ब्‍लॉगर

जातीय राजनीति की मानसिकता से कब उबरेंगे !

– गिरीश्वर मिश्र

लोकतंत्र की व्यवस्था में राजनीति समाज की उन्नति के लिए एक उपाय के रूप में अपनाई गई । इसलिए सिद्धांततः उसकी पहली और अंतिम प्रतिबद्धता और जिम्मेदारी जनता और देश के साथ बनती है । दुर्भाग्यवश आज की दलगत राजनीति के चलते एक-दूसरे के साथ उठने वाली वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा के बीच नेतागण राजनीति के इस बड़े प्रयोजन से आसानी से आंख मूंद लेते हैं । दूसरी ओर वे ऐसे मुद्दों और प्रश्नों को लेकर चिंताओं और विमर्शों को जीवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते जिनके सहारे उनके पक्ष की कुछ पुष्टि होती दिखती है या फिर मीडिया में चर्चा के बीच बने रहने के लिए कुछ जगह मिल जाती है ।


इस सिलसिले में ताजी हलचल जाति की प्रतिष्ठा को लेकर मची हुई है । हमारे राजनेता जाति को लेकर बड़े ही संवेदनशील रहते हैं क्योंकि वे एक ओर जाति का विरोध करते नहीं थकते क्योंकि वह अनेक विषमताओं का कारण मानी जाती है । एक सामाजिक समस्या के रूप में जाति का प्रकट विरोध किया जाता है । पर यह बात वे सिद्धान्त में ही स्वीकार की जाती हैं । व्यवहार के स्तर पर नेतागण जमीनी हकीकत को पहचानते और जानते हैं कि किस तरह जाति बिरादरी रिश्तों-नातों को आयोजित करती है । जाति एक राजनीतिक हथियार भी है । जाति की इस सच्चाई से वे भलीभांति वाकिफ हैं और उसकी रक्षा के लिए जी जान से जुटे रहते हैं ।

वे जानते हैं कि अपने लिए वोट उसी के आधार पर बटोरना होगा । विचार और व्यवहार की यह दुविधा देश की नियति हो चुकी है । यह एक ऐसी खाई है जिसे भारतीय राजनीति पार करने या पाटने के लिए अपने को अभी तक तैयार नहीं कर सकी है । इस तरह जो जातिविरोधी हैं वे जाति की जयकार करते भी नहीं अघाते । उनका असमंजस वाला विचार यही है कि जाति ठीक तो नहीं है पर जाति जाए भी नहीं । और इस तरह जाति-विरोध और जाति-सुरक्षा दोनों पर एक ही वक्ता सज धज कर मंच पर बैठे मिलते हैं और ‘ संदर्भ ‘ की दुहाई दे कर अपने छद्म को सही साबित करने की जुगत करते रहते हैं । अवसर निकाल कर जाति को आसानी से ‘धर्म’से जोड़ दिया जाता है , फिर जाति और वर्ण को इच्छानुसार मिला दिया जाता है और उसे पाप मानते हुए अपनी सुविधानुसार किसी के भी ऊपर ठीकरा फोड़ा जाता है ।

यह कहानी जब-तब दुहराई जाती रहती है, खासतौर पर तब जब हाथ में कुछ नहीं रहता और चुनाव आदि की सुनगुन के बीच बढ़ते वैचारिक शून्य को भरने की उतावली रहती है । इस बीच गोस्वामी बाबा तुलसीदास पर हाथ साफ किया जा रहा है । नेताओं को मीडिया में भी सनसनी लाने के बहाने चाहिए सो उन्हें व्याख्या- कुव्याख्या पेश करने का अवसर मिलता है । इन सबके बीच अभिव्यक्ति की आजादी अज्ञान पर टिके वैचारिक प्रदूषण का एक अनोखा जरिया भी बनता जा रहा है । ऐसे में गोस्वामी तुलसीदास जैसे संत और उनकी वाणी को आरोपित करना और बिना समझे बूझे साहित्य से बहिष्कृत करने तक की संस्तुति देना अब बड़ा सरल हो गया है । अच्छा हो साहित्य के अध्ययन-विश्लेषण का कार्य साहित्यकारों को ही करने दिया जाए। व्यक्ति के रूप जो कोई कुछ करना और कहना चाहे उसके लिए वह जरूर स्वतंत्र है । यह चिंता का विषय है कि आज हवा हवाई बात करना एक राजनीतिक शगल होता जा रहा है । गैर जिम्मेदार तथ्यहीन बयानबाजी करते रहना राजनीति के खिलाड़ियों का जन्मजात अधिकार जैसा होता जा रहा है ।

