भोपाल न्यूज़ (Bhopal News)

चंबल में बसपा रहे-सहे जनाधार को बचाने का कर रही संघर्ष

  • बसपा की 22 सीटों पर जीत-हार तय करने में भूमिका
  • पुराने प्रतिद्वंदियों के बाद अब आप और आजाद समाज पार्टी से मिल रही चुनौती

भोपाल। बसपा की स्थापना के समय से ही ग्वालियर चंबल क्षेत्र इस पार्टी का गढ़ माना जाता रहा है, जहां से 93 और 98 के चुनावों में आधा दर्जन तक की संख्या में बसपा के विधायक बनते थे और करीब दर्जन भर सीटों पर पार्टी नम्बर पर रहती थी लेकिन भोजूदा स्थिति में बसपा अपने रहे सहे जनाधार को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। बहरहाल, अपनी जमीनी स्थिति से वाकिफ होते हुए बसपा ने 23 के चुनाव के लिए कमर कस ली। यह सच है कि बसपा का जनाधार घटने का सीधा फायदा कांग्रेस को हुआ है। उप्र जैसे अपने संस्थापक राज्य में विगत विधानसभा चुनाव में सिर्फ एक सीट पर सिमट जाने से सबक लेकर बसपा ने अपना पूरा ध्यान मप्र के इस साल के चुनावों पर फोकस कर दिया है, यहां भी ग्वालियर- चंबल पर उसका ध्यान ज्यादा है। 2018 के चुनावों को देखें तो बसपा को भले ही ग्वालियर चंबल में 34 सीटों में से सिर्फ एक सीट हासिल हुई, लेकिन ग्वालियर ग्रामीण, सबलगढ़ और पोहरी की सीटों पर वह दूसरे नम्बर पर रही थी। इसके अलावा अंचल की 24 सीटों पर वह तीसरे नम्बर पर रही थी। जौरा में 48,285 मुरैना में 43,084 विजयपुर में 35,628 मेहगांव में 22,305 भितरवार में 18,728 सेंबढ़ा में 18,006 वोट हासिल कर बसपा ने साबित किया था कि वह अभी भी तीसरी राजनीतिक ताकत बनी हुई है। 2013 के चुनाव में मुरैना जिले की दिमनी और अंबाह सीटें बसपा के खाते में गई था लेकिन 18 के चुनाव में पार्टी इन सीटों को बचा नहीं सकी ।

बसपा के चुनाव प्रबंधकों की चिंता
कभी खुद को दलित वोटों की एकक्षत्र अलम्बरदार मानने वाली बसपा को इस बार परंपरागत प्रतिद्नदी दलों के अलावा दो नई ताकतों से अपने वोट बैंक को बचाने की चुनौती है, यह हैं आप पार्टी और आजाद समाज पार्टी । राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त पार्टी का दर्जा मिलने के बाद से आप 2023 के चुनावों को लेकर कुछ ज्यादा ही जोश में है जबकि आजाद समाज पार्टी यहां सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने का ऐलान कर चुकी है। इस पार्टी के मुखिया चन्द्रशेखर आजाद विगत माह शिवपुरी के कार्यक्रम में अपनी ताकत दिखा चुके हैं। बसपा के चुनाव प्रबंधकों की चिंता इसलिए और बढी है क्योंकि आजाद समाज पार्टी से वही लोग जुड़े हैं जो हाल तक बसपा में थे और इसी पार्टी की विंग भीम आर्मी ने ग्वालियर चंबल की दलित बस्तियों तक खासी पैठ बनाई है। यही वजह है कि बसपा ने नवंबर तक खुद को अग्रेसिव व एक्टिव मोड में बनाए व बताए रखने के लिए तमाम कार्यक्रम स्थानीय इकाईयों को सौंप दिए हैं। पार्टी ने प्रदेशभर में निकाली जा रही बहुजन राज अधिकार यात्रा की शुरुआत ग्वालियर शहर से ही की और अब तक यह यात्रा संभाग की डेढ़ दर्जन से ज्यादा विधानसभा सीटों पर घूम चुकी है। बसपा का गह ढांचा पुनर्गठित करते हुए 13-13 जिलों को मिलाकर चार जोन बनाए गए हैं।


असंतुष्टों पर भी नजर
भाजपा और कांग्रेस के असंतुष्टों पर भी पार्टी की नजर है। दिमनी से विधायक रहे बलवीर सिंह दण्डौतिया और डबरा नगरपालिका की कई बार अध्यक्ष रह चुकीं सत्यप्रकाशी परसेडिया जैसे नेता कुछ मतभेदों के कारण बसपा छोड़कर कांग्रेस में चले गए थे, इन्हें पार्टी में वापस लाया गया है और पार्टी से अप्रत्यक्ष संकेत मिलने के बाद इन्होंने अपने क्षेत्रों मे चुनावी तैयारी भी शुरु कर दी है। पिछले विधानसभा उपचुनाव के समय बसपा में बड़े स्तर पर पलायन हुआ था और करैरा के प्रागीलाल जाटव, पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रदीप अहिरवार, पूर्व सांसद देवराज पटेल, पूर्व विधायक सत्यप्रकाश जैसे कई जनाधार वाले नेता कांग्रेस में चले गए थे। यह पुनरावृत्ति रोकने के लिए पार्टी चैकस है, जो रूठे या घर बैठे हैं, उनसे प्रदेश प्रभारी सांसद रामजी गौतम और प्रदेश अध्यक्ष रमाकांत पिप्पल खुद बात कर रहे हैं।

बसपा को मजबूती में भाजपा को फायदा
अपने राजनीतिक शत्रुओं को आपस में लड़वाकर अपने हितों की हिफाजत सुनिश्चित कर लेना पुरानी कूटनीति रही है। 23 की तैयारी में जुटी भाजपा इसी फुलसफे पर काम कर रही है। भाजपा के रणनीतिकार यह समझ चुके हैं कि भले ही बसपा की शक्ति कृछ क्षीण हुई हो लेकिन अंचल की 34 में से 22 सीटों पर इस अंबेडकर वादी पार्टी का प्रभाव है, वजह यह कि इनमें से प्रत्येक सीट पर औसतन 20 फीसदी वोटबैंक बसपा का है 7 सूत्रों की मानें तो भाजपा कुछ इस तरह की प्लानिंग कर रही है कि जिन विधानसभा सीटों पर दलित वोट जीतहार तय करने का स्थिति में है, वहां पर बसपा पूर दमखम से चुनाव लड़े। इस तरह दलित वोटों के बटवारे से कांग्रेस को नुकसान होगा और इसका फायदा भाजपा को मिलेगा। बसपा के नेता जहां इन अटकलों को खारिज करते हैं, वहीं कांग्रेस का कहना है कि दलित वर्ग से कांग्रेस का रिश्ता इतना कमजोर नहीं है कि भाजपा की ऐसी कोई भी चाल कामयाब हो जाए।

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