ब्‍लॉगर

विस्मरण के दौर में महापुरुष का स्मरण

– गिरीश्वर मिश्र

महात्मा, बापू और राष्ट्रपिता जैसे विशेषणों के साथ स्मरण किये जाने वाले देश के आत्मीय महापुरुष ने बड़ी गहनता के साथ भारत का एक स्वप्न बुना था और उस स्वप्न के आकार लेने कुछ महीनों बाद ही उस स्वप्नदर्शी की आज ही के दिन हत्या कर दी गई थी। उनका सपना, उनका विचार और कर्म विपुल और संश्लिष्ट होने के साथ ही भारत की सभ्यता के स्वर को भी मुखरित करता है। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव मनाने के दौर में उनका स्मरण देश और दुनिया के लिए कई अर्थों में प्रासंगिक हो जाता है।

वे व्यक्ति के रूप में कर्मठ, अध्यवसायी और दृढ़व्रती तो थे ही उन्होंने भारत को अपने में इस कदर बसाया कि वे भारत के प्रतिनिधि हो गए और मनुष्यता के अर्थ की मिसाल भी। महात्मा गांधी देश की चेतना के प्रवाह में अपने को इस तरह सम्मिलित किए कि उनके लिए जीने का पर्याय बन गया। वह उनके स्वधर्म का अभिन्न अंग बन कर शारीरिक, मानसिक और सामाजिक आचरण को दिशा देने वाला हो गया। समष्टि को आत्मसात करने की उनकी चेष्टा उन्हें उनके समकालीनों और परवर्ती जनों से अलग करती है। उन्होंने भारत के साथ समानधर्मी होने की दिशा में चलने की राह खुद बनाई थी और अपनी पुरानी खोल से बाहर निकल कर देश-काल की परिस्थितियों को पहचानते हुए और सीमाओं में रहते हुए संवाद किया।

इस संवाद में विचार की कोटियों का निरंतर आविष्कार करना उनकी विलक्षण सृजनात्मकता को द्योतित करता है जो सीमाओं का विस्तार करने वाला साबित हुआ। ’सत्याग्रह’, ‘अहिंसा’, ‘सत्य’, ‘सेवा’, ‘ईश्वर’ और ‘सविनय अवज्ञा’ जैसी आदर्श-सी प्रतीत होने वाली अवधारणाओं को अमली जामा पहनाया। इनको धो-पोंछकर नई ऊर्जा और अर्थवत्ता के साथ न केवल प्रस्तुत किया बल्कि आगे बढ़कर जीवन में उतारने का भी यत्न किया। स्वराज्य और स्वाधीनता की जो अनोखी लड़ाई उन्होंने लड़ी उसकी रणनीति बनाना आसान न था। वैचारिक, सामाजिक और क्षेत्रीय विविधताओं के बीच बहुस्तरीय भागीदारी सुनिश्चित करना सरल न था और सबको अपनाने के लिए विशाल हृदय की जरूरत थी और महात्मा गांधी ने बहुत हद तक यह उदारता दिखाई।

विचारों को व्यवहार में तब्दील करने के महात्मा गांधी के प्रयोग सिर्फ कागजी ही नहीं थे। उन्होंने काफी दृढ़ता और कड़ाई के साथ उनके पालन पर भी जोर दिया और खुद उदाहरण भी पेश किया। ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनसे यह बात स्पष्ट होती है स्वयं संतुष्ट हो जाने के बाद ही वह साझा करते थे और दूसरों को अपनाने के लिए कहते और प्रेरित करते थे। उन्होंने ऎसी तमाम तरकीबें विकसित कीं जो सामान्य आदमी को जीने की राह दिखाती हैं और सामाजिक परिवर्तन का अवसर देती हैं। अस्पृश्यता, बेरोजगारी और अशिक्षा जैसे सामाजिक शत्रुओं के विरुद्ध उन्होंने हरिजन सेवा, खादी और कुटीर उद्योग और बुनियादी शिक्षा के रचनात्मक कार्यक्रम शुरू किए जिनको जन समर्थन भी मिला। उनकी नजर में विशाल भारत का विराट समाज उपस्थित रहता था और वे सबकी चिंता कर रहे थे। इसीलिए उनकी नीतियों में पूरा भारत झांकता है। धरती पर पाँव टिका कर वे भारत के लोक कल्याण का मार्ग सुझा रहे थे। इसलिए समावेशी होने के लिए वह समाज के अंतिम आदमी को अपनी कसौटी बनाते थे।

