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कन्या पूजन के महत्व से पहले कन्या स्वरूपों को जानना जरूरी

– डा. अलकनंदा शर्मा

भारतीय धर्मशास्त्र में शक्ति की पूजा का संबंध शिव से है। शैव शक्तियां ही दुर्गा नाम से जानी जाती हैं। दुर्गा या चण्डी के अनुष्ठान में नवदुर्गा (नव कन्याओं) का पूजन भी प्रचलित है। मंत्र महोदधि के अनुसार दो से नौ वर्ष तक की कुमारी बालिकाओं के पूजन का विधान है।

दो से नौ वर्ष तक की आयु वाली कुमारियों के क्रमिक नाम इस प्रकार हैं- कुमारी, विधा अथवा त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शाम्भवी, दुर्गा, चाख्किा, सुभ्रदा। इसी प्रकार रूदसामल तंत्र में एक वर्ष से सोलह वर्ष तक की कुमारियों का उल्लेख है- 1 वर्ष की कन्या सन्ध्या, 2 वर्ष की कन्या सरस्वती, 3 वर्ष की कन्या त्रिधामूर्ति, 4 वर्ष की कन्या कालिका, 5 वर्ष की कन्यासुभगा, 6 वर्ष की कन्या उमा, 7 वर्ष की कन्या मालिनी, 8 वर्ष की कन्या कुलजा, 9 वर्ष की कन्या कालसन्दभा, 10 वर्ष की कन्या अपराजिता, 11 वर्ष की कन्या रूद्राणी, 12 वर्ष की कन्या भैरवी, 13 वर्ष की कन्या लक्ष्मी, 14 वर्ष की कन्या महालक्ष्मी, 15 वर्ष की कन्या क्षेत्रशा, 16 वर्ष की कन्या अम्बिका अर्थात् क्रमशः प्रतिपदा से पूर्णिमा तक वृद्धि भेद पूजन करना चाहिए।

कुमारी (5 से 12 वर्ष तक) कुलजा (8 से 13 वर्ष तक) युवती (10 से 16 वर्ष तक) देवता रूप में इनका चिन्तन अभीष्ट है। 6 से 9 वर्ष की कन्या का पूजन अभीष्ट फलदायक कहा गया है। कुमारी लक्षण पूजन हेतु कुमारी को 11 दोषों से विहीन होना चाहिए यथा हीनाड्गी, अधिकांड्गी, घृणित, चमरीगादि, नेत्र दोष, कुरूपा, कुबड़ी, अधिक रोम से युक्त तथा दासी उत्पन्न।

कुमारी पूजन-

कुमारी पूजन में किसी भी प्रकार का जाति-भेद वर्जित है। अभीष्ट फल प्राप्ति के लिए बाधक है। सम्भवतः इसी कारण चातुर्वर्ण के आधार पर कन्याओं के पूजन में इस प्रकार है। ब्राह्मण कुमारी, मनोरथ सिद्धि के लिए क्षत्रिय कुमारी यश प्राप्ति के लिए, वैश्य कुमारी धन के लिए तथा शुद्र कुमारी के पूजन पुत्र की कामना के लिए किया जाता है।

पुण्य मुहूर्त में मुख्य रूप से रामनवमी तिथि को कुमारी पूजन करना चाहिए विधिवत् गंध-पुष्प, धूप, दीप, भक्ष्य भोज्य एवं सुन्दर वस्त्र भरण से पूजन करने वाला व्यक्ति सर्वमंगल प्राप्त करता है तथा नेवैद्य बाल प्रिय होना चाहिए।

नव दुर्गा-

1. शैलीपुत्र – इस प्रथम दिन के उपासना में साधक या योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थिर करते हैं। यहीं से उनकी योगसाधना का प्रारम्भ होता हैं। शैल का अर्थ पर्वत यानी पर्वतराज हिमालय की पुत्री कहा जाता है।

2. ब्रह्मचारिणी- ब्रह्म का अर्थ तपस्या है यानी तप की चारिणी के रूप में ब्रह्मचारिणी कहा जाता है। इनकी उपासना मनुष्य के तप, त्याग, वैराग्य सदाचार संयम की वृद्धि करने वाली होती है। जीवन के कठिन संघर्षों में भी साधक का मन मंतव्य पथ से विचलित नहीं होता। मां ब्रह्मचारिणी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है। साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में स्थिर होता है, इस चक्र में अवस्थित मन वाला योगी उनकी कृपा और शक्ति प्राप्त करता है।

