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यह सामाजिक मुद्दा, इसे संसद पर छोड़ देना चाहिए; समलैंगिक विवाह पर केंद्र का पक्ष

नई दिल्ली: समलैंगिक विवाह के मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. बुधवार को केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए सॉलिसीटर जनरल ने कहा कि ये एक सामाजिक मुद्दा है. अदालत को इस मामले पर विचार करने के लिए संसद पर छोड़ देना चाहिए. संसद ने तमाम मुद्दों पर चर्चा की और कानून भी बनाए हैं. सरकार ने कोर्ट से कहा कि याचिकाकर्ता को विवाह के लिए सामाजिक मान्यता चाहिए. इसलिए यह एक निर्धारित क्लास का मसला है.

सॉलिसीटर जनरल ने कहा कि इसके बहुत से प्रभाव होंगे, जो सिर्फ सामाजिक नहीं है. आप हमारी दलीलों पर ध्यान दें और इसे सिरे से खारिज न करें. उन्होंने कहा कि यह मसला सिर्फ विवाह की मान्यता से संबंधित नहीं है. इस मुद्दे को लेकर चर्चा की जरूरत है और ये चर्चा हर वर्ग से आनी चाहिए. यह एक ऐसा सवाल है जो पहली बार अदालत के सामने आया है. इसे पहले संसद के सामने होना चाहिए.

एसजी तुषार मेहता ने कहा कि कई कानूनों पर कई प्रकार के अनपेक्षित प्रभाव होंगे. इसलिए इस मुद्दे पर राज्य की विधानसभाओं, नागरिक समाज समूहों में बहस की जरूरत है. कानूनों के 160 उदाहरण, जिन्हें याचिका की मांग के साथ मेल नहीं किया जा सकता है.


सरकार की ओर से कोर्ट में दलील दी गई है कि इससे कई कानून प्रभावित होंगे. इस कोर्ट की विधायी नीति पारंपरिक पुरुष और पारंपरिक महिला को विवाह के लिए मान्यता देने की रही है. विवाह एक पूर्ण (absolute) अधिकार नहीं है. कानून से यह निर्धारित किया गया है कि पुरुष 21 और महिला 18 साल की होने पर ही विवाहित होंगे.

‘इससे कई समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं’
मेहता ने आगे कहा कि इस मुद्दे पर एक बहस होनी चाहिए और अलग-अलग हितधारकों से विचार-विमर्श किया जाना चाहिए. विभिन्न कानूनों पर प्रभाव पर भी विचार किया जाना चाहिए. मैं उन समस्याओं का उदाहरण दूंगा, जो उत्पन्न होंगी और केवल संसद ही उनका ध्यान रख सकती है.

‘यह असंहिताबद्ध है’
एसजी ने कहा कि अन्य धर्मों के लिए कुल मिलाकर यह असंहिताबद्ध है. शादी को जो सामाजिक दर्जा मिला है, मैं उस पर हूं. जैसे ही कोई अधिकार, जो बिना मान्यता के पहले से मौजूद था. उसे मान्यता मिल जाती है, वह विनियमित हो जाता है. कानून निर्धारित करता है कि शादी कब करनी है, स्वायत्तता चली जाती है.

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