ब्‍लॉगर

सड़क निर्माण में पर्यावरण मित्र समझ जरूरी

– कुलभूषण उपमन्यु

इस साल जुलाई के दूसरे सप्ताह में ब्यास घाटी में आई भयानक बाढ़ ने पूरे प्रदेश को हिला दिया। हजारों करोड़ रुपये की आर्थिक हानि के साथ 100 से ज्यादा निरपराध लोग काल का ग्रास बन गए। आवागमन के साधनों के चौपट हो जाने और आसन्न खतरे की चिंताओं ने जन सामान्य के जीवन को सदमे जैसी स्थिति में ला खड़ा कर दिया। सैकड़ों आशियाने ध्वस्त हो गए। इस विभीषिका को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग उठी। केन्द्रीय सड़क एवं परिवहनमंत्री नितिन गडकरी हिमाचल प्रदेश में हुई तबाही का जायजा लेने ब्यास घाटी के दौरे पर आए। उनसे प्रदेश की जनता को बहुत उम्मीद थी कि वे अवश्य पूरी परिस्थिति का आकलन करने की दिशा में कोई सार्थक कदम उठाने की पहल करेंगे जिससे हिमालय क्षेत्र में सड़क निर्माण में पर्यावरण मित्र समझ का समावेश हो सकेगा ताकि आगे चल कर हिमालयी क्षेत्रों में अवैज्ञानिक रूप से बनाई जा रही सड़कों को उपयुक्त तकनीक से बनाने की दिशा में पहल हो सकेगी। सुना गया है कि गडकरी जी भूगर्भ विज्ञान की बुनियादी समझ भी रखते हैं, इसलिए यह अपेक्षा और भी बलवती हो गई थी। हिमालय की तासीर को पढना बिना भू-वैज्ञानिक समझ के संभव ही नहीं है। किंतु खेद है कि हमारी ये योजनाएं इंजनीयरिंग समझ से बनाई जाती हैं जो इस समझ पर कार्य करती है कि हमारे पास सभी निर्माण कार्यों में आने वाली समस्याओं के समाधान मौजूद हैं। किंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। प्रकृति की अपनी चाल है और अपनी ताकत भी, जिसके सामने इन इंजीनयरिंग की गणनाएं ओछी पड़ जाती हैं। यह ब्यास घाटी की विभीषिका में उनकी बनाई फोरलेन की दुर्गति ने सिद्ध कर दिया।

हमें सोचने पर मजबूर कर दिया कि यहां इंजीनयरिंग की समझ नाकाफी है और इसके अलावा भूगर्भ विज्ञान से जुड़े तत्व भी ध्यान देने योग्य हैं। यहां-वहां सड़क निर्माण का मलबा किस तरह नदी तल के साथ ही खपाया गया, वह वैज्ञानिक सड़क निर्माण जो हिमालय की जरूरतों के मुताबिक हो इसकी बुनियादी समझ की भी अनदेखी करता प्रतीत होता है। अपनी गलतियों से सीखने के लिए पहले उनको मानना जरूरी होता है, किंतु हम उसके लिए जरूरी नम्रता को शायद अपमान मानते हैं और इसलिए टाल मटोल करके निकल लेते हैं। ऐसे में आगे आने वाले समय में और भी बड़ी गलतियां करते जाने की संभावना बन जाती है। मंत्री जी इस विपरीतगामी प्रक्रिया को बदल सकते हैं।


पहाड़ी नदी के तटीकरण की बात तो कुछ हद तक समझ आती है किंतु उसे खोद कर गहरा करने की धारणा हिमालय के बिलकुल भी अनुकूल नहीं है। नदी का तल पत्थर, रोड़ी, बजरी, रेत की मोटी तह से ढका रहता है और नीचे की कच्ची मिट्टी को पानी की मार से बचा कर भू-क्षरण को रोकता है। एक बार यदि नीचे की कच्ची मिट्टी सामने आ गई तो बाढ़ के पानी के कटान से गहरी होती जाएगी, जिससे नदी के किनारे लगे तटबंध भी गिर सकते हैं। नदी हमेशा घुमावदार होकर ही बहती है, क्योंकि पानी कभी सीध में नहीं बहता है। उसको तटीकरण द्वारा यदि सीधा करने के प्रयास किए गए तो वह अपनी घुमावदार चाल को तटबांध तोड़ कर पुन: हासिल कर लेगा। इसके अतिरिक्त मुख्य प्रश्न यह भी है कि आखिर इतना मलबा नदी में आया कहां से। सड़क निर्माण में अवैज्ञानिक डंपिंग के कारण ही यह मलबा आया। इस बात का जिक्र करने से क्यों बचा जा रहा है। इस गलती को समझे बिना हिमालय में जहां भी भारी निर्माण कार्य होंगे वहां इस तरह की तबाहियां होंगी।

खोलीकरण यानी दो-तीन मीटर खुदाई करके नदी को गहरा करना है, तो विशेषज्ञों का ध्यान तटीकरण और खोलीकरण को सफल बनाने की दिशा में रहेगा। कुछ नया सुझाव पर्वत विशिष्ट निर्माण के लिए निकल कर नहीं आ सकता। उसके लिए उन्हें स्वतंत्र सुझाव के लिए कहना पड़ेगा और वैसे विशेषज्ञ डालने पड़ेंगे। इंजीनियरिंग समझ से वैसे सुझाव आ ही नहीं सकते। मंत्री जी ने नुकसान की भरपाई के लिए मुक्त हस्त से सहायता देने के आशय की जो घोषणा की, वह तो निश्चय ही स्वागतयोग्य है किंतु इस धन का प्रयोग हिमालय के अनुकूल तकनीक से किया जाना चाहिए, तभी टिकाऊ सड़क निर्माण संभव होगा। हो सकता है कि इसके लिए कुछ अतिरिक्त धनराशि की आवश्यकता पड़े, जो दी जानी चाहिए। वरना साल-दर-साल तबाही से पीछा छूटने वाला नहीं है। नदी किनारे भवन निर्माण और छोटी ग्रामीण सड़कों के निर्माण के दौरान भी मलबा डंपिंग मनमाने तरीके से किया जा रहा है। इससे भी बड़ी तबाही हो रही है। थुनाग में हुई तबाही का यही कारण सामने आया है।

बांध प्रबंधन में भी लापरवाही की अनदेखी नहीं की जा सकती है। निश्चय ही अचानक पानी छोड़ने के कारण बांध के नीचे के क्षेत्र में तबाही हुई। बाढ़ नियंत्रण को प्रबंधन की एक जिम्मेदारी बनाने की जरूरत है, जिसके लिए बांधों में बरसात से पहले बाढ़ के पानी को खपाने के लिए जगह खाली रखनी पड़ेगी। मंत्री जी का आर्थिक मदद के लिए धन्यवाद करते हुए यह कहना जरूरी होगा कि यदि हिमालय में पर्वत विशिष्ट विकास मॉडल के अनुरूप निर्माण को जरूरी नहीं बनाया गया तो सारे प्रयास हिमालयी क्षेत्र में तबाही लाने वाले साबित हो सकते हैं।

(लेखक, पर्यावरणविद् और जल-जंगल-जमीन के मुद्दों के जानकार हैं।)

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