इधर हुई चर्चा का लक्ष्य तुलसीदास जी का रामचरितमानस और फिर पंडित शब्द को बनाया गया । तुलसीदास जी की चौपाइयों को पिछली पांच सदियों में आम आदमी ने गले लगाया है और वे आज भी लोक की जनस्मृति में दर्ज है । उनका अर्थ अनर्थ किया जाता रहता है ।जहां तक पंडित शब्द का प्रश्न है उसका एक मात्र अर्थ वह व्यक्ति है जो बुद्धिमान हो । बुद्धि का विकास तो इस बात में होता है कि व्यक्ति बड़े सत्य को देख सके । जो सब प्राणियों में एक ही तत्व देख सके ( सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्ष्यते ) वह पंडित हुआ । भगवद्गीता की मानें तो पंडित समदर्शी होता है और जो भेद बुद्धि अपनाए वह बुद्धि से रहित होता है । इसी तरह धर्म शब्द का अर्थ वह नियम है जिससे सब कुछ धारण किया जाता है । जो भी सृष्टि में विद्यमान है उसका आधार धर्म है । वह सबको संचालित करने वाला तत्व है । धर्म का आदर और पालन करना व्यक्ति , समाज और समस्त विश्व के लिए कल्याणकारी है ।

व्यवहार में धर्म के अनेक अर्थ मिलते हैं जिनमें आंतरिक गुण , नैतिकता , कर्तव्य , आदर्श नियम , प्रकृति आदि प्रमुख हैं। निश्चय ही रेलिजन एक सीमित अर्थ का बोधक है । एक प्रमुख विचार यह भी है कि धर्म वह है जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। आचार , आनृशंस्य ( करुणा ), अहिंसा , सत्य को भी धर्म कहा गया है । साधारण धर्म , विशेष धर्म , सनातन धर्म , आपद धर्म , वर्णाश्रम धर्म भी होते हैं । धर्म का विचार गूढ़ है और परिस्थिति सापेक्ष होता है । धर्मशास्त्र , स्मृतियां , महाभारत आदि ग्रंथों में धर्म का विस्तृत विवरण मिलता है। धर्म , जिसे मनुष्यता का लक्षण कहा गया , धर्म के विचार के साथ न्याय न कर उसे सेकुलर का विरोधी घोषित कर रेलिजन का समानार्थी बना दिया गया ।

हमें धर्म शब्द का विवेक के साथ उपयोग करना चाहिए । रही बात तुलसीदास जी की और उनके धर्म और जाति के विवेक की तो खुद उन्हीं के शब्द याद करने की जरूरत है । वे अपने आराध्य श्रीराम से कहते हैं :
सो सब धर्म कर्म जरि जाऊ ।
जिहि न रामपद पंकज भाऊ ।।
जाति-पाति धनु धरमु बड़ाई ।
सब तजि रहे तुम्हहि लौं लाई ।।

हे राम जी ! जाति-पाति , धन , धर्म , बड़ाई , सब कुछ छोड़ कर जो तुममें लौ लगाए , आप वहीं रहो । जो आदमी धर्म से चिपका रहे , जाति से चिपका रहे , वहां न रहो , तुम्हारे लिए वहां जगह नहीं है , वहां रहो जहां यह सब छोड़ कर केवल तुममें ध्यान रहता है । राम में ध्यान का मतलब है सबके सुख-दुःख का ध्यान , सबकी आवश्यकता का ध्यान । राम का ध्यान समूचे जीवन को देखना है । उनका ध्यान करने का आशय है क्षुद्र सीमाओं का अतिक्रमण कर व्यापक होना है और मानवीय मूल्य को प्रतिष्ठित करना है । यही धर्म है और उससे निरपेक्ष नहीं हुआ जा सकता । लोभ और स्वार्थ से ऊपर उठाना धर्म का प्रयोजन है ।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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