इसके पर्याप्त प्रमाण हैं कि उनके द्वारा लिए संकल्प स्वयं उनके निजी जीवन, उनके आश्रमों के जीवन और उनके साथियों और अनुयाइयों के जीवन में भी उपस्थित हुए और उनको बदला। गांधीजी एक खास तरह की जीवन शैली के प्रतीक बन गए जिसमें आहार, विहार, आचार और विचार को नियोजित करने की व्यवस्था थी। प्रार्थना, मौन और उपवास जैसे अभ्यास के साथ गांधीजी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करते थे। सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी न करना), अपरिग्रह (अनावश्यक चीजों को इकट्ठा न करना), ब्रह्मचर्य, संतोष आदि को दैनंदिन जीवन में व्रत के रूप में शामिल करना अनुशासित रहने की सीख देता है। इन सबमें आत्म-नियंत्रण और आत्म-नियमन के साथ जीने का मंत्र परिलक्षित होता है।

यदि गौर से देखा जाय तो यह बात प्रकट होती है कि गांधीजी में ये सारी बातें धीरे-धीरे विकसित हुईं। देश-विदेश में विभिन्न अवसरों, चुनौतियों, टकरावों और विफलताओं सबसे उन्होंने कुछ न कुछ ग्रहण किया और अपने में बदलाव लाते रहे। उनके अनुभव सिर्फ क्षणिक प्रभाव वाले न थे बल्कि उनसे उनके व्यक्तित्व का निरंतर उद्विकास (इवोल्यूशन ) हुआ जो उनके जीवन में दिखता है। उन्होंने स्वयं यह बात स्वीकार की है कि उनके विचारों में बदलाव होता रहा है और आगाह किया है कि पहले व्यक्त विचार के बदले (उसी विषय पर) बाद में व्यक्त किए गए विचार को अधिक परिपक्व मानते हुए ठीक समझा जाय। पारदर्शी होना और अपनी हानि को देखते हुए भी देश और समाज के लिए त्याग के लिए वे तैयार रहते थे।

आज व्यक्ति, समाज और प्रकृति के बीच का रिश्ता जब नाजुक दौर से गुजर रहा है और विश्व विनाश की राह पर अग्रसर है। महात्मा गांधी के विचार विशेष अर्थ और अभिप्राय वाले हो चले हैं। हिन्द स्वराज में 1909 में कभी उन्होंने पश्चिमी सभ्यता को शैतानी सभ्यता कहा था और 1938 में यह पूछे जाने पर कि क्या वह बदलाव करना चाहेंगे तो उन्होंने साफ़ मना किया था और वे इस बात पर कायम रहे। वैश्विक स्तर पर धरती और वायुमंडल को मनुष्य के प्रदूषण से बढ़ता खतरा अब अनियंत्रित सा होने लगा है। असमय और असंगत अनुपात में वर्षा और अनावृष्टि के साथ अनेक प्राकृतिक प्रकोप बढ़ रहे हैं। उपभोग और उपभोक्ता को बढ़ावा देने वाला पूंजीवादी माडल बाजार के हाथों में जा रहा है और बाजार के हित ही सर्वोपरि हुए जा रहे हैं। लगता है मानों सब कुछ बाजार से अनुबंधित हो रहा है और उसी के आदेश-निर्देश पर सारी व्यवस्थाएं चल रही हैं। प्रौद्योगिकी की बढ़ती भागीदारी ने इस स्थिति को और जटिल बना दिया है।

भारत की बढ़ती जनसंख्या पश्चिमी दुनिया के माडल पर चलने के लिए जरूरी संसाधनों के अभाव में चुनौती वाले भविष्य की ओर बढ़ रही है। बेरोजगारी, मंहगाई और सामाजिक न्याय के सवाल मुंह बाए हुए हैं। अब तक शैक्षिक दृष्टि से जो काम हुआ है उससे कुशल मानव संसाधन की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं हो सकी है। लोगों की महत्वाकांक्षाएँ बढ़ी हैं और उसी के साथ कुंठाएं भी। ऐसे में भारत और सारी दुनिया के लिए चेतावनी देते महात्मा गांधी पुनर्विचार का आग्रह करते हैं और सम्भावनाओं का संकेत करते हैं। मनुष्य की सृजनात्मक समझ को उद्दीप्त करने लिए गांधीगिरी जरूरी हो रही है।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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