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गुलाम नबी आजाद के मर्म को समझो भाई

– हृदयनारायण दीक्षित

गुलाम नबी आजाद ने कहा है कि, ‘इस्लाम का जन्म 1500 साल पहले हुआ था। भारत में कोई भी बाहरी नहीं है। हम सभी इसी देश के हैं। भारत के मुसलमान मूल रूप से हिंदू थे, बाद में मतांतरित हो गए।’ कांग्रेस का साथ छोड़कर डेमोक्रेटिव प्रोग्रेसिव आजाद पार्टी (डीपीएपी) बनाने वाले जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद का बयान महत्वपूर्ण है। आजाद का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा है, ‘पहले कश्मीर में कोई मुसलमान नहीं था। वहां सभी कश्मीरी पंडित थे। भारत में कोई भी बाहरी नहीं है। हम सभी इस देश के हैं। हम बाहर से नहीं आए हैं। इसी मिट्टी की पैदावार हैं। इसी मिट्टी में खत्म होना है। हिन्दू धर्म प्राचीन है।’

आजाद की यह वाकई महत्वपूर्ण और तटस्थ टिप्पणी है, क्योंकि हिन्दू संस्कृति एक है। अनेक रूपों वाली यह संस्कृति सर्वसमावेशी है। अपनी मूल आत्मा में एक है। भारत भूमि हजारों वर्ष से जिज्ञासा की तपस्थली रही है। ऋग्वेद के रचनाकाल से लेकर आधुनिक भारत तक यहां की मेधा ने अनुभूति और वैज्ञानिक विवेक का सारभूत ज्ञान रस संग्रहीत किया है। यहां पूर्व मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, व वेदान्त प्राचीन षट दर्शन हैं। बुद्ध और जैन को मिलाकर आठ दार्शनिक धाराएं हैं। गीता, उपनिषद् व ब्रह्म सूत्र दर्शन ग्रंथ हैं। रामायण और महाभारत महाकाव्य हैं। यह सामगान की धरती है। विश्व मानवता की हितैषी है यह। प्रकृति ने हिन्दुस्थान को बड़े प्यार से गढ़ा है। हिन्दू कीट पतिंग के प्रति भी संवेदनशील हैं। हिन्दुओं का सभी विचारधाराओ के प्रति आदर भाव है। सर्व पंथ समभाव हिन्दू जीवन रचना से ही विकसित हुआ है। हिन्दू वैदिक दर्शन के उत्तराधिकारी हैं। यहाँ उपनिषदों के रचनाकाल तक दर्शन आधारित धर्म का विकास हो चुका था। हिन्दू धर्म की व्यापकता ध्यान देने योग्य है। बृहदारण्यक उपनिषद् के ऋषि कहते हैं, ‘जिससे सूर्य उदय और अस्त होते हैं, वे प्राण से उदित होते हैं, प्राण से ही अस्त होते हैं। इस धर्म को देवों ने बनाया है’। इस मंत्र में धर्म का अर्थ नियम है।


हिन्दू धर्म का सतत् विकास हुआ है। यहां दर्शन और वैज्ञानिक विवेक का जन्म पहले हुआ। धर्म का बाद में। जिज्ञासा और प्रश्नाकुलता हिन्दू धर्म व दर्शन की विशेषता है। यहां साधारण हिन्दू भी आस्था पर प्रश्न करते है और संवाद भी। प्रश्नाकुलता हिन्दू समाज की बड़ी पूंजी है। वैदिक ऋषियों ने प्रकृति का गहन अध्ययन किया था। प्राकृतिक नियम शाश्वत होते हैं। पूर्वज प्रकृति की नियमबद्धता से प्रेरित हुए थे।

डॉ. पीवी काणे ने ‘धर्म शास्त्र का इतिहास’ के पहले भाग में लिखा है,’धर्म किसी संप्रदाय या मत का द्योतक नहीं है। यह जीवन का ढंग या आचार संहिता है। यह समाज या व्यक्ति के रूप में मनुष्य के कर्म और कृति को व्यवस्थित करता है’। यहां धर्म का आशय हिन्दू जीवन रचना से है। यह बिना जांचा परखा अंध विश्वास नहीं है। ऐसे विश्वास के लिए अंग्रेजी में ‘बिलीवर’ शब्द प्रयुक्त होता है। बिलीवर या विश्वासी तर्क नहीं करते। तर्क नहीं सुनते। वे अपने विश्वास दूसरों पर थोपने के लिए हिंसा को भी उचित ठहराते हैं। हिन्दू सभी पंथिक विश्वासों का सम्मान करते हैं। हिन्दुत्व मुक्त विचार का सार है। सत्य सार्वभौम सत्ता है और प्रकृति का संविधान ऋत भी। ऋत और सत्य प्रायः समानार्थी हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् में संकल्प है ‘ऋतं वदिष्यामि – ऋत बोलूंगा। सत्यं वदिष्यामि – सत्य बोलूंगा।’ सत्य बोलना और धर्म का आचरण लोकमंगल की साधना है- सत्यंवद, धर्मं चर। धर्म की नींव का आधार प्रकृति के शाश्वत नियम हैं। धर्म को तार्किक परिणति तक विस्तृत करने वाले पूर्वज विलक्षण हैं। वे धर्म की व्यावहारिक आचार संहिता गढ़ते हैं लेकिन पंथिक मजहबी विश्वास की तरह धर्माचरण के लिए बाध्य नहीं करते।

