मक़तबे इश्क़ का निराला है उसूल
उसको छुट्टी न मिली जिसे सबक याद हुआ।
अख़बारी दुनिया मे पत्रकारों को छुट्टियों के बड़े टोटे होते हैं साब। हफ़्ते में एक वीक ऑफ भी कई दफे केंसिल हो जाया करता है। विधान सभा और लोकसभा चुनावों में तो ये हफ्तेवार छुट्टी भी नहीं मिलती। ये तो हुई एक बात। दूसरी बात ये हेगी मियां के पूरे साल में अखबारों में कुल जमा 4 छुट्टी ही मिलती हैं। 26 जनवरी, होली, 15 अगस्त और दिवाली को ही अखबार में छुट्टी होती है। इसके बरक्स सरकारी अमले को हर शनिचर, इतवार के अलावा 10 से ज्यादा छुट्टियां नेशनल हॉलिडे या किसी महापुरुष की बरसी या सालगिरह की मिलती है। प्राइवेट कंपनियों में तो 5 दिन का हफ्ता होता है। मसला ये के बिचारे अखबारनवीसों को छुट्टी भोत कम मिल पाती है। बताते है कि आज़ादी के बाद अखबारों के इब्तिदाई दौर में जब अखबार ट्रेडिल, सिलेंडर मशीनों से छपते थे तभी से अखबारों को छुट्टी के सिलसिले शुरु हुए। यवमे जम्हूरियत और यवमे आज़ादी की छुट्टी तो खैर हर अखबार में होती थी, इनके अलावा होली, राखी, दशहरा और दिवाली की छुट्टियां भी मिलती थी। तब कुछ अखबार दिवाली की दो दिन की छुट्टी दिया करते थे। कुछ अखबारों में छुट्टियां उनके शहरों के बड़े त्योहारों के मद्देनजर भी हुआ करती थीं। मसलन इंदौर में गणेश उत्सव बहुत जोरशोर से मनाया जाता था। वहां आनंद चौदस को कपड़ा मिलों की बेहद खूबसूरत झांकियां निकलती थीं। तब इंदौर में मालवा मिल, भंडारी मिल, राजकुमार मिल, हुकुमचंद मिल और स्वदेशी मिल चला करते थे।
जब ये मिल बंद हुए तो झांकियां का जोश भी कम हो गया। तब इन्दोर के अखबारों में आनंद चौदस के अगले दिन छुट्टी रहा करती थी। वहीं जबलपुर में नवरात्र उत्सव और दशहरा बहुत जोशोखरोश से मनाया जाता था। तभी से वहां दशहरे के दिन अखबारों में छुट्टी का चलन है। साथ से अस्सी की दहाई की शुरुआत में कई अखबारों में राखी की छुट्टी मिला करती थी। बहरहाल, जैसे जैसे अखबारों में नई नई टेक्नोलोजी आती गई और एक दूसरे से कम्पटीशन बढ़ता गया तो छुट्टियों में कटौती होती चली गई। अब दशहरा, राखी और आनंद चौदस की छुट्टियां नहीं होतीं। तारीफ की बात ये है कि छुट्टियों में कटौती को लेके न लेबर डिपार्टमेंट कुछ केता हेगा न पत्रकार ही आवाज़ उठाते हैं। भोत मुमकिन है कि आने वाले बरसों में जब पूरा मीडिया ही डिजिटल पे शिफ्ट हो जाएगा तो ये छुट्टियां भी गुजऱे ज़माने की बात हो जाएं।
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