ब्‍लॉगर

अखिल भारतीय न्यायिक सेवा की जरूरत

– लालजी जायसवाल

स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका किसी भी लोकतांत्रिक देश की रीढ़ के समान होती है। नीति आयोग ने सुझाव दिया था कि निचली अदालतों में न्यायाधीशों के चयन के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा की तर्ज पर अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन किया जाए, जिससे जजों की कमी से जूझ रही न्यायपालिका में युवाओं को आकर्षित किया जा सके। बहरहाल, अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के लिए केंद्र सरकार एक बार फिर सक्रिय हो रही है। केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू की अगले माह राज्यों के कानून मंत्रियों के साथ प्रस्तावित बैठक में इस मुद्दे पर चर्चा होने की संभावना है। गौरतलब है कि अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन का विचार कोई नया नहीं है। विधि आयोग तीन बार अपनी पहली, आठवीं और 116 वीं रिपोर्ट में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन की सिफारिश कर चुका है। यही वजह है कि कोरोना महामारी से प्रभावित न्यायिक व्यवस्था को गति देने के लिए अब केन्द्र सरकार ने देश में न्यायिक सेवा के स्वरूप को बदलने की तैयारी पर विचार शुरू कर दिया है। इसके गठन से हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट और जिला स्तर पर ज्यादा से ज्यादा युवा न्यायाधीशों को मौका मिलेगा।

बता दें कि अधीनस्थ न्यायपालिका में इस समय न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के 21 हजार,320 स्वीकृत पद हैं, जिनमें से करीब पच्चीस प्रतिशत रिक्त ही हैं। अखिल भारतीय सेवा के अभाव में उतनी नियुक्तियां नहीं हो पा रही हैं, जितने न्यायाधीशों की जरूरत है। देश में लंबित अदालती मामलों में अस्सी फीसद से अधिक जिला और अधीनस्थ अदालतों में हैं। यानी कि प्रत्येक न्यायाधीश के पास औसतन 1हजार,350 मामले लंबित हैं, जो प्रति माह 43 मामलों को मंजूरी देता है। वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर लगभग 17.72 जज हैं। यह अमेरिका की तुलना में सात गुना खराब है। उल्लेखनीय है कि विधि आयोग ने अपनी 120 वीं रिपोर्ट में सिफारिश की है कि प्रति दस लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या पचास होनी चाहिए। इसके लिए स्वीकृत पदों की संख्या बढ़ाकर तीन गुना करनी होगी क्यों कि आज भी अगर पूरे भारत के न्यायालयों (निचली) में लंबित मामलों पर ध्यान दिया जाए तो यह संख्या करोड़ों में नजर आती है। दुनिया के विकसित देशों पर ध्यान केंद्रित किया जाए तो पता चलता है कि आस्ट्रेलिया में प्रति दस लाख की आबादी पर जजों की संख्या बयालीस, कनाडा में पचहत्तर, ब्रिटेन में इक्यावन और अमेरिका में एक सौ सात है, लेकिन वही अगर भारत में देखा जाए तो प्रति दस लाख की आबादी पर सिर्फ ग्यारह जज हैं।

गौरतलब है कि कई बार सरकार न्यायिक गति को दुरुस्त करने के लिए कोशिश कर चुकी है। सरकार ने पिछले वर्षों में भी अखिल भारतीय न्यायिक सेवा परीक्षा कराने का प्रस्ताव रखा था। तब नौ हाईकोर्ट में इस प्रस्ताव का विरोध किया था, जबकि आठ ने प्रस्तावित ढांचे में बदलाव की बात कही थी। सिर्फ दो हाईकोर्ट ने सरकार के इस प्रस्ताव का इसका समर्थन किया था। इसके पहले 1961, 1963 और 1965 में मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन के पक्ष में प्रस्ताव आये लेकिन ये प्रस्ताव कागजो से आगे नहीं बढ़ सके। विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस तरह के परीक्षा कराने की सिफारिश की।