हिन्दू धर्म में तर्क, वाद-विवाद संवाद पर रोक नहीं है। प्राचीनकाल में धर्म तत्वों पर खुली बहस थी। विद्वानों की गोष्ठियां होती थीं। शास्त्रार्थ थे। धर्म के मूल तत्व पर भी संवाद थे। महाभारत के रचनाकाल में धर्म की तेजस्विता घटी थी। धर्म के निर्वचन में कठिनाई थी। महाभारत के यक्ष प्रश्न आधुनिक काल में भी लोकप्रिय है। यक्ष प्रश्नकर्ता था और पांचो पांडव उत्तरदाता। 4 पांडव उत्तर नहीं दे सके। युधिष्ठिर ने उत्तर दिये। महत्वपूर्ण प्रश्न था, ‘का पंथाः -जीवन मार्ग क्या है’? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, ‘तर्को अप्रतिष्ठा, श्रुतियो विभिन्नः, नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणं/धर्मस्य तत्व निहितं गुहायां, महाजनो येन गतः स पंथाः’- तर्क की प्रतिष्ठा नहीं। वेद वचन भिन्न भिन्न। अनेक ऋषि, अनेक मत प्रमाणं। धर्म तत्व अंतर्गुहा में है। जिस मार्ग से महापुरुष/महाजन गए हैं वही उचित पंथ है। (महाभारत वन पर्व) यहां विचारों की मत भिन्नता है।

दर्शन और वैज्ञानिक विवेक से यहां विश्ववरेण्य संस्कृति का विकास हुआ। जगत एक सुसंगत व्यवस्था है। धर्म इसी व्यवस्था को बनाए रखने की आचार संहिता है। कभी कभी इस व्यवस्था में गड़बड़ी आती है। गीताकार ने इसे ‘धर्म की ग्लानि’ कहा है, ‘यदायदाहि धर्मस्य ग्लार्निभवति भारत’। धर्म के पराभव से अराजकता आती है। धर्म को फिर से व्यवस्थित करना प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है। हिन्दू मन पूरे विश्व को परिवार मानता है। प्रकृति के अंश हैं हम सब। प्रकृति से हमारे व्यवहार की आत्मीयता हिन्दुत्व है। हिन्दू धर्म सम्पूर्णता के प्रति हमारा सत्यनिष्ठ आचरण और व्यवहार है। कठोपनिषद् में नचिकेता और यम के बीच प्रश्नोत्तर हैं। यम ने उसे सत्यधृति कहा है। नचिकेता ने यम से पूछा, ‘जो धर्म से पृथक है, अधर्म से पृथक है, भूत भविष्य से भी पृथक है, कृपा कर के आप मुझे वही बताइए।’ यहां धर्म राष्ट्र जीवन की आचार संहिता है। धर्म की साधना देशकाल के भीतर है।

ऋग्वेद के साढ़े दस हजार मंत्रों में एक भी मंत्र धर्म पालन की जोर जबरदस्ती का निर्देश नहीं देता। वैदिक परंपरा का एक सुंदर शब्द है-व्रत। व्रत अर्थात संकल्प। लोकमंगल के कार्य करने का संकल्प व्रत है। वे प्रकृति के संविधान ऋत से कोई ऊपर नहीं है। वैदिक देवता भी व्रती हैं। (ऋ०3-7-8) व्रत की सुंदर परिभाषा है, ‘ऋत के अनुसार चलना व्रत है’। (ऋ०3-4-7) अग्नि देव भी ऋत व्रती है। (ऋ०3-7-8) सूर्योदय के पूर्व ऊषा आती हैं। ऊषा भी ऋत का अनुसरण करती हैं। (ऋ० 3-61-1) ऋत का पालन धर्म है। देवता मनुष्यों के आराध्य हैं। लेकिन धर्म के नियमों से उन्हें कोई छूट नहीं है। सब धर्म व्रती हैं।

हिन्दुत्व का दर्शन परिपूर्ण लोकतंत्री है। ईश्वर भी विमर्श के दायरे में है। लोकायत दर्शन अनीश्वरवादी रहा है। हिन्दुत्व में इसकी भी प्रतिष्ठा है। ईश्वर विश्वासी भी कई तरह के हैं। कुछ ईश्वर को सर्वोच्च शासक मानते हैं। अनेक विद्वान ईश्वर को कर्ता, भर्ता, दाता व विधाता मानते हैं। कुछ उसे सर्वव्यापी मानते हैं। हिन्दुत्व में सबका स्वीकार है। यास्क ने ठीक ही तर्क को देवता बताया था। हिन्दू होने का अपना आनंद है।

(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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