ब्‍लॉगर

कितने हैं जो गऊ माता को रोटी देते हुए सेल्फी शेयर करते हैं..?

-कौशल मूंदड़ा-

अभी कल ही एक मित्र ने बताया कि एक नवम्बर को घर पर दूध देने वाले ने दूध देने के साथ ही कहा कि अब दूध पर 2 रुपये प्रति लीटर बढ़ा रहा हूं। उसने पूछा नहीं था, सूचित किया था। उसके इस कथन का न तो आप प्रतिकार कर सकते हैं, न ही आप दूध का ही त्याग कर सकते हैं। सुबह उठते ही बड़ों ने भले ही चाय की आदत डाल ली हो, लेकिन बच्चों के लिए तो दूध ही अमृत है। और सवेरे-सवेरे चाय भी कौन सी नींबू वाली या काली पी जाती है, चाय भी दूध वाली ही चाहिए। कुल मिलाकर दूध दिन की शुरुआत की पहली वस्तु है जो हर घर हर व्यक्ति की आवश्यकता है। लेकिन, उसका महंगा होना पूरे रसोई के बजट को प्रभावित कर देता है। सिर्फ दूध ही 2 रुपये महंगा नहीं होता, इसके बाद दूध से बनने वाला दही, फिर देसी घी, फिर मावा, पनीर, कुल्फी, बटर आदि के महंगे होने का अंदाजा लगना शुरू हो जाता है। अकेले दूध से आधी से ज्यादा रसोई जुड़ी है, यह सभी जानते हैं। व्यक्ति दूध के महंगे होने के साथ ही आटे-दाल का भाव लगाने लग जाता है।

अब हम आते हैं असल सवाल पर कि भारतवर्ष जहां कान्हाजी हमारे आराध्य है और गैया जिसे हम गऊ माता कहते हैं, उस देश में दूध के भाव इतने बढ़ते जा रहे हैं कि झुग्गी झोंपड़ियों में रहने वाले कई लोग बच्चों को दूध में पानी पिलाकर यही समझा देते हैं कि दूध ऐसा ही होता है। जबकि, हम अक्सर सुना करते हैं कि हमारे देश में घी-दूध की नदियां बहती थी। अब सामान्य दृष्टिकोण से भी कोई यह नहीं मान सकता कि ऐसा होता था, हां नदियों की स्वच्छता और निर्मलता को यह उपमा दी गई हो, यह हो सकता है। लेकिन, मूल अर्थ यह भी नहीं होकर यह जरूर माना जाता रहा है कि भारतवर्ष इतना समृद्ध था कि यहां घी-दूध की कोई कमी नहीं थी। हर घर में घी-दूध पर्याप्त रहा होगा, अनजान राहगीरों की आवभगत भी उसी से हुआ करती होगी, उसकी गुणवत्ता और स्वाद भी उत्तम रहा होगा, तभी यह उक्ति स्थापित हुई कि हमारे देश में घी-दूध की नदियां बहती थीं।

आखिर अब ऐसा क्यों नहीं। इसके कारण ढूंढ़ने जाएंगे तो हर दिशा से घूम कर यही बात सामने आएगी कि हमने अपनी गऊ माता का महत्व कम कर दिया। आधुनिकता की चकाचौंध में घर से गऊमाता तो बाहर हो गई, श्वान जरूर पाले जाने लगे। शहरी क्षेत्र से तो गायों को बाहर रखे जाने जैसे आदेश हो रहे हैं। जब घर-घर गाय होती थी तो दूध की कमी नहीं होती थी, और जिस वस्तु की कमी नहीं होती, उसके भाव सामान्य ही रहते हैं, यह बाजार का सिद्धांत है। हमारी परम्पराओं में पहली रोटी गाय के लिए होने का मतलब ही यही है कि गऊ माता हमारे जीवन का आधार है। इसे हमारे पूर्वजों ने इस तरह से समझाने के लिए यह परम्परा स्थापित की, लेकिन अब हम श्वानों को बिस्किट खिलाने, दुलारने की सेल्फी लेना पसंद करते हैं। गाय को रोटी खिलाने, दुलारने की सेल्फियां सोशल अकाउंट्स पर कितनी नजर आती हैं, हमें स्वयं अंदाजा लगा लेना चाहिए। संक्रांति हो या बड़ी एकादशी, दान-पुण्य के लिए सिर्फ एक दिन गऊमाता को रिचका डालने से कुछ नहीं होगा, उस दिन बड़ी मात्रा में रिचका खराब हो जाता है।

