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क्‍या है खालिस्तान संगठन ‘वारिस पंजाब दे’ और कब उठी थी इसकी मांग

नई दिल्‍ली (New Delhi)। संगठन ‘ वारिस पंजाब दे’ (Organization waris punjab de) के मुखिया अमृतपाल सिंह (Amritpal Singh) के बेहद करीबी माने जाने वाले चार खालिस्तानी समर्थक अलगाववादियों (pro-Khalistani separatists) को गिरफ्तारी के बाद सुरक्षा कारणों के चलते पंजाब से डिब्रूगढ़ स्थानांतरित कर दिया गया है। यह चारो कड़ी सुरक्षा में रविवार को डिब्रूगढ़ की सेंट्रल जेल में शिफ्ट कर दिया गया।

बता दें कि ‘वारिस पंजाब दे’ के चीफ अमृतपाल की गिरफ्तारी को लेकर पंजाब पुलिस तीन दिन से प्रयास कर रही है। हालांकि उसके लगभग सभी साथी गिरफ्तार किए जा चुके है, बस उसे पकड़ना बाकी है। अमृतपाल सिंह खालिस्तानी समर्थक है और भारत से अलग राज्य खालिस्तान की मांग उठाने वाला भी।



खालिस्तान नाम 43 साल पहले पंजाब के जगजीत सिंह चौहान ने दिया था। उसने पंजाब से ब्रिटेन जाकर खालिस्तान नेशनल काउंसिल की स्थापना भी की, लेकिन, यह बात इतनी ही पुरानी नहीं है। 1929 में कांग्रेस अधिवेशन के दौरान जब मोतीलाल नेहरू ने पूर्व स्वराज्य की मांग उठाई तो इसके विरोध में तीन ग्रुप सामने आए थे। विरोध करने वालों में एक थे शिरोमणि अकाली दल के मास्टर तारा सिंह। तारा सिंह ही थे, जिन्होंने सिखों के लिए अलग राज्य की मांग पहली बार उठाई थी।

बात 31 दिसंबर 1929 की है, जब लाहौर में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का अधिवेशन चल रहा था। अंग्रेजों की हुकूमत से जनता त्रस्त हो रही थी। देश के अलग-अलग हिस्सों में हिंसक आंदोलन हो रहे थे। कांग्रेस के अधिवेशन में मोतीलाल नेहरू ने पूर्ण स्वराज्य की मांग का प्रस्ताव रखा। लेकिन, इस प्रस्ताव के विरोध में तीन लोग खड़े हुए। पहले थे पाकिस्तान के जन्मदाता मोहम्मद अली जिन्ना, दूसरा दलितों के मसीहा भीमराव अंबेडकर और मास्टर तारा सिंह। तारा सिंह शिरोमणि अकाली दल के प्रमुख थे। उन्होंने अधिवेशन में सिखों के लिए अलग राज्य की मांग उठाई, हालांकि ऐसा कहा जाता है कि उस वक्त जिन्ना की बात को छोड़कर दोनों समूहों की मांग को गौर नहीं किया गया। अंग्रेज भी इसके पक्ष में नहीं थे। फिर आया आजादी का वक्त। 1947 में जब भारत और पाकिस्तान के लिए हिन्दू और मुस्लिमों में दंगे भड़क रहे थे। उस दौरान पंजाब में सिखों का आंदोलन चरम पर था। मास्टर तारा सिंह के नेतृत्व में इस आंदोलन को पंजाब सूबा आंदोलन नाम दिया गया। रिपोर्ट बताती है कि पंजाब में बहुत खून-खराबा भी हुआ।

पंजाब के तीन हिस्से पर नहीं थमा आक्रोश
19 साल तक चले आंदोलन के बाद 1966 में आखिरकार तत्कालीन केंद्र सरकार ने मांग को स्वीकारा और पंजाब के तीन हिस्से कर दिए। पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़। ऐसा माना जाता है कि सिख इंदिरा गांधी के फैसले से सहमत नहीं थे। सिखों के लिए अलग राज्य की मांग जारी रही।

