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चुनाव नतीजे: भविष्य की रणनीति बनाने की जरूरत

सियाराम पांडेय ‘शांत’
पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आ गए हैं। ये नतीजे विस्मयकारी तो हैं ही, अपने आप में बड़े संदेश भी हैं। इन संदेशों को समझने और उसी के मुताबिक भविष्य की रणनीति बनाने की जरूरत है। चुनाव में हार-जीत होती रहती है लेकिन कभी हार के कारणों पर मंथन नहीं होता। अगर होता भी है तो उसमें पार्टी अपने हितों के संतुलन को सर्वोपरि रखती है। ऐसे में यह बात उभरकर नहीं आ पाती, जिसकी आम पार्टीजन अपेक्षा करता है। इन संदेशों की अनदेखी का नुकसान भाजपा और कांग्रेस दोनों को उठाना पड़ सकता है किसी को कम, किसी को ज्यादा।
वर्ष 2014 से ही कांग्रेस निरंतर अपना वजूद खोती जा रही है। अब तो हालात यह बन गए हैं कि वह भाजपा की हार में भी अपनी नैतिक जीत की तलाश करने लगी है। इसे उसकी दुर्बुद्धि की बलिहारी नहीं तो और क्या कहा जाएगा? बंगाल, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और असम में कांग्रेस का बहुत कुछ दांव पर था लेकिन वह कहीं भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई। पश्चिम बंगाल में 2016 के विधानसभा चुनाव में वह मुख्य विपक्षी दल बनकर उभरी थी, लेकिन वह रुतबा भी उसने गंवा दिया। इसबार पश्चिम बंगाल के चुनाव पर देश-दुनिया की नजरें लगी थी। वहां खेल होने की बात की जा रही थी। खेल हुआ भी तो इस तरह कि प्रतिद्वंदी भाजपा भी हालत को भांपने में गच्चा खा गई।
तृणमूल कांग्रेस की पश्चिम बंगाल में हैट्रिक लग गई। ममता बनर्जी नंदीग्राम में शुभेंदु अधिकारी से चुनाव हार गई अन्यथा दीदी तो गई जैसे तंज कसने वाली भाजपा को प्रतिपक्ष के जाने कितने वार झेलने पड़ते। भाजपा तमाम राजनीतिक कसरतों के बाद भी तृणमूल कांग्रेस को सत्ता से हिला नहीं पाई। यह और बात है कि उसे बंगाल में जो कुछ भी मिला, कांग्रेस का ही मिला। कांग्रेस को पिछले चुनाव में 76 सीटें मिली थीं। इसबार वह केवल एक सीट पर सिमट कर रह गई। भाजपा ने बंगाल में 200 से अधिक सीटें जीतने का दावा किया था लेकिन वह सौ के आंकड़े से भी 24 अंक पीछे रह गई।
ममता की हैट्रिक की एक वजह यह भी रही कि उन्हेँ सहानुभूति का लाभ मिला। व्हीलचेयर पर प्रचार का उन्हें भरपूर लाभ मिला। ओबैसी की पार्टी वहां चल नहीं पाई। कांग्रेस और माकपा चुनाव लड़ते हुए भी चुनाव लड़ती दिखी नहीं। एक तरह से उन्होंने भाजपा को हराने के लिए तृणमूल कांग्रेस को वाकओवर से दे रखा था। ऐसे में मुस्लिमों मतों का विभाजन नहीं हो पाया। महिलाओं ने भी ममता का साथ दिया। भाजपा को उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों का तो साथ मिला लेकिन उससे उसकी बहुत बात नहीं बनी।
असम में भाजपा दोबारा सरकार बनाने की स्थिति में है लेकिन इसके लिए उसे असम गण परिषद जो उसका पूर्व में भी सहयोगी रहा है, उसके सहयोग की दरकार होगी। केरल में एलडीएफ फिर सत्तासीन हो गई है। केरल में तो चुनावी इतिहास बन है। वहां सत्तारूढ़ दल पर जनता ने अपने विश्वास की मुहर लगाई है। असम, बंगाल और केरल में सत्तारूढ़ दलों की वापसी बताती है कि वहां सत्ता के खिलाफ आक्रोश का सिद्धांत बिल्कुल भी काम नहीं कर पाया। आक्रामक प्रचार और वैयक्तिक हमले इस देश की जनता बहुधा पसंद नहीं करती,यह बात इस बार के चुनाव नतीजों से सुस्पष्ट हो चुकी है। ऐसे में भाजपा को भी अपनी चुनावी रणनीति में आमूल चूल परिवर्तन करना होगा।
चुनाव के दौरान जब हम दूसरे दलों से आए लोगों को टिकट देते हैं तो इससे जहां पार्टी में असंतोष बढ़ता है, वहीं मतदाताओं में भी दुविधा के भाव पैदा होते हैं। पश्चिम बंगाल में भाजपा का मत प्रतिशत जहां 2 प्रतिशत घटा है, वहीं टीएमसी का 5 प्रतिशत बढ़ा है। भले वह 3 से 76 हो गई हो लेकिन उसे मंथन तो इस बिंदु पर भी करना चाहिए। भाजपा में चुनाव पूर्व टीएमसी के 13 विधायकों सहित 30 नेता शामिल हुए थे, जिनमें से 10 विधायकों समेत 18 चुनाव हार गए। भाजपा ने अपने चार सांसदों को विधानसभा की जंग में उतारा उनमें 3 लॉकेट चटर्जी, बाबुल सुप्रियो और स्वपन दास गुप्ता चुनाव हार गए। जीते तो बस निशिथ प्रामाणिक।
भाजपा के लिए अच्छी बात यह है कि वह देश के 18 राज्यों की सत्ता में है जबकि इंदिरा गांधी के दौर में कांग्रेस का देश के 17 राज्यों में वर्चस्व हुआ करता था। भाजपा के लिए यह आत्ममन्थन का समय है। उसकी सफलता में गिरावट की एक वजह कोरोना महामारी भी हो सकती है लेकिन उसे जन सुविधाओं पर ज्यादा फोकस करना होगा। ये चुनाव नतीजे इस बात के संकेत हैं कि चुनाव जीतना बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है जनता का दिल जीतना। राजनीतिक दल अगर इसमें कामयाब हो गए तो उनके लिए असम्भव कुछ भी नहीं होगा। आक्रामक और वैयक्तिक हमले जनता की पसंद के विषय नहीं हैं। दिल्ली और बंगाल के चुनाव नतीजों की समानता से यह बात साफ हो गई है। इसलिए भी राजनीतिक दल छिद्रान्वेषण की जगह अगर आत्मावलोकन की कार्यसंस्कृति अपनाएं तो शायद ज्यादा फायदे में रहेंगे।
जहां तक बंगाल की बात है तो वहां का मतदाता परिवर्तन में कम विश्वास करता है। 1972 से 2006 तक वाम दलों की सरकार और 2011 से 2021 तक टीएमसी की सरकार का राजनीतिक लब्बोलुआब तो यही है। वहां लीडर ही जीतता है। किसी राज्य में जड़ जमाए दल को उखाड़ना इतना आसान भी नहीं लेकिन पश्चिम बंगाल में धीरे-धीरे ही सही भाजपा जमने लगी है, यह दूरगामी परिवर्तन का संदेश तो है ही।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से सम्बद्ध हैं।)
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