ब्‍लॉगर

स्वतंत्र भारत में स्वराज की प्रतिष्ठा

– गिरीश्वर मिश्र

आजादी मिलने के पचहत्तर साल बाद देश स्वतंत्रता का ‘अमृत महोत्सव’ मना रहा है तो यह विचार करने की इच्छा और स्वाभाविक उत्सुकता पैदा होती है कि स्वतंत्र भारत का जो स्वप्न देखा गया था वह किस रूप में यथार्थ के धरातल पर उतरा। स्वाधीनता संग्राम का प्रयोजन यह था कि भारत को न केवल उसका अपना खोया हुआ स्वरूप वापस मिले बल्कि वह विश्व में अपनी मानवीय भूमिका को भी समुचित ढंग से निभा सके। देश या राष्ट्र का भौगोलिक अस्तित्व तो होता है पर वह निरा भौतिक पदार्थ नहीं होता जिसमें कोई परिवर्तन न होता हो। वह एक गत्यात्मक रचना है और उसी दृष्टि से विचार किया जाना उचित होगा।

बंकिम बाबू ने भारत माता की वन्दना करते हुए उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ‘सुजलां सुफलां मलयज शीतलां शस्य श्यामलां मातरं वन्दे मातरं’ का अमर गान रचा था। ‘सुखदां वरदां मातरं’ के स्वप्न के साथ यह मंत्र पूरे भारत के मानस में तब से गूंज रहा है और आज भी ओज और प्रेरणा का भाव भरता है। श्री अरविंद ‘भवानी भारती ‘ रच रहे थे और वन्दे मातरम् प्रकाशित कर रहे थे । भाव जगत को कर्म के स्तर पर लाने के लिए गांधी जी ने आगे बढ़ कर ‘हिंद स्वराज’ में भारत के भविष्य का खाका तैयार किया। उसी दौरान मलयालम कवि सुब्रह्मण्य भारती स्वदेश गीत रच कर स्वतंत्रता का आह्वान कर रहे थे। तभी मैथिलीशरण गुप्त भारत के गौरवशाली अतीत, तत्कालीन परतंत्र भारत के विषम वर्तमान और देश के उज्ज्वल भविष्य की कामना के साथ ‘भारत-भारती’ रच रहे थे और आवाहन कर रहे थे कि “हम कौन थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी” जैसे प्रश्नों पर मिल बैठ विचार करें। जयशंकर प्रसाद ने ‘स्कन्द गुप्त’ में हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती – स्वयं प्रभा समुज्वला स्वतंत्रता की पुकार सुन कर प्रशस्त पुण्य पंथ पर बढ़ चलने का आह्वान किया था। मातृ वन्दना करते हुए निराला जी ने कहा था ‘नर जीवन के स्वार्थ सकल, बलि हों , तेरे चरणों पर, मां , मेरे श्रमसिंचित सब फल’। वे ‘भारति जय विजय करे, कनक–शस्य–कमल धरे ’ की कामना कर रहे थे।

एक सजीव रचना या कहें एक जैविक इकाई के रूप में देश अपने परिवेश से ऊर्जा प्राप्त करता है और अपनी सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया से नियमित होता था। शरीर में मस्तिष्क की तरह सब तरह की गतिविधियों को संगठित और परिचालित करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। इस राष्ट्रजीव की गतिविधियां विचारणीय हैं। भारत राष्ट्र का जन्म स्वराज की लड़ाई के बीच हुआ था। ‘स्वराज’ के विचार को देखने-समझने के कई तरीके हैं। आमतौर पर इसका अर्थ ‘अपना राज’ लगाया जाता है। सतही तौर पर व्यक्ति और समूह का भेद किया जाता है। समूह और समुदाय की संरचना के बारे में सोचते हुए व्यक्ति खुद को समुदाय में शामिल नहीं करता है।