खालिस्तान नेशनल काउंसिल
1969 में हुए पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान पंजाब के युवा जगजीत सिंह की एंट्री हुई। रिपब्लिक पार्टी ऑफ इंडिया के उम्मीदवार के तौर पर जगजीत सिंह चुनाव में खड़े हुए, लेकिन हार मिलने के बाद वह पंजाब से ब्रिटेन चले गए। वहां जाकर उन्होंने खालिस्तान नेशनल काउंसिल की स्थापना की। यहीं से जगजीत सिंह के नेतृत्व में सिखों के लिए अलग देश खालिस्तान की मांग की नींव पड़ी। इस बीच वह भारत भी आए लेकिन, फिर वापस ब्रिटेन चले गए।

फिर आया भिंडरावाले
1966 में इंदिरा गांधी ने हालांकि पंजाब को अलग राज्य बना दिया। कुछ वक्त पंजाब में शांति तो रही लेकिन, फिर 1978 में अकाली दल और निरंकारियों के बीच झड़प में मौत के ताडंव के बाद जनरैल भिंडरावाले की एंट्री हुई। वह जगह-जगह भड़काऊ भाषण देने लगा। 80 के दशक में पंजाब एक बार फिर खालिस्तान की मांग को लेकर खून-खराबा देख रहा था। राज्य में खुलेआम कत्लेआम हो रहे थे। इसके पीछे लोग भिंडरावाले को जिम्मेदार ठहराते हैं लेकिन, कोई सबूत न होने के कारण उसकी गिरफ्तारी नहीं हो सकी। 1983 में पंजाब के तत्कालीन डीजीपी की हत्या और रोडवेज बस में हिन्दुओं के कत्लेआम के बाद इंदिरा गांधी की सरकार ने पंजाब की सरकार बर्खास्त की और राष्ट्रपति शासन लगा दिया। अब भिंडरावाले ने स्वर्ण मंदिर की शरण ले ली। वह यहीं से अपना काम करने लगा।

ऑपरेशन ब्लू स्टार
इंदिरा गांधी की सरकार के पास ऐसे खुफिया इनपुट थे कि खालिस्तान की मांग को लेकर पंजाब में बड़े पैमाने पर हिंसा होने वाली है। ऐसे वक्त में भिंडरावाले पर नकेल कसना जरूरी हो गया था। सरकार ने इस पर लगाम कसने के लिए ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू किया। 1984 को शुरू हुए ऑपरेशन ब्लू स्टार में सरकार के आदेश पर सेना ने स्वर्ण मंदिर की घेराबंदी कर दी। रेल और बस सेवाएं रोक दी गई। मीडिया कवरेज पर पाबंदी लगा दी गई। कई दिनों तक खून-खराबे के बाद आखिरकार 6 जून को भिंडरावाले की हत्या कर दी गई।

भिंडरावाले की हत्या का इंतेकाम
भिंडरावाले की हत्या को कुछ महीने बीत चुके थे लेकिन, पंजाब में खून-खराबा खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था। इस बीच इंदिरा गांधी की एक सभा के दौरान उनके सुरक्षाकर्मियों ने गोली मारकर हत्या कर दी। प्रधानमंत्री की हत्या से देश में माहौल और खराब हो गया। देश के कई हिस्सों में सिख विरोधी दंगे शुरू हो गए। एक अनुमान के मुताबिक, अकेले दिल्ली में लगभग 3000 सिखों की हत्या कर दी गई। इसके जवाब में 23 जून 1985 को एयर इंडिया विमान को बम लगाकर उड़ा दिया गया। विमान में सवार सभी 329 यात्रियों और क्रू मेंबर्स की मौत हो गई। इस हमले की जिम्मेदारी बब्बर खालसा ने ली। उसने इसे भिंडरावाले की हत्या का इंतेकाम बताया। 1986 को ऑपरेशन ब्लू स्टार के कमान संभालने वाले एएस वैद्य को मार दिया गया। इसकी जिम्मेदारी खालिस्तान कमांडो फोर्स ने ली।

अभी भी खालिस्तान जिंदा!
हालांकि सरकार का दावा है कि अब देश में खालिस्तान आंदोलन पूरी तरह से खत्म हो चुका है लेकिन, देश के कई हिस्सों में ऐसे आपराधिक तत्व अभी भी जिंदा है। ब्रिटेन और कनाडा में भी खालिस्तान के बड़े पैमाने पर समर्थक माने जाते हैं। ये लोग लगातार खालिस्तान की मांग उठाते रहते हैं।

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