नई दिल्ली। कोरोना (Corona) संकट के बीच प्लाज्मा थेरेपी (Plasma therapy)को लेकर आईसीएमआर(ICMR) और एम्स(AIIMS) ने बड़ा फैसला लिया है. कोरोना के इलाज से प्लाज्मा थेरेपी (Plasma therapy) हटाई दी गई है. इस संबंध में AIIMS और ICMR की तरफ से नई गाइडलाइन जारी की गई है.
इससे पहले कोविड-19 (Covid-19) संबंधी भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) , नेशनल टास्क फोर्स की बैठक में सभी सदस्य इस पक्ष में थे कि प्लाजमा थेरेपी को कोरोना इलाज पद्धति से हटाया जाना चाहिए. उनका कहना था कि कोरोना थेरेपी प्रभावी नहीं है और कई मामलों में इसका अनुचित रूप से इस्तेमाल किया गया है.
आईसीएमआर के शीर्ष वैज्ञानिक डॉ. समीरन पांडा ने बताया कि बीजेएम में छपे आंकड़ों में यह सामने आया है कि प्लाज्मा थेरेपी का कोई फायदा नहीं है. प्लाज्मा थेरेपी महंगी है और इससे पैनिक क्रिएट हो रहा है. इसे लेकर हेल्थकेयर सिस्टम पर बोझ बढ़ा है जबकि इससे मरीजों को मदद नहीं मिलती है. डोनर के प्लाज्मा की गुणवत्ता हर समय सुनिश्चित नहीं होती है.प्लाज्मा की एंटीबॉडीज पर्याप्त संख्या में होना चाहिए जबकि यह सुनिश्चित नहीं रहता है.
इससे पहले जारी दिशानिर्देश के मुताबिक प्रारंभिक मध्यम बीमारी के चरण में यानी लक्षणों की शुरुआत के सात दिनों के भीतर यदि हाई टाइट्रे डोनर प्लाज्मा की उपलब्धता है तो प्लाज्मा थेरेपी के “ऑफ लेबल” उपयोग की अनुमति दी गई थी.यह फैसला ऐसे में लिया गया है जब कुछ चिकित्सकों और वैज्ञानिकों द्वारा मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार के विजयराघवन को पत्र लिख इसे हटाने की मांग की थी.
इन लोगों ने आगाह किया था कि प्लाज्मा थेरेपी का तर्कहीन और गैर-वैज्ञानिक उपयोग किया जा रहा है. यह पत्र आईसीएमआर प्रमुख बलराम भार्गव और एम्स के निदेशक रणदीप गुलेरिया को भी भेजा गया. इसमें कहा गया था कि प्लाज्मा पद्धति मौजूदा दिशा-निर्देशों और साक्ष्यों पर आधारित नहीं है. देश भर के एक्सपर्ट्स का कहना है कि इस समय हो रहे रिसर्च में ये बात स्पष्ट हैं कि कोरोना मरीजों के लिए प्लाज्मा थेरेपी का कोई उपयोग नहीं है. इसके बावजूद देश भर के अस्पतालों में इसका तर्कहीन उपयोग किया जा रहा है.
क्या है प्लाजमा थेरेपी
दरअसल, प्लाज्मा थेरेपी में कोविड-19 से ठीक हुए मरीज के खून में मौजूद एंटीबॉडी को गंभीर मरीजों को दिया जाता है. विशेषज्ञों के अनुसार 11,588 मरीजों पर प्लाज्मा थेरेपी के परीक्षण करने के बाद पाया गया कि इससे मरीजों की मौत और अस्पताल से डिस्चार्ज होने के अनुपात में कोई फर्क नहीं आया है.