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महिषासुर वध की कहानीः भैंसे के रूप से मनुष्य बनने वाला था असुर, तभी देवी ने काट दिया सिर

नई दिल्ली (New Delhi)। देशभर में इस वक्त चैत्र नवरात्र का उत्सव (Celebration of Chaitra Navratri.) मनाया जा रहा है. नौ दिनों तक देवी के अलग-अलग स्वरूपों (Different forms of Goddess are worshiped) की पूजा की जा रही है. विधि-विधान से अनुष्ठान किया जा रहे हैं और मां स्वरूपा शक्ति (mother form power) के इस केंद्र बिंदु को देवी दुर्गा, देवी अंबा, जगत माता, भवानी और ऐसे न जाने कितने अनगिनत नामों से पुकारा जा रहा है. शक्ति ने जब अपने निराकार रूप को किसी देवी के साकार रूप में बदला तो उनका लक्ष्य था कि वह बुराई के असंतुलन को कम करें और धर्म की फिर से स्थापना करें. बुराई पर अच्छाई की इस जीत और धर्म की फिर से स्थापना का परिणाम ऐसा हुआ कि देवी के सबसे प्रचलित स्वरूप महिषासुर मर्दिनी (Mahishasura Mardini) के नाम से जाना गया. महिषासुर अधर्म, अन्याय और अभिमान का प्रतीक है, देवी ज्ञान और सकारात्मक शक्ति का प्रतीक हैं. ज्ञान ने जब अभिमान का मान मर्दन किया तो वह महिषासुर मर्दिनी कहलाईं।


राजा सुरथ और समाधि वैश्य को शक्ति का यह रहस्य बताते हुए महर्षि मेधा देवी के आगे के स्वरूपों का वर्णन करते हैं. इसी क्रम वह पहले अध्याय मधु-कैटभ के मारे जाने की कथा कहते हैं और दूसरे अध्याय में वह बताते हैं कि कैसे देवताओं ने महिषासुर के अत्याचार से दुखी होकर त्रिदेवों के साथ मिलकर देवी का सृजन किया. सभी देवताओं की आत्मा से एक तेज प्रकट हुआ और वह मिलकर एक कन्या के रूप में प्रकट हुआ. फिर सभी देवताओं ने देवी को अपने अस्त्र-शस्त्र दिए और दिव्य रत्न आभूषण देकर उन्हें सजाया. इसके बाद सभी देवताओं ने मिलकर देवी की स्तुति की, तब देवी ने त्रिदेवों की ओर देखते हुए पूछा कि, हे त्रिदेवों, मेरा सृजन क्यों किया गया है, मुझे क्यों पुकारा गया है और मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है?

तब भगवान विष्णु ने उनकी स्तुति करते हुए माता को उनके स्वरूप का रहस्य बताया. उन्होंने कहा- आप तो वैसे भी सब जानती ही हैं, क्योंकि महाविद्या आप ही हैं और ब्रह्ना की ब्राह्मी शक्ति भी आप हैं. वेदों की भाषा और उनकी ऋचाएं भी आप हैं, मंत्र भी आप हैं और मंत्र से आह्वान किए जाने वाले देवताओं की शक्ति और यज्ञ की अग्नि भी आप ही हैं. मेरी योगनिद्रा भी आप हैं और संसार का वैभव बनकर उसका पोषण करने वाली वैभवलक्ष्मी भी आप हैं. महादेव शिव के साथ आपने ही सती और पार्वती बनकर उनकी पत्नी बनना स्वीकार किया है. ये सब आपके ही अंश हैं आप संपूर्ण हैं. अब जब आपकी इच्छा से बने इस संसार में आपका स्थापित धर्म डिगने लगा है और हमारे संभाले भी नहीं संभल रहा है तो इसलिए अब आपको आना ही पड़ा. आप हमें महिषासुर के अत्याचार से मुक्ति दिलाइए।

इसके बाद देवी अंबा ने ही देवताओं की करुण पुकार सुनकर उन्हें अभयदान दिया और यह आश्वासन दिया कि वह दानवों और आसुरी शक्तियों का विनाश करके संसार में धर्म की स्थापना करेंगी. यह कथा दुर्गासप्तशती के दूसरे अध्याय की है. देवताओं ने जब करुण पुकार से माता से रक्षा की याचना की और उसे महिषासुर के अत्याचारों के बारे में बताया तो देवी ने भीषण हुंकार किया. उनके क्रोध से ज्वालामुखी फट पड़े समुद्र में ऊंची-ऊंची लहरें उठने लगीं. आकाश भयंकर शब्द से गूंज गया।

इस भयंकर शब्द की गर्जना महिषासुर के कानों में भी पड़ी तो वह क्रोध के फुंफकार उठा. वह अपने सेना समेत उस दिशा में बढ़ चला जहां से यह शब्द आ रहा था. असुर ने एक षोडशी (16 वर्ष की) कन्या को सुंदर वस्त्रों और सुंदर अलंकारों सहित देखा. वह उसके सौंदर्य पर मोहित हो उठा और विवाह के लिए इस कन्या को पकड़कर लाने का आदेश अपने सेनापतियों को दिया. महिषासुर के सेनापति चारों ओर से घेरते हुए देवी को पकड़ने चले तो देवी ने सिर्फ एक फूंक से पूरी सेना को उड़ा दिया. इसके बाद असुरों ने देवी पर आक्रमण कर दिया. महिषासुर के सेनापति चाक्षुर, विडाल, उदाग्न, चामर, महाहनु और असिलोमा थे, जो अपनी-अपनी बड़ी-बड़ी सेनाओं के साथ रण में आ डटे. असुरों की इस भारी भीड़ को देखकर देव सिंह से छलांग लगाकर उनके बीच कूद पड़ीं और सभी का संहार करने लगीं. उनके वाहन सिंह ने भी कितने ही असुरों को अपना आहार बना लिया. क्षण भर में देवी ने भारी असुर सेना का अंत कर दिया और बची-खुची सेना भाग खड़ी हुई।

