी दिवस के मनाने के लिए 22 अप्रैल 1970 को अमेरिका के लगभग दो करोड़ लोग, जो उस समय अमेरिकी आबादी के दस फीसदी के बराबर थे, पर्यावरण की रक्षा के लिए पहली बार सड़कों पर उतरे। अमेरिकी जनता की इस पहल को आधुनिक पर्यावरण आंदोलन का प्रारंभ माना जाता है। इस शुरुआत के समय किसी ने सोचा तक नहीं था कि पृथ्वी दिवस दुनिया के सबसे बड़े नागरिक आयोजन का रूप ले लेगा।

संसाधनों की भूख बना रही है धरती को कंगाल
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि पृथ्वी पर हर इंसान की जरूरतों को पूरा करने के लिए बहुत कुछ है लेकिन हर इंसान की लालच को पूरा करने के लिए नहीं। वर्तमान में हम पृथ्वी के समस्त संसाधन और उत्पादन की जितनी क्षमता है उससे ज्यादा दोहन कर रहे हैं। आलम ये है कि आज हम पृथ्वी के एक साल के संसाधनों का उपभोग लगभग सात महीनों में ही कर रहे हैं। हर वर्ष दुनिया कई-कई महीनों के बराबर पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों का अतिरिक्त दोहन करती है। इस बेहिसाब उगाही की कीमत अंततः किसी न किसी रूप में हमें देनी ही होगी। एक अध्ययन में पाया गया कि सालभर की सारी ज़रूरतें को पूरा करने के लिए हमें मौजूदा पृथ्वी से 60 प्रतिशत बड़ी कोई दूसरी पृथ्वी चाहिये। दूसरे शब्दों में, हम अभी एक साल में अपनी पृथ्वी से 1.6 गुना बड़ी किसी दूसरी पृथ्वी से मिल सकने वाले संसाधनों का उपभोग कर रहे हैं।

वैसे तो पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों और उनके उपयोग का कोई अचूक या सटीक आकलन संभव नहीं है, फिर भी वैज्ञानिकों का अनुमान है कि पृथ्वी सालभर में हमारे लिए 91 ट्रिलियन (910 खरब) डॉलर मूल्य के बराबर प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध करती है। यह अनुमान डॉलर के 2005 के मूल्य के आधार पर 2014 में लगाया गया था, 2022 तक यह मूल्य काफी बढ़ा होना चाहिये। हमारी जरूरतें और विश्व की जनसंख्या आज की तरह ही बढ़ती रही तो 2050 आने तक हमारी पृथ्वी पर 10 अरब लोग रह रहे होंगे और तब हमें अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए अपने इस समय की पृथ्वी जैसी कुल तीन पृथ्वी की ज़रूरत होगी।

जर्मनी की पर्यावरणवादी संस्था ‘जर्मन वॉच’ ने हिसाब लगाया है कि विश्व के दूसरे देश भी यदि ऊंचे स्तर के रहन-सहन वाले जर्मनों की ही तरह रहने और अपनी अर्थव्यवस्था चलाने लगें तो आज हमें अभी ही तीन पृथ्वी की जरूरत होगी। अगर लोग अमेरिका की तरह रहना चाहें तो हम सभी को करीब पांच पृथ्वी की जरूरत होगी। पृथ्वी पर हर 20 मिनट पर मानव आबादी में 3500 का इजाफा हो रहा है तो दूसरी ओर जीव-जंतुओं की प्रजाति लुप्त हो रही है। हालात ऐसे ही बने रहे तो अगले 30 सालों में धरती की 20 फीसदी प्रजातियां हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगी।