3. चन्द्रघण्टा- इनका यह स्वरूप परम शान्तिदायक और कल्याणकारी है। इस दिन साधक का मन ‘मणिपुरकचक्र’ में प्रविष्ट होता है। उसे अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुंगधियों व विविध प्रकार की दिव्य ध्वनियां सुनाई देती है तब ये क्षण साधक के लिए अत्यन्त सावधान रहने के होते हैं। मां चन्द्रघण्टा की कृपा से साधक के समस्त पाप और बाधाएं नष्ट हो जाती हैं। इनकी आराधना से साधक में वीरता-निर्भरता के साथ ही सौम्यता एवं विनम्रता का भी विकास होता हैं। साधक को देखकर लोग शान्ति और सुख का अनुभव करते हैं।

4. कुष्माण्डा- अपनी हल्की हंसी द्वारा ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कुष्माण्डा देवी के नाम से जाना जाता है। इस दिन साधक का मन ‘अनाहत’ चक्र में अवस्थित होता है। मां की उपासना से समस्त रोग-शोक विनष्ट हो जाते है। इनकी भांति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। मनुष्य को व्याधियों से सर्वथा विमुक्त करके उसे सुख समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाने वाली है। अतरू अपनी लौकिक-परलौकिक उन्नति चाहने वालों को इनकी उपासना में सदैव तत्पर रहना चाहिए।

5. स्कन्दमाता – इस दिन साधक का मन ‘विशुद्ध’ चक्र के अवस्थित होता है। पूजन के पांचवें दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्व बताया गया है। इस चक्र में अवस्थित मन वाले साधक की समस्त ब्रह्म क्रियाओं एवं चित्तव्यत्तियों का लोप हो जाता है। यह विशुद्ध चैतन्य स्वरूप की ओर अग्रसर होता है। मां स्कन्दमाता की उपासना से भक्त की समस्त इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं। उसे परम शान्ति व सुख का अनुभव होने लगता है।

6. कात्यायनी- इस दिन साधक का मन ‘आज्ञा’ चक्र में स्थित होता है। इनकी उपासना द्वारा मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति हो जाती है। उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं।

7. कालरात्रि- इस दिन साधक का मन ‘सहस्त्राएं’ चक्र में स्थित होता है। उनके लिए ब्रह्माण्ड की समस्त सिद्धियों का द्वारा खुलने लगता है। ये ग्रह-बंधाओं को भी दूर करने वाली है। इनके उपासक को अग्निभेद, जलभय, जन्तु, श्णुभय, रात्रि भय आदि कभी नहीं होती हैं। इनकी कृपा से वह सर्वथा भय मुक्त हो जाता है। मां कालरात्रि के स्वरूप विग्रह को अपने हृदय में अवस्थित करके मनुष्य को एकनिष्ठ भाव से उनकी उपासना करनी चाहिए।

8. महारात्रि – इनकी उपासना से आर्तजनों के उन सम्भव कार्य भी सम्भव हो जाते हैं। ये मनुष्यों की वृत्तियों को सत की ओर प्ररित करके असत का विनाश करती है।

9. सिद्धिदात्री- इनकी साधना से साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। सृष्टि में कुछ भी उसके लिए अगम्य नहीं रह जाता। ब्रह्माण्ड पर पूर्ण विजय प्राप्त करने का सामर्थ्य उसमें आ जाता है। वह सभी सांसारिक इच्छाओं, आवश्यकताओं और स्पृहाओं से ऊपर उठकर मानसिक रूप से मां की कृपा से विषय शून्य हो जाता है।

सप्तशती

सप्तशती के पाठ में सामान्यतया प्रथम मध्यम और उत्तम चरित्र का क्रमशः पाठ किया जाता है। इससे सब कामनाएं पूर्ण होती हैं, लेकिन विशेष प्रयोजनों में तीनों चरित्रों का क्रम भेद करने से अभीष्ट पूरा होता है-

शत्रु-नाश हेतु – उत्तर, मध्यम, प्रथम चरित्र

लक्ष्मी प्राप्ति हेतु – उत्तर, प्रथम, मध्यम चरित्र

ज्ञान एवं श्री हेतु – मध्यम, प्रथम, उत्तर चरित्र

रक्षा एवं विजय हेतु – मध्यम, प्रथम, उत्तर चरित्र

आरोग्यता हेतु – मध्यम, उत्तर, प्रथम चरित्र

(लेखिका राजस्थान विद्यापीठ के ज्योतिष एवं वास्तु संस्थान की विभागाध्यक्ष हैं।)

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