सवाल उठता है कि आखिर जब सब चाहते हैं कि देश भर में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा आयोग बने और युवा, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश के रूप में पहुंचे तो आखिर क्या वजह है कि लगातार साठ साल से ज्यादा समय से प्रस्ताव के बाद भी ऐसा आयोग नहीं बन पा रहा है? देश में कमजोर होती न्यायिक प्रणाली को सुधारने के बाबत अब न्यायिक नियुक्ति आयोग की गठन को परिणाम देने का समय आ गया है। इस सेवा के न लागू होने के एक कारण सीआरपीसी और सीपीसी के प्रावधानों को भी माना जा रहा है। इन प्रावधानों के तहत अधीनस्थ न्यायालयों में आदेश स्थानीय भाषा में भी किया जा सकता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि अखिल भारतीय न्यायिक नियुक्ति सेवा के लागू होने के बाद एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरण होने लगेगा और भाषा की समस्या आएगी। इसके लिए सरकार को अधीनस्थ अदालतों के न्यायिक कार्यों में स्थानीय भाषा के इस्तेमाल के तथ्य को ध्यान में रखते हुए इस सेवा के गठन के लिए प्रयास करना चाहिए। अभी ज़िला/अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायिक अधिकारियों की भर्ती,नियुक्ति,स्थानांतरण और सेवा की अन्य शर्तें भी संबद्ध राज्य सरकारें ही तैयार करती हैं। इसीलिए कुछ राज्य सरकारें और हाईकोर्ट को लगता रहा है कि अखिल भारतीय न्यायिक नियुक्ति सेवा हो जाने के बाद जजों की नियुक्तियों में उनकी भूमिकाएं सिमट जाएंगी। कुछ राज्य इसे संघीय ढांचे के खिलाफ भी मानते हैं,जिनके नाते अब तक अखिल भारतीय न्यायिक नियुक्ति सेवा का प्रस्ताव कागजों से आगे नहीं बढ़ पाया।

बता दें कि अगर अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन होता है तो जजों की नियुक्ति में अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के समान निष्पक्ष एजेंसी की भूमिका होगी। इससे न्यायिक सेवा में प्रतिभावान विधि स्नातक शामिल किए जा सकेंगे, जो सामान्यत: न्यायिक सेवा में भर्ती न होकर सरकारी और निजी क्षेत्र में अन्य ऐसे पदों की तलाश में रहते हैं, जहां उन्हें ज्यादा आर्थिक लाभ मिल सके। अखिल भारतीय न्यायिक सेवा आयोग लागू करने से ऐसी भी उम्मीद की जा रही है कि प्रतिभावान युवा कम उम्र में ही न्यायिक सेवा में आ जाएंगे। साथ ही देश के अलग-अलग राज्यों में न्यायिक सेवा में नियुक्ति और पदोन्नति में एकरूपता आ सकती है। न्यायिक सेवा आयोग बनने के बाद लगातार न्यायाधीशों की नियुक्ति में जो पक्षपात के आरोप लगते हैं, वह भी समाप्त हो जाएंगे।

‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2019’ कहती है कि न्यायिक व्यवस्था में महिलाओं की समुचित भागीदारी न होना चिंता का विषय है। साथ ही यह भी कहा गया है कि देशभर में न्याय और कानून व्यवस्था में महिलाओं की संख्या बहुत ही कम है। अगर अखिल भारतीय न्यायिक नियुक्ति सेवा का गठन हो जायेगा तो यह समस्या भी खत्म हो जायेगी और महिलाएं खुली प्रतियोगिता में अपनी प्रतिभा साबित कर अपना स्थान बना सकेंगी। इससे लैंगिक असमानता भी खत्म होगी और त्वरित न्याय की अवधारणा भी सफल होगी।

देश की जिला अदालतों में अभी जो स्थिति है,उसमें अखिल भारतीय न्यायिक सेवा निश्चित ही न्यायपालिका को अधिक जवाबदेह, दक्ष, पेशेवर एवं पारदर्शी बनाकर न्याय की गुणवत्ता और पहुंच में वृद्धि करेगी। नवनियुक्त जजों को स्थानीय भाषा सिखाकर अथवा निचली अदालतों के जजों का केवल राज्य के अंदर ही स्थानांतरण करने जैसे प्रावधानों से राज्यों की चिंताओं को दूर किया जा सकता है ताकि राज्य एवं उच्च न्यायालय इस सेवा की स्थापना को सहर्ष स्वीकार करें। कानून मंत्रालय का भी मानना है कि अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के माध्यम से देश में सक्षम न्यायाधीशों का एक ‘पूल’ तैयार किया जा सकता है जिनकी सेवाएं विभिन्न राज्यों में ली जा सकती हैं।

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