अब तो गऊमाता के महत्व को वैज्ञानिक आधार भी मिलना शुरू हो गया है, इसे आधुनिक दुनिया का वैज्ञानिक आधार कहा जाए तो ज्यादा सटीक होगा क्योंकि भारतीय परम्पराओं और शास्त्रों में तो गऊमाता के दूध सहित गोमूत्र, गोबर के आयुर्वेदिक और पर्यावरणीय महत्व पहले से उल्लेखित हैं। यहां यह भी बता दें कि हमारे यहां गाय के गोबर को कभी ‘मल’ नहीं कहा गया, अलबत्ता गोबर के बने कण्डे भी शुद्ध माने गए हैं जो नैवेद्य, यज्ञ आदि के समय धूप में काम में आते हैं। बाटियां को कण्डे पर बनी सभी ने खाई हैं, ओवन और कण्डे की बाटियों के स्वाद में अंतर बताने की जरूरत ही नहीं है। महानगरों में बसे परिवारों को जब कण्डे मिलना मुश्किल होने लगे हैं तो कुछ को कण्डों का ऑनलाइन व्यापार भी मिला है। अब तो गोबर से बिजली बनाने पर काम हो रहा है। गोमूत्र के औषधीय उपयोग के लिए नवीन शोध निरंतर प्रगति पर हैं।

पिछले कुछ सालों में यूरिया से हटकर ऑर्गेनिक खेती की भी चर्चा बढ़ी है। ऑर्गेनिक नाम नया आ गया है, लेकिन बात तो वही पुरानी और पारम्परिक खेती और खाद की है जब यूरिया नाम की चीज नहीं हुआ करती थी, तब गोवंश से खेत जोते जाते थे, उनके गोबर से बनी खाद खेतों को उपजाऊ बनाती थी, वह भी बिना किसी नुकसान के। ऑर्गेनिक के ठप्पे वाली खाद्य वस्तुएं भले ही दोगुने दाम में मिल रही हैं, लेकिन सक्षम लोग उसे प्राथमिकता देने लगे हैं, यहां तक कि किटी पार्टियों में ऑर्गेनिक फूड के इस्तेमाल की चर्चा स्टेटस सिम्बल बनने लगी है। आखिर आज हम फिर से इस तरफ लौट रहे हैं, क्यों?

बस, इसी क्यों के उत्तर में हमारी प्रगति छिपी है। जिस दिन हम अपनी नई पीढ़ी तक इस क्यों का उत्तर बताने लग जाएंगे, तब से हमारा भारतवर्ष घी-दूध की नदियों वाले देश की उपमा पुनः प्राप्त करना शुरू कर देगा। इसकी शुरुआत स्वयं से करनी होगी। बच्चों को गऊमाता को रोटी खिलाने की सेल्फी शेयर करने के लिए प्रेरित करने की पहल कीजिये। कम से कम महानगरों में रहने वाले बच्चों को पता चलेगा कि उनके घर से कितनी दूरी पर गऊमाता पाली जाती हैं। उन्हें पता चलेगा कि सुबह-सुबह उठकर जो दूध वह पीते हैं, भले ही मलाई निकालने की जिद्द करते हैं, उस दूध के लिए गोपालक कितनी मेहनत करता है। फिर देखिये, तीसरी के बच्चे को भी गाय पर दस लाइन का निबंध लिखने के लिए टीचर या मम्मी से नहीं पूछना पड़ेगा।

गोवर्धन पूजा की शुभकामनाएं

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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