ब्‍लॉगर

माटी के शिल्पकारों की अंधेरी दीवाली

– डॉ. रमेश ठाकुर

कुम्हारों के लिए धनतेरस-दीवाली के त्यौहार रोजगार और कमाई के लिहाज से बड़े माने जाते हैं। इन दिनों उनके मिट्टी के बर्तनों की बेहताशा ब्रिकी होती है। पर, इस बार उनकी कमाई पर बेमौमस बारिश ने पानी फेर दिया है। दीवाली से करीब एकाध महीने पहले कुम्हार दूर-दराज क्षेत्रों में जाकर चिकनी मिट्टी का जुगाड़ करते हैं जिनसे दिए, कुज्जे, कलश व अन्य मिट्टी के बर्तन तैयार करते हैं। पर, इस बार वैसा नहीं हुआ। अक्टूबर के मध्य हुई बारिश ने सब गुड़ गोबर कर दिया। मेहनत चौपट होने से कुम्हार खासे परेशान हैं। तेज बारिश से मिट्टी बनाने वाले चाक घुल गए और बर्तन को पकाने वाली भट्टियों में पानी भर गया। यही वह वक्त होता है जब कुम्हारों को बाजारों और विभिन्न कंपनियों द्वारा दियो को बनाने की एडवांस बुकिंग मिलती है। कुम्हारों को ऑर्डर तो इस बार भी मिला, लेकिन डिलीवरी नहीं दे पाए। ऑर्डर के रूप में मिले एडवांस धन को उन्होंने मिट्टी खरीदने में व्यय कर दिया, जिससे उनके सामने मुसिबत और खड़ी हो गईं, एडवांस को भी वापस नहीं कर सकते।

गौरतलब है, माटी कला हमारी भारतीय संस्कृति का हिस्सा रही हैं, लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध और तकनीकी सुविधाओं के विस्तार ने इस कला को विलुप्ता की ओर धकेल दिया। मिट्टी के बर्तनों और इससे जुड़ी अद्भुत कलाकारी से मौजूदा युवा पीढी तो एकदम अनजान ही है। विलुप्त होती संस्कृति को सहेजने के लिए पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने कुम्हारों के लिए माटी कला बोर्ड के जरिए रोजगार देने की बात कही थी। योजना के मुताबिक सरकार ने प्लास्टिक पर प्रतिबंधित लगाने और मिट्टी के बर्तनों को बढ़ावा देने की कार्ययोजना तैयार की थी, साथ ही माटी कला से जुड़े कामगारों को प्रशिक्षित करने का भी मन बनाया था, लेकिन कुम्हारों की किस्मत यहां भी दगा दे गई। कोरोना कहर के चलते सरकार की योजना आगे नहीं बढ़ पाई। आजादी के बाद आबादी का एक बड़ा तबका इस व्यवसाय को पुश्तैनी धंधा मानता था, लेकिन धीरे-धीरे लोगों से छिन गया।

माटी संस्कृति के संरक्षण के लिए समय-समय पर केंद्र सरकार व राज्य सरकारों ने अपने हिसाब से कुछ प्रयोग किए, जैसे पॉलिथीन पर प्रतिबंध लगाना, चाय के लिए कुल्हडों का प्रयोग करना आदि। पर, समय जैसे-जैसे बीता, नियम-कानून भी कमजोर पड़े। लालू प्रसाद यादव जब रेलमंत्री बने तो उन्होंने देशभर के रेलवे स्टेशनों की खानपान की दुकानों पर चाय के लिए कुल्हड़ का उपयोग अनिवार्य किया था। देखा जाए तो प्रर्यावरण के लिहाज से भी उनका निर्णय अच्छा था। बाकी कुम्हारों की आमदनी तो एकाएक बढ़ ही गई थी, लेकिन जैसे ही वह रेल मंत्रालय से हटे, उनके नियम-आदेश भी धूमिल पड़ गए। समय कितना भी क्यों न बदला हो, कुम्हारों की आमदनी अब भी अच्छी खासी हो जाती है। पहले के मुकाबले मिट्टी के बर्तन अच्छे भाव में बिकते हैं। एक घड़ा जो कभी दो या तीन रुपये से ज्यादा में नहीं बिकता था, उसकी मौजूदा कीमत अब पचास से सौ रुपये के बीच होती है।

दीवाली पर कुम्हारों की जबरदस्त आमदनी होती है। ऐसी कमाई जिससे उनका साल भर का गुजर बसर हो जाता है। लेकिन इस बार की बारिश ने कुम्हार समाज को कहीं का नहीं छोड़ा, उनकी मेहनत जाया हो गई। दीपावली के दिनों में बिकने वाले मिट्टी के आइटम जैसे दीया, कलश, धूपदानी, मटके, कुल्हड़ और ढक्कनों का कच्चा माल लगभग बनकर तैयार था। पर बिन मांगी बारिश ने सबको धो डाला। आग की भट्टी में पानी भर गया, चाक पानी से भीग गए, कच्चा माल पानी में बह गया। कुम्हार पूरी तरह से तबाह हो गए, उनकी तबाही पर कोई सांत्वना भी नहीं देता?

माटी के कलाकार बिना किसी सहयोग व सरकारी सुविधा के कड़ी मेहनत से बर्तन तैयार करते हैं। नुकसान होने पर मुआवजे का भी कोई प्रावधान नहीं है। मौजूदा बारिश से हुए नुकसान को छोड़ दें, तब भी कुम्हार बीते दो वर्षों से कुदरत के कहर से अधमरा हुआ पड़ा है। कोरोना के कारण उनका व्यवसाय पूरी तरह से पिट चुका है। दुर्गा पूजा त्यौहार उनके लिए खास अहमियत रखता है, इस त्यौहार पर उन्हें मां दुर्गा की प्रतिमाओं को बनाने का ऑर्डर मिलता है। ये त्यौहार भी कोविड से प्रभावित हुए हैं। इसके अलावा धनतेरस, विश्वकर्मा पूजा और दीपावली पर अच्छी कमाई होती है, उसमें भी खलल पड़ गया। कुल मिलाकर कुम्हार समाज के लिए साल में दो-तीन पर्व विशेष तौर पर होते हैं जिसमें मिट्टी की प्रतिमा और बर्तन बनाने का काम मिलता है। कुदरत ने दोनों पर्व में तेज बारिश करके उनके समूचे सिस्टम को धराशायी कर दिया। कह सकते हैं दिया बनाने वालों के घरों में इस बार दिवाली का दिया ब-मुश्किल ही जलेगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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