कुछ समझदार लोग समूह की आवश्यकता एक उपाय और उपकरण के रूप में देखते हैं जो व्यक्ति के उपयोग के लिए सोचा और बनाया जाता है। उसके साथ व्यक्ति उसी हद तक जुड़ता है जहां तक उसका अपने लाभ का अवसर सुरक्षित होता है। यह प्रकट और तात्कालिक भी हो सकता है और प्रच्छन्न या दूरस्थ भी हो सकता है। अंतत: व्यक्ति का लाभ ही इसका निर्णय करता है। व्यक्ति अपने लाभ को अधिकाधिक बढ़ाना चाहता है। समस्या तब खड़ी होती है जब सामुदायिक उपक्रम को अपने लाभ के अधीन कर दिया जाता है। आज राजनीतिक दलों के अधिपति किस तरह एक सामान्य जीवन जीते-जीते अध्यापक, कृषक या क्लर्क की जिंदगी से आरम्भ कर अपार सम्पत्ति एकत्र करते हैं और करोड़ों अरबों की चल-अचल घोषित-अघोषित सम्पत्ति के स्वामी बन बैठते हैं यह ऐसा प्रकट सत्य है जिस पर चर्चा नहीं होती है। यह इतना लुभाने वाला होता है कि समाजवादी हों या साम्यवादी या कोई और वादी हर किसी पर पर आज अर्थोपार्जन का भूत सवार है।

गांधी जी के विचार में राजनीति किसी भी तरह निरपेक्ष नहीं हो सकती और न स्वतंत्रता ही। लोक और तंत्र की संगति होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में तंत्र ऐसा हो जो लोक की आकांक्षाओं को मूर्त रूप दे सके। यही लोकशाही आजादी या पूर्ण स्वराज एक रचनात्मक सामाजिक जीवन की विधा का नाम है। स्वराज के रणनीतिकार गांधी ने इस प्रश्न पर गहन विचार करते रहे कि स्वराज किस लिए है। इसके लिए उनके विचार और अनुभव की रेंज बड़ी व्यापक थी। वे उसे आजमाते थे और उस पर टिके रहते थे। उनकी कसौटी नैतिकता थी। आज थोड़ी गहनता से विचार करें तो सामाजिक जीवन की सबसे दुखती रग नैतिकता की लगातार गिरावट है। उस पर से लोगों का भरोसा टूटना बड़ी भारी क्षति है जो समाज की आधार-रचना को अंदर से खोखला कर रही है। यह मनोभाव कि बिना सुविधा शुल्क के कोई काम करेगा असम्भव सा होता जा रहा है। जमीन-जायदाद की रजिस्ट्री, कचहरी, पुलिस थाना, चुंगी, परिवहन केंद्र आदि तमाम जगहें ऐसी हैं जहां सामान्य काम स्वतः होता ही नहीं है।

आज बड़े अधिकारी और जिम्मेदार लोग जैसे पुलिस महानिदेशक, राज्य के गृहमंत्री, सचिव, मुख्य मंत्री, मुख्य सचिव तक पदासीन जैसे लोग भ्रष्टाचार के मामलों में दोषी पाए जा रहे हैं और निर्ल्लज भाव से सामाजिक जीवन में उपस्थित रहते हैं। वे ‘सब कुछ चलता है’ और कुछ भी हो सकता है’ के तर्ज पर काम करते हैं। आर्थिक कदाचार के मामले अब हज़ारों करोड़ के सामने आ रहे हैं। आपराधिक प्रवृत्ति के लोग अवसर की ताक में रहते हैं और नई तकनीकी व्यवस्था में उनको हाथ साफ करने का बड़ा अवसर मिल रहा है।

स्वतंत्रता मिलने के बाद देश में अंग्रेजों द्वारा लागू अनेक व्यवस्थाओं और कानूनों की परिपाटी को हमने लगभग ज्यों का त्यों स्वीकार किया और उनमें जरूरी बदलाव नहीं ला सके। उनके द्वारा जो ढांचा बना था उसमें विविधता, जिज्ञासा, क्रियाशीलता और भविष्य रचने की इच्छा को लेकर प्रायः तटस्थता का ही भाव बना रहा। बीतते समय के साथ आधुनिक होने की आवश्यकता प्रत्येक समाज को होती है। चूंकि भारत का यह नुस्खा आयातित था। वह सांस्कृतिक संवेदना के अभाव के कारण असंगत था परन्तु दो सदियों लंबा परिचय होने के कारण सरल लगा और शेष विश्व के साथ जुड़ने के लिए उपयुक्त मान लिया गया और शिक्षा व्यवस्था और मानसिक बोध उसी से अनुबंधित हो गया। इन सबके बीच अनेक चुनौतियों को स्वीकार करते हुए देश आज विकास की दहलीज पर खड़ा है और सब कुछ के बावजूद देश की प्रतिभा और क्षमता का प्रमाण हमारे सामने है।

तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो अपने दम खम की बदौलत भारत ने अनेक क्षेत्रों में अपनी स्थिति मजबूत की है और प्रतिष्ठा भी अर्जित की है। अंतरिक्ष विज्ञान, स्वास्थ्य और डिजिटल प्रबंधन के क्षेत्र में आशातीत प्रगति दर्ज हुई है। सड़क, रेल और वायु मार्ग से आवागमन की सुविधाओं में वृद्धि हुई है। आधारभूत सुविधाओं को मुहैया कराने में भी हम निश्चित रूप से कई कदम आगे बढ़े हैं। परन्तु हम सभी राजनीतिक जीवन में नैतिकता और शुचिता के पतन के साक्षी हो रहे हैं। राजनैतिक सत्ता पर अंकुश कितना जरूरी है यह आपात काल जैसी घटना से प्रकट है। लालफीताशाही और भ्रष्टाचार में फंस कर संसाधनों का असमान वितरण दिनोंदिन दृढ़ हुआ है। इसी तरह विकेन्द्रीकृत उत्पादन का विचार भी उपेक्षित ही बना आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना तभी होगी जब आय का सामान वितरण हो, और सभी को आजीविका मिले, सभी की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो और सभी सुखी हो। समानता , बंधुत्व , समरसता और एकजुटता में भी कमी आई है। अस्पृश्यता भी नए नए रूप में जन्म ले रही है। लोगों के मन में आक्रोश और असंतोष भी पैदा हो रहा है।

देशकाल और समाज के विपरीत होने पर भी उसकी बाध्यता पंगु बनाने वाली है। वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के आवरण में उपनिवेशीकरण की नई फसल उग रही है और उसकी उपज परोसी जा रही है। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप शिक्षा, संस्कृति, साहित्य और कला हर क्षेत्र में आज पश्चिम से आगत मानक बीस पड़ रहे हैं और हम पर निर्भर होते जा रहे हैं। इसके दुष्परिणाम भी दिख रहे हैं और सृजनात्मकता और गुणवत्ता में कमी भी दिख रही है। प्रदूषण, मंहगाई, बेरोजगारी, अस्वास्थ्य, असुरक्षा, भ्रष्टाचार और हिंसा की घटनाओं में वृद्धि की गंभीरता को न पहचानते हुए सत्ता समीकरण के खेल में सभी व्यस्त है। देशसेवा की जगह आत्म-गौरव का विस्तार ही एक मात्र उद्देश्य होता जा रहा है। लोक संग्रह और सर्वोदय की जगह राजनीति का व्यापारीकरण तेजी से हो रहा है।

लोक-लुभावन नारों और वादों से मतदाताओं को रिझाने के और सरकार बनाने के बाद समष्टि की चिंता पृष्ठभूमि में चली जाती है। रचनात्मक कार्यक्रम और नैतिकता के साथ जीवन जीने का कोई विकल्प नहीं है। स्वदेशी को अपना कर अपने संसाधनों से देश को समृद्ध बनाने से आत्म निर्भरता और रोजगार दोनों मोर्चों पर आगे बढ़ा जा सकेगा। देश की शक्ति उसका लोक है सत्य, धैर्य, और, स्वाभिमान और देश के लिए समर्पित लोक से ही भारत स्वतंत्रता का आनंद पा सकेगा। संविधान को अमल में लाने वाले लोग जिम्मेदारियों का वहन ठीक से करें। स्वराज न होने से स्वतंत्रता स्वच्छंदता बन जाती है। पारदर्शी और जनकल्याणकारी लोकनीति में ही स्वराज की आत्मा बसती है। यह एक शुभ लक्षण है कि वर्तमान सरकार स्वदेशी, आत्मनिर्भरता और स्थानीयता को तरजीह देने के लिए प्रतिबद्ध हो रही है।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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