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विवाह की उम्र : सामाजिक सुधार की अभूतपूर्व पहल

– सुरेश हिंदुस्थानी

कुछ प्रथाएं आज कुरीति के रूप में दृष्टव्य होती दिख रही हैं। चाहे विवाह की आयु का विषय हो या फिर रीति-रिवाजों से संबंधित अन्य प्रचलित प्रथाएं, समय के अनुसार इनको बदलना चाहिए। लेकिन कुछ रूढ़िवादी मानसिकता के लोग या इस दिशा में सक्रिय संस्थाएं किसी परिवर्तन का विरोध कर न केवल भारतीय समाज को पीछे धकेलने का कार्य कर रहे हैं, बल्कि देश के उत्थान के मार्ग में अवरोधक बनकर खड़े हैं। भारतीय समाज में कई प्रकार की प्रथाएं पत्थर की लकीर की तरह स्थापित हो चुकी हैं, इसी कारण सामाजिक असमानता बढ़ती है। समाज में भेदभाव की भावना घर कर रही है।

कम आयु में बच्ची के विवाह को जीवन की बर्बादी के रूप में निरूपित किया जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। हालांकि आज इतनी जागरुकता तो दिखाई देती है कि देश में बाल विवाह नहीं हो रहे हैं, फिर भी अपवाद तो मिल ही जाते हैं। बाल विवाह करने का प्रचलन कब और कैसे आया, इसकी प्रामाणिक जानकारी तो नहीं है लेकिन कहा जाता है कि मुगल शासकों के अत्याचार के दौर में भारतीय समाज ने इस प्रथा को प्रारंभ किया। हालांकि इसके दुष्परिणाम भी सामने आए। जब किसी बच्ची का विवाह कम उम्र में कर दिया जाए तो यही कहा जाएगा कि उसके बच्चे भी जल्दी ही होंगे। महत्वपूर्ण बात यह है कि अभी जिस बच्ची का बचपन ठीक से बीता नहीं, उसे एक और बचपन को सुरक्षित करने की जिम्मेदारी असमय ही मिल जाती है। ऐसी स्थिति में न तो वह अपना विकास कर पाती है और न ही मासूम बच्चे की ठीक प्रकार से परवरिश ही कर पाती है। जिससे दोनों ही शारीरिक रूप से विकसित नहीं हो पाते।

भारतीय संस्कृति में बच्चियों को देवी के रूप में देखने की परंपरा रही है। नवरात्रि पर्व पर बच्चियों में देवी के दर्शन होते हैं। भारतीय दर्शन में कहा जाता है कि जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवताओं का वास होता है। इसका आशय यही है कि उस देश में देव संस्कृति का प्रवाह अविरल रूप से प्रवाहित होता रहता है। ऐसी स्थिति में वह देश संस्कारों की सुरभित बगिया के रूप में महकती रहती है।

पुरातन काल से यह मान्यता भी है कि किसी भी बालक की प्रथम गुरू उसकी माता होती है, लेकिन जब माता ही पूर्ण रूप से विकसित नहीं होगी तो स्वाभाविक रूप से यही कहा जा सकता है कि वह गुरू की भूमिका ठीक प्रकार से नहीं निभा सकती। इसलिए किसी भी बच्ची का विवाह उचित आयु में करने से सकारात्मक परिणाम सामने आते हैं।

आज के समय का अध्ययन किया जाए तो यही परिलक्षित होता है कि एक परिवार के सदस्यों की एक ही विषय पर अलग-अलग राय होती है। अलग राय की यह शैली बाहर के वातावरण से मिलती है। जब यह शैली व्यक्ति के आचरण का हिस्सा बन जाती है, तब परिवार में विघटन की स्थितियां पैदा होती हैं। इसलिए परिवार के साथ देश में भी संस्कृति की रक्षा करते हुए आवश्यक सुधार भी करने चाहिए। लड़कियों की विवाह की आयु कम करने का कदम इसी दिशा में बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इसकी लम्बे समय से मांग की जा रही थी। वैसे भी आज के समय में लड़कियां स्वयं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए अपने लिए एक मजबूत आधार निर्मित करना चाहती हैं। इसलिए युवतियां अपने विवाह को लेकर जल्दबाजी नहीं करतीं। देखा जा रहा है कि लड़कियां अधिक आयु में विवाह करने लगी हैं।

खास बात यह है कि भारतीय संस्कृति में व्यक्तिगत जीवन के लिए चार आश्रम की व्यवस्था है, जिसमें औसत आयु सौ वर्ष मानी गई है और इसी के आधार पर विभाजन किया गया है। प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्य, द्वितीय गृहस्थ, तृतीय वानप्रस्थ और चतुर्थ संन्यास है। पिछले कुछ वर्षों में औसत आयु में कमी का अनुभव किया जा रहा था, इसलिए विवाह की उम्र भी कम कर दी गई। अब लड़कियों के विवाह की आयु 21 वर्ष करने का निर्णय लिया गया है, जो युवतियों के हक में अभूतपूर्व माना जा रहा है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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