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम अर्थात यूएनडीपी की रिपोर्ट के हवाले से पेश आंकडों में धरती पर मानव अस्तित्व को बचाए रखने के लिए जल स्रोतों, जंगलों, जीव-जंतुओं की विभिन्न प्रजातियों और दलदली वन क्षेत्रों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि जिस मानव जाति का अस्तित्व इनसे जुड़ा हुआ है वही इन्हें मिटाने पर तुला है। रिपोर्ट के आंकडों के अनुसार प्रति घंटे धरती पर 240 एकड़ जंगल खत्म हो रहे हैं, जिसकी वजह से जैव संपदा की 75 फीसदी विविध किस्में लुप्त हो चुकी हैं। पिछले 50 वर्षों में इंसानी गतिविधियों व जलवायु परिवर्तन से स्तनपायी, पक्षी, मत्स्य, सरिसर्प, और उभयचर जंतुओं की आबादी में लगभग 70 प्रतिशत की गिरावट आई है। वर्तमान में प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा 1000 से 10,000 गुना बढ़ गया है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि प्रजातियों के विलुप्तीकरण की यही दर जारी रही तो वर्ष 2100 तक धरती की लगभग आधी प्रजातियां लुप्त हो जाएंगी।

जलवायु परिवर्तन है गंभीर खतरा
पिछले कुछ दशकों में मानव जनित गतिविधियों से उपजी ग्रीन हाउस गैसों के कारण वैश्विक तापमान बढ़ने से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और समुद्र का जल स्तर ऊपर उठ रहा है जिसके फलस्वरूप समुद्र के आस-पास के द्वीपों के डूबने का खतरा भी बढ़ गया है। मालदीव, तुवालु जैसे छोटे द्वीपीय देशों में रहने वाले लोग पहले से ही वैकल्पिक स्थलों की तलाश में हैं। इन्डोनेशिया की राजधानी जकार्ता धीरे-धीरे डूबती जा रही है। तापमान में वृद्धि और वनस्पति पैटर्न में बदलाव ने कुछ पक्षी प्रजातियों को विलुप्त होने के लिये मजबूर कर दिया है। विशेषज्ञों के अनुसार, पृथ्वी की एक-चौथाई प्रजातियाँ वर्ष 2050 तक विलुप्त हो सकती हैं। वर्ष 2008 में ध्रुवीय भालू को उन जानवरों की सूची में जोड़ा गया था जो समुद्र के स्तर में वृद्धि के कारण विलुप्त हो सकते थे।

जलवायु परिवर्तन से बाढ़, सूखा और बारिश आदि की अनियमितता काफी बढ़ गई है। कुछ स्थानों पर बहुत अधिक वर्षा हो रही है, जबकि कुछ स्थानों पर पानी की कमी से सूखे की स्थिति बन गई है। वैश्विक स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन के कारण मानव स्वास्थ्य पर गंभीर असर देखा जा रहा है। मलेरिया, डेंगू जैसी अनेक बीमारियां इसी का नतीजा हैं।

आज हमारी धरती माता हमसे चीख-चीख कर कह रही है कि, मुझे बचा लो। हमारी पृथ्वी इस समय की हमारी ख़र्चीली जीवनशैली और अदूरदर्शी अर्थव्यवस्थाओं का बढ़ता बोझ लंबे समय तक वहन नहीं सकती। कोरोना वायरस से मिला अनुभव चाहे जितना कटु व कष्टदायक हो, उसने विश्व-स्तर पर कम से कम यह तो दिखाया ही है कि हम अपने प्राकृतिक संसाधनों की खपत अभी से जितनी कम कर सकेंगे, अपने भविष्य को उतना ही लंबा और बेहतर बना सकेंगे। यदि हमें पृथ्वी पर्यावरण को बचाना है, खुद को बचाना है तो फिर से अपनी परंपराओं को, शाश्वत चेतना को जगाना होगा। आइये हम पूरे साल पृथ्वी से दोस्ती करके और उसकी देखरेख करके अर्थ डे को मनायें।

(लेखक, टेरी द्वारा आयोजित ग्रीन ओलंपियाड के स्टेट कोऑर्डिनेटर हैं।)

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