इसके बाद देवी ने सभी असुर सेनापतियों के शस्त्र काट दिए और उन्हें रण से भागने का मौका दिया, लेकिन चाक्षुर ने देवी पर शक्ति प्रयोग किया. तब देवी ने बाणों से उसका सिर भेद दिया. चिक्षुर के मरते ही चामर शूल लेकर दौड़ा आया और देवी पर प्रहार कर दिया. अब देवी के क्रोध की सीमा न रही और गुस्से में उनका मुख भी काला पड़ गया. सप्तशती में इसे ही भद्रकाली अवतार कहा गया है. भद्रकाली ने चामर का त्रिशूल काट दिया और अपना त्रिशूल उसके सीने में उतार दिया. इसी बीच उदाग्न को देवी के सिंह ने चीर डाला और कराल देवी की मुट्ठी से ही मारा गया. अब आगे विडाल का सिर तलवार से काट डाला, उदास्य, उग्रवीर्य और महाहनु त्रिशूल से मारे गए और उनके मरते ही देवी ने पीछे से प्रहार करने आए उद्धत, भिंदीपाल और वाष्पकल को गदा के एक-एक प्रहार से मार गिराया।

अपनी सेना और सेनापतियों के इस तरह नष्ट हो जाने के बाद महिषासुर बहुत क्रोधित हुआ और अपना रूप बदल-बदल कर युद्ध करने लगा. अभिमान में वह यह भी भूल गया कि उसकी मृत्यु कुमारी कन्या से होनी है. वह कभी सिंह बनकर दहाड़ता, लेकिन जब देवी ने उस पर शूल प्रहार किया तो तुरंत ही वह भीमकाय असुर बनकर प्रहार करने लगा. देवी ने उसे पाश से बांधा तो वह हाथी का रूप धारण कर, देवी के वाहन सिंह को घसीटने की कोशिश करने लगा. देवी ने उसकी सूंड़ काट डाली तो वह डरावना भैंसा बनकर युद्ध करने लगा और अपने खुरों से धरती को खोदने लगा, इससे धरती हिलने लगी. इस तरह युद्ध चलता जा रहा था और देवी असुर के माया को समाप्त करती जा रही थीं. एक समय ऐसा आया कि जब देवी ने कहा ठहर मूर्ख, जब तक मैं मधुपान कर रही हूं तबतक तू और हंस ले. ऐसा कहकर देवी ने मधुपान किया. ठीक इसी समय महिषासुर एक बार फिर भैंसा बनकर देवी पर आक्रमण करने लगा. तब मधु पीते हुए देवी उछलकर उसके पीठ पर जा पहुंची और उसकी गरदन पर प्रहार कर दिया. असुर उसी कटी गर्दन से आदमकद रूप से बाहर आने ही वाला था कि देवी ने इसी क्षण उसका सिर काटकर धड़ से अलग कर दिया।

महर्षि मेधा ने कहा कि, महिषासुर के अंत के साथ ही आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी और देवता हर्षित होकर देवी की स्तुति करने लगे.
ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां
शड्‌खं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्।
सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं
ध्यायेद् दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः॥
शक्रादयः सुरगणा निहतेऽतिवीर्ये
तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या।
तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा
वाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्‌गमचारुदेहाः॥
देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः॥

देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर देवी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा कि हे देवताओं, मैं तुमसे प्रसन्न हों, अब तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वह भी मुझसे कहो. तब देवताओं ने कहा कि, हमारा शत्रु महिषासुर मारा गया, महेश्वरि ! यदि आप हमें और वर देना चाहती हैं, तो यहदें कि हम जब – जब आपका स्मरण करें, तब – तब आप दर्शन देकर हमलोगों के महान संकट दूर कर दिया करें. जो मनुष्य इस स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करे, उसे वित्त, समृद्धि और वैभव देनेके साथ ही उसकी धन और स्त्री आदि सम्पत्ति को भी बढ़ाने के लिये आप सदा हमपर प्रसन्न रहें।

इस तरह तीसरे और चौथे अध्याय में देवी के द्वारा महिषासुर का वध करने, देवताओं को अभय देने और संकट पड़ने पर रक्षा का आश्वासन देने की कथा का वर्णन है. महर्षि मेधा से देवी के चरित्र की कथा सुनकर राजा सुरथ और समाधि वैश्य को बहुत संतोष हुआ. राजा सुरथ के मन में देवी के विषय में और अधिक जानने की इच्छा हुई. उन्होंने पूछा, हे ऋषि, तो क्या फिर से कोई संकट देवताओं पर आया? क्या देवी ने ही उस संकट को दूर किया, यह सब कैसे हुआ? कृपया इसकी भी कथा कहें. तब महर्षि मेधा ने देवी की अन्य कथाओं का वर्णन किया, जो दुर्गा सप्तशती के अगले अध्याय लिखे जाने का आधार बने।

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